शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

जब तुम थे

राहुल कुमार

जब तुम थे मेरे। ख्वाब सारे हसीन थे। उनमें मैं था तुम थे और थीं मोहब्बत भरी दास्तां। दोस्त थीं सारी गलियां, सारी सड़कें। मौसम थे मेहरबां। और चांद तारे भी मुस्कुराकर बांहें पसार देते थे। देते थे अपने होने का अहसास। पेड़ अपने दामन की छांव में समेट लेते थे मुझे। उन दिनों हर पगडंडी जानी पहचानी सी लगती थी। बुलाती थीं मुझे। गोद में अपनी। दुनिया खुद व खुद खूबसूरत हो उठी थी। हां जब के तुम थे।

जिंदगी जिंदादिल थी। जागी जागी सी रातें थीं। महकी महकी सी सुबहें थीं। एक नई उष्मा देने वाली। दिन थे सुनहरे। शामें शीतल। हर लम्हा अनगिनत सुखद अहसास डाल देता था मेरी झोली में। जब के तुम थे। सिर्फ तुम।

तुम थे तो हवाओं में खुशबू थी। वो भी महकती सी। तेरे रूह के जैसी। भंवरें गुनगुनाते थे गीत। लगते थे हमारी कहानी सुनाते से। फूल हर रंग और किस्म के थे मेरे। जानते थे मुझे। पंछी की तरह आजाद ख्याल था मैं। बादल की तरह यायावर। कभी इस सिरे कभी उस सिरे। तेरे ख्याल में डूबा। हंसता मुस्कुराता। सड़कों पर उछलता कूंदता। बांहें फैलाकर दौड़ता। आसमान छूने को।

ख्वाबों का गहरा तालाब था। जिसमें जीने का फलसफा था। ढेरों उम्मीदें थीं और थीं जीने की कई खूबसूरत वजहें। उमंग की कूदती फांदती नदी जेहन में खिलखिलाती थी। जब तुम थे सारा जहां मेरा था। गम कोसों दूर थे। छू तक न पाता था मुझे। तुम थे हर शब्द नया था। खूब उत्साह, उल्लास से भरा। पत्थर के इस शहर में भी सपनों की नन्हीं कलियां खिली खिली रहती थीं। कड़ी धूप में भी। वह सिर उठाए मुस्कान देतीं। उन्हें साकार करने का मद्दा हिलोरें मारता था। वो सब था जो नहीं था। फिर भी तेरे होने भर से मेरा था।

पर अब न जाने क्यों ख्वाब सारे टूटे से लगते हैं। सहरा सा सारा शहर लगता है। अश्कों के मुस्कुराते सब रंग धुल से गए हैं। तू जो नहीं है। और फिर लगता है क्या हुआ। सब जस का तस ही तो है। मुझे फिर वैसी ही नजर से देखना होगा सब कुछ। जैसे पहले था। लाख कोशिश करता हूं। पर हर बार पाता हूं खुद को बेबश। फिर लगता है तुमको भूल न पाएंगे।

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गजल: दिल मेरा

राहुल कुमार

दिल मेरा आज क्यूं मुझको, टूटा सा लगे
आइना जिसमें है तस्वीर मेरी, झूठा सा लगे

जिसमें है मेरी तमन्नाएं, आरजू मेरी
गांव सपनों का वो मुझको, लूटा सा लगे

हो गया है वो जुदा जबसे, दूर है हमसे
हल्का झांेका भी अब मुझको, तूफां सा लगे

खाईं थी जिसने वफा कसमें, बेवफा निकला
आज पत्थर लिखा सच भी, शगूफा सा लगे

शनिवार, 16 जनवरी 2010

आज भी है वो


राहुल कुमार

ये दिन क्यों जल्दी जल्दी ढलता है
शामें क्यों बोझल होती हैं
रात लंबी वीरानी लिए आती है
और सुबह नहीं सोने देती है
दिन की बैचेनी, रात की बेताबी मंे
अधूरा सा ख्वाब लिए, एक बेख्याली में
उसकी सूरत तैर आती है आंखों में
झूमती, गाती, इठलाती वो
नाजुक सी लड़की, मुस्कुराती वो
अकसर छेड़ जाती है पुरानी यादें
जब भी बैठता हूं अकेला
और ढूंढ़ता हूं खुद को
मन पर छाई वीरानी के कुहासे में
ढंूढ़ता हूं जब भी प्यार की बातें
पाता हूं बेहद करीब
आज भी उसकी सांसे,
जिसने दिखाए थे सपने
और तोड़े भी दिए
बनी थी हमसफर, किए थे वादे
उन पगडंडिंयों के जानिब मोड़ भी दिए
बेकसी और फासलों की गर्द के बीच
खोये उस अपनेपन के बीच
आज भी नजर आती है वो
देती खुद के होने का अहसास
और कहती है,
जुदा नहीं हूं मैं, जुदा नहीं हूं
मेरे भीतर आज भी है वो

