रविवार, 15 नवंबर 2009

नाम मेरे नाम से


राहुल कुमार

जुड़ गया फिर नाम उसका, नाम मेरे नाम से
लोगों ने महफिल सजा ली, नित नए इल्जाम से

कौन है ऐसा जो समझा उसके मेरे बीच की
सोच कर दिन भर के बाद, आंख नम है शाम से

चल गए कांटों पे गर, इश्क को समझेंगे तब
प्यार पर तोहमत लगाते जो बड़े आराम से

इश्क ही शै है यहां और बात है जज्बात की
आदमी भी देवता बन जाता है इस काम से

धड़कनें उसकी धड़कती आज फिर दिल में मेरे
उसने कुछ ऐसा कहा है अपने नए पैगाम से

दिल के नाते दिल के रिश्ते निभते हैं कैसे यहां
उससे पूछो मुझसे पूछो या फिर पूछो राम से

बातों में उनकी हम न हो

राहुल कुमार
जिक्र उनका जब भी हो, बातों में उनकी हम न हो
ये तो ऐसे हो गया कि जिन्दगी हो गम न हो

याद जब भी हम करें और हिचकियां उनको न हो
ये तो ऐसे हो गया कि साज हो सरगम न हो

नाम मेरा लेती हो, और दांतों मंे अंगुली न हो
ये तो ऐसे हो गया साथी हो हमदम न हो

ख्याब मेरी आंखों में हो और तस्व्वुर उनका न हो
ये तो ऐसे हो गया कि जख्म हो मरहम न हो

जब भी हमसे रूठते हो, रात भर जगते न हो
ये तो ऐसे हो गया कि आंख हो पर नम हो

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

गुंडांे से नहीं हारेगी हिन्दी

राहुल कुमार
राज ठाकरे के गुंडों का तमाचा हिंदी पर नहीं लोकतंत्र पर ज्यादा है। ओछी राजनीति व टुच्ची गुडंई करने वाले ठाकरे की इतनी औकात नहीं कि वह हिंदी की बिसात को ललकारे सके। उसने आकाश की ओर थूंका है मंुह पर ही गिरेगा। विधायिका में उसकी पार्टी का दुस्साहस संविधान की अवहेलना व देश चलाने वाले अगुआ बने नेताओं व कानून व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों के ढुलमुल रवैये की देने है। वरना हिंदी भाषी छात्रों के साथ दुव्र्यवहार के बाद ही सरकार राज ठाकरे के पंख क्यों नहीं कतरे गए। क्यों वोट बैंक की राजनीति के चलते राष्ट्रभाषा का अपमान किया व सहा जा रहा है। बात महज भाषा की नहीं उसके दुस्साहस और कारगुजारियों की है। जिसने अब हदें लांघ दी हैं।
जिस हिंदी की छाती पर चढ़ राज ठाकरे अपनी राजनीति चमकाना चाहता है वह उसकी ताकत से बेखबर है। चंद छात्रों के साथ मारपीट कर लेेने भर से अगर वह समझ रहा है कि हिंदी की गलेबान भी पकड़ लेगा तो भूल में है। जिस हिंदी को एक हजार वर्षांे की गुलामी खाक न कर सकी उसे 12 विधायक लिए ठाकरे क्या आंच पहुंचाएंगे।
यह वही हिंदी है जिसने भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने बलबूते लड़ा। वही हिंदी जिसके गीत गाते गाते शहादतें क्रांतिकारी हंसते हंसते दे गए। वही हिंदी जिसके अक्षरों के प्रेम से करोड़ों हिन्दुस्तानी एक होकर ललकार उठे और अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर बांधकर जाना पड़ा। जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था उस ग्लोबल अंग्रेजी को मुंह की खानी पड़ी।ये वही हिंदी है जिसने मोहम्मद बिन कासिम से लेकर अब्दाली तक के तुफानी आक्रमण सहे। जिसने अरबी, फारसी, मुगल, फ्रैंच, पुर्तगाली और अंग्रेजी भाषाओं से लोहा लिया। वह भी तक जब इन भाषाओं के रखवाले देश की सत्ता पर काबिज हो गए थे और कुछ होने की लड़ाई लड़ रहे थे। हर हिंदी भाषी पर जमकर अत्याचार कर रहे थे।
फिर यह वही हिंदी तो है जिसने प्रेमचंद, अज्ञेय, जैसे कथाकार व मैथलीशरण गुप्त जैसा राष्ट्रकवि, मीरा का प्रेमलाप और कबीर सा दर्शन अपने अक्षरों से दिया। यह वही हिंदी है जिसमें गुलजार ने प्रेम के गीत रचे, निदा फाजली ने गजलें गढ़ी और जावेद अख्तर धड़कनों तक पहुंच रहे हैं। वही हिंदी जिसने अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक बना दिया। जिसने सारी दुनिया की मां मदर टेरसा को भारत बुला लिया।
हिंदी दिल और जुबान ही नहीं लहू भी है। जो खौलता भी है। जिसमें करोड़ों हिंदुस्तानियों के सपने हैं और जब इन्हें आघात लगेगा तो कोई गुंडा या दुस्साहसी टिकेगा नहीं। जब तक चुप्पी सधी है सधी है। खमोशी टूटेगी तो नमोनिशान न होगा। क्योंकि हिंदी हिंदी है। हिंदुस्तानियों का दिल। धड़कन और जीवन। और ठाकरे भी खूब जानता है तभी तो महाराष्ट्र की चाहरदीवारी मंे बयानबाजी व हरकतें करता है। कभी लखनउ, भोपाल या पटना आकर दिखाए। हिंदी गुंडई भूला देगी।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

