शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

बियाबान गाँव

करियर banaane की धुन कहा ले आई। गाँव से कसबे और फ़िर कसबे के मेट्रो शहर में आ गये। खबरों की दुनिया में ese उलझे की वक्त कब निकल गया पता ही नही चला। हाल ही में बहुत दिनों बाद खबरों की दुनिया से दो दिन की छुट्टी मिली। सहसा ही मन अपने पुश्तेनी गाँव जाने को लालायित हुआ। एक अरसा बीत गया था वहां जाए। सो दोपहर की गाड़ी से दिन ढलने से पहले ही पहुँच गया। जिला झाँसी के कसबे बबीना से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बसा है मेरा गाँव धमकन। चारो तरफ़ से सेनिक छावनियों से घिरा। छोटा सा गाँव। मेरा अपना। सभी के पैर लागकर आँगन में चारपाई पर बैठा दादी, चची, ताई से बतिया ही रहा था, तभी पड़ोसी का लड़का आया और पूछने लगा- चाचा आ गए क्या ,,? माँ ने पुछवाया है। पिताजी अभी तक नही आए हैं। चाची ने नाही कर दी अभी नही आए है। मैं पूछा कहा गए है ? दादी ने बताया जाने गाँव के लड़कन को का हो गाऊ है। सारा सारा दिन घर से बाहर रहत हैं। सुबह से निकलते है और देर रात तक आते हैं या फ़िर आते ही नही हैं। सबरे दिना ओरतें अकेली रहत हैं। घर का काम देखे या गोबर पानी करें। अब लड़कावारे करें भी तो का ? खेतीबाड़ी रही नही। अकेले दूध के सहारे कहा तक गुजर बसर होय। लड़कावारे पड़ गए जाने कौन सी सोहबत में।
मैं मौन मूर्ति बना सा कुछ सुन व देख रहा था। आवाज का दर्द और चेहरे की तकलीफ। और जेहन में अपने गाँव व बचपन की यादें छाने लगी। जो आज भी मेरे मन में अमिठ हैं। कितना सुकून रहता था हमारे गाँव में। हमारे खेत घर के पिछ्बादे ही दूर तक फैले थे। सारे गाँव में खेती- बाधी होती। सुबह से शाम तक बैलो के गले की घंटिया सुने देती। दूर दूर तक हरियाली पसरी रहती। कुओं पर रहत चलते। खेतो को पानी दिया जाता। मुझे अच्छे से याद है जब दादा, चाचा, पिताजी खेतो में काम करते। दादी रोटियाँ लेकर लाती और हम सब खेत की मेड पर खड़े विशाल पीपल की ठंडी छाँव में बेठे कर भोजन करते। पीपल पर झूला झूलते कब दिन से शाम हो जाती मुझे पता ही नही चलता। यह कहानी हमारे परिवार की नही सरे गाँव की थी। कुओं पर पन्हारियों की बतियाँ, सास बहु की छीटाकशी, दोपहर बाड़े में कंडे पथाते, सुबहशाम गायों को दोहना, जेसे जन्नत इसी का नाम हो। हर घर के आगन से गोबर व मिट्टी की सोंधी सुगंध उठकर सारे गाँव को एक आनोखी महक से सराबोर कर देती थी।
पर सरकार के एक फैसले से यह सारा गाँव उजड़ गया है। न खेती रही न कुए और न ही सौहाद्र का माहौल। करीब १७ साल पहले सरकार ने सेनिक छावनियों के बीच होने के कारन गाँव को विस्थापित करने का निर्णय लिया। खेती के बदले मुआवजा दिया पर घर, मकान का मुआवजा आज तक नसीब नही है। एस कारन बाशिंदे गाँव छोड़कर भी नही जा सकते और खेती भी नही कर सकते। सारा गाँव उजड़ा हुआ है। बंजरता चहु और पसरी दिखाई देती है। कुछ लोगों ने मुआवजे के पैसे से शहर में घर ले लिया। गाँव छोड़ कर चले गए। और खेती विहीन हो गए। आधा गाँव विस्थापित हो चुका है। आधे में लोग रह रहे हैं। छोड हुए घर खंडहर और भूतावा हो गए हैं। वीरान निर्जन सा लगने लगा है गाँव।
गाँव में कोई धंधा नही। युवक बेरोजगार और फालतू हैं। सो पड़ गए बुरी सोहबत में। गाँव के अधिकाँश लड़के अपराधिक प्रवृत्ति में लिप्त हैं। कोपी चोरी करता है तो koi शराब बेचता है। तो कोई कुछ और काम करता है। न घर की फिक्र न बच्चो की सुध। सिर्फ़ पैसे लाकर दे जाते हैं। समझ नही आता सरकार जहा गाँव के शहरी पलायन से दुखी है। गाँव बसाना चाहती है। इसे में एक हस्ते खेलते गाँव को बियाबान कर देना कहा तक ठीक है। सरकार पैसा दे सकती है। पर वह सपने, वह प्रेम, वह परिवेश, वह सुगंध, वह सौहाद्र, नही लौटा सकती है। सोचता हूँ तो दिल दहल जाता है के पीपल का पेड़ काटकर पानी की विशाल टंकी बनेगी। गायों का मंडप गिराकर सीमेंट के कमरे खड़े होगे। धूल भरी पगडण्डी की जगह पक्की सड़क निकलेगी। प्राकृतिक सौन्दर्य कृतिम बनकर रह जाएगा।