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

गरीब गुरबा गोबर बुद्धि

राहुल कुमार

प्रेमचंद की महान कृति गोदान का नायक गोबर कहता है कि जिस पैर के नीचे गरीब का गला दबा हो उसे सहलाना ही बेहतर है। गोबर गरीबों की मजबूरी को मार्मिक ढंग से उजागर करता है। लेकिन समय के बदले परिदृश्य मंे अब गरीब गरीब नहीं रहा है। हां, उसे गोबर बुद्धि जरूर समझा जा रहा है। ऐसी गंगा जिसमें सारे पाप धुल जाते हैं। जिसके नाम पर करोड़ों की हेर-फेर हो जाती है। इस गोबर बुद्धि को पता भी नहीं चलता और उस काले धन का ढेला भर भी इसकी अंटी मंे नहीं डाला जाता। यह फक्कड़ अपनी फटी वेशभूषा और सूखी रोटी में ही मस्ताता रहता है। दुनिया इसके नाम पर कुछ भी हासिल कर ले। बांगडू गरीब-गुरबा, गोबर बुद्धि को फर्क नहीं पड़ता। हजारों कमजर्फ शरणार्थियों को शरण दे देता है जो बदले में इसे कुछ नहीं देते।

पिछले दिनों चारों खाने चित्त हुई और अपना हलक सूखाकर पानी मांग बैठी भाजपा भी इस गरीब-गुरबा की शरण में आकर सत्ता सुख पाने की चाह मंे है। अपना अस्तित्व बचाने के बावस्ता इस धूर्त पार्टी के एक बुद्धिजीवी ने गोबर बुद्धि को जगाने की बांग दी है। हिंदूत्व, संस्कृति, संस्कार, जब वोट बैंक नहीं बचा सकें तो पार्टी के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने गरीबों की सेवा करने की ठान ली है। शायद यहां भाजपा की कामचोरी छुप जाए। अपनों कंधों पर भाजपा को नया जीवन देने की जुगत में जुटे गडकरी गरीब-गुरबा की कमान पर तीर चलाने की राजनीति पर उतर आए हैं। पट्टे ने अध्यक्ष बनने के बाद हुई पहली बैठक में ही पासा फेंक दिया कि सेवा प्रकल्प का निर्माण किया जाएगा। जो गांव-गांव जाकर गरीबों की सेवा करेगी। आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाओं को सांत्वना देकर हरसंभव मदद करेगी। महिलाओं के विकास को मुद्दा बनाएगी। और उन्हें पार्टी से जोड़ेगी।

जैसे इससे पहले कभी गरीब थे ही नहीं। 1980 मंे गठित हुई इस पार्टी की आंखें अब तक मुंदी थीं कि गरीब इससे पहले दिखाई नहीं दिए। हां, आज उसकी गोबर बुद्धि जरूर टिप रही है। जिसकी सहायता से खोया सुख पाने की कवायद मंे जुटी गई है पार्टी। जैसे न इससे पहले महिलाएं थीं और न ही किसानों की विधवाएं। यह गोबर बुद्धि भाजपा ही नहीं कथित समाजसेविओं की भी बड़ी हितैषी है। जो इसके नाम पर बड़े-बड़े स्वयंसेवी संगठन बना बैठे हैं। और खूब पैसा कूट रहे हैं। गोबर बुद्धि उन एनआरआई ओं की भी बड़ी सहयोगी है जो अकूत संपत्ति से उकता आते हैं और समाजसेवा करने का कीड़ा उनके उनकी में कुलबुलाने लगा है। कुछ कंबल बांट कर और शौचालय बना कर धर्मार्थी बन गए हैं।

इस गरीब को अपनी किस्मत से कोई लेना देना नहीं है। चंपक को गोबर मंे ही स्वर्ग नजर आता है। कितने ही सहृदय परोपकारी इसे सुधारने व उद्धार करने आते हैं लेकिन यह आलसी वहीं का वहीं पड़ा है। कितने ही मंत्रियांे ने गरीबी हटाने की योजनाएं बनाईं। कागजों पर खूब पैसा बहाया। लेकिन यह गरीब बुद्धि गोबर से बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेती। अब भाजपा ने इसकी मदद करने का बीड़ा उठाया है। परंतु देखना कमबख्त सुधरेगा नहीं। जस का तस बना रहेगा। बांगडू कहीं का।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