और जुदा हो गया बगावती स्वर

राहुल कुमार
प्रभास जी से अपनी मुलाकात की बात सुनकर मैं बेहद उत्साहित था। इससे पहले उन्हें गोष्ठियांे में वक्तव्य देते सुना व देखा था। लेकिन एक कमरे में इत्मीनान से घंटे भर की बातचीत होगी, जितना चाहूंगा बतिया पाउंगा जैसा मौका हाथ लगने की सोचकर में लंबी लंबी डगें भर सड़क पर लगभग दौड़ सा रहा था। सन 2007, अगस्त माह की गर्मी थी। बरसात मुंह चिढ़ा रही थी। और दोपहरी के तीन बजे उनने मिलने का समय मिला था। प्रभास जी ग्वालियर के तनासेन होटल में ठहरे थे। मेरे गुरु आशीष द्विवेदी का जी फोन आया था और मेरी जनसत्ता में इंटर्न की बात भी करने बात भी कही थी।
मेरी सांस फूल रही थी, कुछ पैदल जल्दी जल्दी डगें बढ़ाने से तो कुछ पत्रकारिता के पितामह से मिलने की बात सुनकर। कैसे मिलूंगा ? क्या बात कंरूगा दिमाग मंे कई सवाल कौंद रहे थे। खैर में होटल में पहुंचा और जैसे ही उनके कमरे में दाखिल हुआ वह अपनी धोती बांध रहे थे। नईदुनिया के पत्रकार राजदेव पांडे, नरेंद्र कुईंया व गुरु आशीष द्विवेदी मौजूद थे। मैंने प्रभास जी के चरण स्पर्श किए और सामने बैठ गया। वह नईदुनिया के लिए साक्षात्कार दे रहे थेे। बात पत्रकारिता के कई आयामों पर हुई। प्रभास जी ने हर पहलू पर अपने विचार दिए। और अंत में मुस्कुराते हुए कहा कि छापना वही जो कह रहा हूं। आजकल कुछ कहो और पत्रकार कुछ छाप रहे हैं। अपने हिसाब से कुछ भी लिख रहे हैं। प्रभास जी का धोती पहनना जारी थी। लंबी सफेद धोती खुद धीरे धीरे बांध रहे थे। और पत्रकारिता के गुर सिखाते जा रहे थे।
प्रभास जी ने बताया कि कैसे उन्होंने हाथों पर लिख लिखकर रिपोर्टिंग की। राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते और राहुल सांस्कृत्यान के करीब रहकर क्या क्या खास सीखा। जनसत्ता का प्रयोग कैस सफल बनाया और पत्रकारिता में क्या कुछ बेहतर किया जा सकता है। वह कह रहे थे कि वह अब घूम-घूमकर यही पता लगाना चाहते हैं कि जो नई पीढ़ी पत्रकारिता में आ रही हैं कैसी है। उनमें कहा सुधार की गुंजाइश है और कहा वह पुरानी पीढ़ी से मजबूत है। वह कह रहे थे कि जगह जगह यात्राएं कर वह पत्रकारिता मंे आ रही बुराईंयों को दूर करना चाहते हंै। ताकी यह धर्म व सरोकारों की दुनिया सदा ऐसी ही बनी रहे।
उनका पूरा जोर पत्रकारिता के तेवर और लेखनी पर था। जो उन्होंने जनसत्ता में अपने नायाब प्रयोगों से करके भी दिखाई। और एक ऐसा इतिहास रच गए। जो हमेशा याद किया जाएगा।
वो दिन है कि आज का दिन है। प्रभास जी का हर कहा शब्द कानों में है। लेकिन उस दिन की तरह उनकी चमकती आंखे और होठों पर तैरती मुस्कान खो गई। आज सुबह जनसत्ता अपार्टमेंट पहुंचा तो वह शांत और निश्चिंत लेटे हैं। फूलों से सजे और सफेद चादर में लिपटे। एक युग आज एक ताबूत में बंद हो गया। प्रभास जी चले गए संसार छोड़कर। लेकिन वो सब कुछ दे गए जो हमें आगे की राह दिखाता रहेगा। बगावती तेवर, बुराई के खिलाफ डटकर खड़े रहने की हिम्मत, अंतिम सांस तक लड़ने की जिजीविषा, अडिग चट्टान सी विचारों की मजबूती और सत्ता के खिलाफ खड़े रहकर जनता को सत्ता मानने का स्वाभाविक गुण।