धांसू धांसू ब्लाॅगर

राहुल कुमार

एक धांसू रिपोर्टर नए ब्लाॅगर बने हैं। और धांसू ब्लाॅगर बनने की चाह में हैं। भाईसाहब ने एक घंटे में ही ब्लाॅग का पोस्टपार्टम कर डाला। रिपोर्टिंग से जी चुरा कर एक दिन 12 बजे से ही पीसी में पिल पड़े और बहुत कुछ सीख डाला। हालांकि ब्लाॅग में सीखने को कुछ भी नहीं है। जो मोबाइल व कम्प्यूटर आॅपरेट कर ले वह ब्लाॅग भी हांक सकता है। लेकिन गुुरू को अपनी इस उपलब्धि पर बड़ा गुमान हुआ। और हमसे अपने मुखारबिंदू से पेल बैठे कि हमें भलां सिंह, भलां कुमार कहते हैं। एक दिन में ही सब कुछ सीख डालते हैं। समझे। अभी तुम सीखो, कोशिश करो। तुम्हें भी आ जाएगा।

दरअसल अपुन भी उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पूछ बैठे थे कि वाह भाई बड़ा अच्छा ब्लाॅग बना लिया। अक्षरों को रंगीन कैसे किया ? तभी गुरू का दिमाग फिर गया। लगा जैसे उन्होंने बड़ा भारी ज्ञान अर्जित कर लिया हो और अब कोई भी यहां तक नहीं पहुंच सकता। -वो बात अलग है कि नील अर्मास्टांग के बाद कई लोग चांद को भी रौंद आए हैं।-, लेकिन अपने गुरू फलसफा तुरंत छुपा गए। कहने लगे- हमने सीखा है। मेहनत की है। तुम भी करो। जरूर कुछ मिल जाएगा।

हमें समझते देर न लगी कि वाकई भाईसाहब बड़े धांसू ब्लाॅगर बन गए हैं। जो एक दिन में ही यह भूल गए कि जो उन्होंने ब्लाॅग पर डाला है। उसे महीने पर पहले लिखकर तैयार किए बैठे थे। लेकिन फाॅण्ट कनवर्ट करना नहीं आ रहा है। सो लंबे समय से मैटर तैयार होने के बावजूद हरी भजन करने को मजबूर थे। इस इंतजार मंे कि हनुमान आएंगे अवतार लेकर और कर देंगे चमत्कार फाण्ट बदलने का।

धांसू ब्लाॅगर अपने परम प्रियों मंे से एक हैं। जितना अपुन उन्हें मानते हैं वह भी अपुन को उतना ही मानते हैं। उम्र मंे कुछ बड़े हैं और कुछ अच्छा-बुरा समय साथ-साथ एक छत के नीचे बिताए हैैं। अपुन को पता चला कि भाई का ब्लाॅग बनना है। सो जुट गए फाण्ट कनटर्वर कबाड़ने में। कुछ मगजमारी की। और सफल भी हो गए। और मेल से कनवर्टर का फंडा भाई के सुपुर्द कर दिया। भाई ने तुरंत थैंक्यू वैंक्यू बोलकर अपना भी फर्ज निभा दिया और हमें चलता किया। बात खत्म।इस घटना के दूसरे ही दिन गुरू से हमने रंगीन फाण्ट का फंडा पूछा तो पता चला वह अब वह नहीं है। भलां सिंह, भलां कुमार बन गए हैं। मुबारक हो भाई। अच्छा फण्डा है।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

दूध, समोसे वाले मजबूत व टिकाउ मास्साब

राहुल कुमार
कान उमठेते, पेट की खाल खींचतेे, बाल पकड़ते और हाथ मरोड़ते मास्साब पहली कक्षा से ही पल्ले पड़ गए थे। यह सिलसिला जवानी तक जारी रहा। बस मास्साब की फितरत बदलती रही। अपने आप में सब के सब महानता लिए हुए। अलग अलग परिपेक्ष्य वाली। जिन्होंने पढ़ाने की अद्भुत शैली अपनी घोर तपस्या से हासिल की थी। सभी मास्साब की पढ़ाने व पिटाई करने की अदा खास थी और वहीं उनकी पहचान। कोई कान पकड़ने के धनी थे तो कोई पेट की खाल खींचने मंे अव्वल। कोई झटके से बाल उखाड़ मंे उस्ताद थे तो कोई मारने से पहले हाथ से घड़ी उतारने के हुनरमंद। छात्र भी एक से बढ़कर एक महारथी थे। उनने भी सबकी मारक शैली का पूरा परीक्षण कर रखा था। जैसे ही मास्साब गुस्से मंे आते कि उसी अंग को बचा लेते जिसपर वह आक्रमण करने के कलाबाज थे। कभी कान पर हाथ रखकर तो कभी बाल पर। मास्साब भी छात्रांे के इस शोध से तंग आ गए थे।

तरह तरह के मास्साब। कोई महान क्रांतिकारी बनने का नाटक करते और तर्क देते कि सब जगहों पर उंची उंची इमारतें बन गई हैं। कहीं भी बैठने की जगह नहीं है। इसकारण देश में क्रांति नहीं हो पा रही है। लोग एक साथ नहीं बैठ पाते और क्रांति की योजना नहीं बन पाती। तो कुछ ऐसे कि धेला भर भी जानते नहीं और बघारते ऐसे की महाज्ञानी हो। और खूब हड़काते।

बाल्यावस्था में पहली बार तीन साल की उमर में खांटी गांव की पाठशाला में पिता जी ने दाखिला दिला दिया था। जहां कांवेंट की तरह बेंच व कुर्सियां नहीं थीं। बस्ते में सिलेट और बत्ती के साथ बोरी का एक पल्ला फाड़कर टाटपट्टी के रूप ले जाना पड़ता था। उसे बिछाते और बैठते। कक्षाएं ऐसी की शांतिनिकेतन की छवि दिखाई पड़ती। सूरज की दिशा के साथ साथ बरगद के पेड़ के नीचे हमारी पंक्तियां घूमती रहतीं। बरगद की आड़ में सूरज की तपन से बचने के लिए जैसे-जैसे सूरज घूमता हम भी घूमते और मास्साब की कुर्सी भी। बरसात से बचने का कोई उपाय नहीं था। टप टप गिरते टपके को झेलना ही पड़ता था। और सुबह स्कूल पहंुचते ही कक्षा से पानी उलीचना पड़ता था। अन्य मौसम मंें स्कूल में झाडू लगाना, कंकंड बीनने का काम छात्रों के जिम्मे था।

कुछ ही समय की मगजमारी के बाद हमें समझते देर न लगी थी कि हम इसी पाठशाला के लिए बने हैं और हमें पढ़ाने वाले मास्साब को भी दुनिया मंे कहीं और ठौर मिलने वाली नहीं। दोनों का संबंध आठवें अजूबे की जोड़ी था। और यह जोड़ी टूटे से भी नहीं टूटनी थी। हम काॅवेंट स्कूल, डीयू, जेएनयू, कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, हार्वर्ट जैसे विश्वविद्यालयों के लिए नहीं बने थे। और हमारे मास्साब भी नहीं। उन्हें हमसे ही सर मारना था। और हमें उनमें ही खपना था। जैसे दोनों एक दूसरे के लिए ही धरती पर अवतरित हुए हो। गजब का मेल था। जैसे छात्र वैसे अध्यापक। रंगा-बिल्ला से।

एक मास्साब थे जाटव जी। विज्ञान के पुरोधा। अपनी कुंजी साथ लाते और प्रश्न बोलकर उत्तर उसी मंे से टिपा देते। कोर्स खत्म। कुछ पूछ बैठो तो हकलाते जवाब देते थे। एक दिन हम पूछ ही बैठे कि एयरबेस क्या होता है। कहने लगे अंतरिक्ष मंे वैज्ञानिकों को लाने ले जाने की एयर बस को एयरबेस कहते हैं। किस्सा खत्म। एक थे शुक्ला जी। संस्कृत के पुरोधा। ऐसे मास्साब कि बच्चों का नाम कभी नहीं लेते। सीधे उनके बाप के नाम से बुलाते। कस्बे की तीन पीढ़ियों को पढ़ा चुके थे। और अरे रमूआ के, वह श्याम का कहां गया, मक्कार साले तेरे बाप के कान उमेठे हैं तू किस खेत की मूली है आदि इत्यादि वाक्य उनके पान वाले लाल मुख से झरते। जिनके बापों को उन्होंने नहीं पढ़ाया था। उन्हें उनके बड़े भाई के नाम से हांकते। हम ऐसे ही छात्र थे जिसे अपने नाम का बोध कभी न हुआ। बड़े भाई के नाम से ही जाने गए।

एक थे सक्सेना मास्साब। जिन्होंने कभी कक्षा में नहीं पढ़ाया। आॅफिस में रखे लोहे के बक्से पर बिछे फर्श पर लेटे रहते। और पिछवाडे़ से आ रही ठंडी हवा का झरोखे से आनंद उठाते। छात्रों को आॅफिस में ही बुला लेते थे। गणित के पुरोधा थे। एक सवाल दे देते और खर्राटे मारते सो जाते। पूरे साल में एक भी प्रश्नावली हल नहीं कराते। परीक्षा में खुद नकल की पर्ची दे देते। पूरे कस्बे में उनकी धाक थी। गणित में महाज्ञानी थे वह। रिटायर हो गए और एक दिन सीढ़ियों से लुढ़क गए। पैर टूट गया। भगवान ने लंबा आराम दे दिया। अब घर पर ही बघारते हैं मास्टरी।

ऐसे ही थे कबीर साहब, वर्मा जी, त्रिपाठी जी, शर्मा जी। एक से बढ़कर एक ज्ञानी। जो पढ़ाई ही नहीं दूसरे क्षेत्रों में भी गुरू थे। कोई सुबह दूध बेचते, कोई समोसे की दुकान लगाते तो कोई परचूने की दुकान छोड़कर पढ़ाने आते थे। सुबह-शाम वह दुकानदार होते और हम ग्राहक। दोपहर को गुरू-शिष्य की परंपरा का निर्वाह करते। सबसे बढ़े ज्ञानी थे यादव जी। रसायनशास्त्र के ज्ञाता। जिन्होंने पूरी जिन्दगी में पेरियोडिक टेबिल से आगे रसायनशास्त्र नहीं पढ़ाया। छात्र पूरी टेबिल साल भर में नहीं रट पाते। और वह बगैर रटाये आगे नहीं बढ़ते। कई पीढ़ियों से यही सिलसिला चला आ रहा है। यादव जी बेहद अनुशासनप्रेमी थे। प्रश्न लेकर कक्षा से बाहर चले जाते और फिर कक्षा के पीछे जाकर खिड़की से झांकते थे कि कौन क्या कर रहा है ? एक बार, एक छात्र ने खिड़की के बाहर थूक दिया। तब पता चला कि यादव जी पीछे खड़े जायजा लेते हैं। एकदम उनके मंुह पर पड़ा था थूक।

काॅलेज में बीएससी के दौरान अपुन ने तीन साल में एक भी क्लास नहीं ली। बस ट्यूशन जाते थे। जिन मास्साब के पास जाते उनकी एक खूबसूरत लड़की थी। जब हम ट्यूशन पढ़ते थे। वह तभी बाहर निकलती थी। जिस भी लड़के ने उसकी ओर देख लिया तो समझो शामत आ गई। मास्साब लाल हो जाते और कमरे से बाहर निकाल देते। बाद में वह लड़की ट्यूशन आने वाले उसी गांव के गबरू लड़के से पट गई। जो अकसर उसके कारण कक्षा से बाहर निकाला जाता था। मास्साब कुछ न कर पाए।

आज कंक्रीट के इस बियाबान में बचपन के मास्साब खूब याद आते हैं। जिनके सिखाए गुर हम देश के कई अखबारों में जरिये लोगों तक पहंुचा रहे हैं। आखिर नींव तो उन्होंने ही डाली थी हमारी। आज सभी मास्साब के लिए आदर है। जिन्हांेने हर परिस्थितियों में जीने की कला सिखाई। खांटी थे, पर थे मस्ताने। जो सिखाया और जो न सिखा सके। सब जानते हैं। लेकिन हैं तो हमारे मास्साब ही। अद्भुत शैली वाले। हमारे देश के असली मास्साब। जिन्हांेने बच्चों को पढ़ाया, उनके लिए लड़कियां देखने भी गए। फिर बारात में नाचे, उसके बाप बनने पर खुशी जाहिर की। और पीढ़ियों को पनपने, बनते, बिगड़ते देखते। जेएनयू, आॅक्सफोर्ड, डीयू के प्रोफेसर अपवाद हो सकते हैं। जो सिर्फ सुविधाओं व संसाधनों में पनपते हैं। और कुछ सालों का ही संबंध छात्रों से रखते हैं। पर हमारे मास्साब असली व बेजोड़ हैं। मन पर अमिट हैं। जो भारत देश की नींव व संस्कार हैं। सदियों से टिकाउ और मजबूत हैं। गांवों में भविष्य रचने वाले हैं। हमारे मास्साब। हमारे अपने।