शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

मुई पीठ के पीछे

राहुल कुमार


कमबक्त ये पीठ भी अजीब चीज है। कलमुंहा ऐसा प्लेटफार्म है, जहां निंदा रस का पूरा लुत्फ बड़े से बड़ा शिगूफा छोड़कर लिया जाता है। यहां असली स्वतंत्रता का बोध होता है। दुनिया भर के षडयंत्र रचे जाते हैं। जो बातें मुंह के सामने तिल थीं पीठ के पीछे पहंुचते ही ताड़ बन जाती हैं। अजीब आबोहवा है इस पीठ के पीछे। भयंकर खाद-पानी। जहां दो शब्द भी पोषित होकर पूरी कहानी बन जाते हैं।

सियारों सा हुंआ हुंआ और गीदड़ सी चालकी है। मसक मार छोड़ते हैं लोग दूसरों की बातें। नमक मिर्च लगाकर। निंदा रसिकों के लिए संजीवनी बूटी है और सुख पाने का एकमात्र साधन। यह पीठ का पिछवाड़ा।

सोचता हूं कि पीठ का पिछवाड़ा न होता तो कित्ती परेशानी हो जाती। कैसे कटते लोगों के दिन। सुख पाना तो जैसे कतई मुहाल हो जाता। जब देखो तब मुंह के सामने खड़े होना पड़ता। और गिनी चुनी चार बातों से मन समझाना पड़ता।

कितनी ही चैपालों पर बात करने के लिए कोई बात ही नहीं होती। कैसे तय होता कि अमुख की लड़की आजकल अमुख के लौंडे से नैन लड़ा रही है। और बाॅस वर्तमान में किस की कमर में हाथ डालना पसंद कर रहे हैं। और भविष्य में किसकी में डालने की फिराक में हैं। कल केबिन में किस हुस्नवाली के साथ खास बैठक हुई थी। और बैठक में क्या हुआ होगा ?

कैसे कटता आॅफिस का लंच टाइम। यार-दोस्तों की गपशप पर तो ब्रेक ही लग जाता। पीठ ही है कि लोग आजाद ख्याल हैं। वरना मुंह पर किसी के भी कुछ कह पाने की हिम्मत कहां से लाएं रोज रोज। और मंुह पर कही बातों में मनोरंजन कहां ?

मुंह पर कहीं बातें कहां दे पाती हैं वैसा सुख, जो पीठ के पिछवाड़े बहने वाले रस से मिलता है। पीठ का पिछवाड़ा ही है कि किसी की भी मां-बहन करो कोई डर नहीं। किसी के भी चरित्र का पोस्टमार्टम कर डालो। खुद भी मजा लो और दूसरों को भी दो।

पीठ ही है कि लोकतंत्र जिंदा है। लाखों शहीदों की शहादत से बाद मिली आजादी का सही इस्तेमाल है। वरना मुंह के सामने तो ब्रिटिश रूल का वर्नाकुलर एक्ट और पब्लिक सेफ्टी बिल ही लगा रहता है। कुछ कहो कि अंग्रेजों की तरह लोग दमन करने को उतारू हो आते हैं। आजादी तो जैसे समझते ही नहीं। स्याले।

पीठ ही है कि समाजवाद और साम्यवाद जिंदा है। सबको एक समान गरियाया जाता है। सबके चरित्र को समान रूप से पतित बताया जाता है। बराबरी के अधिकार का पालन करते हुए लंपट और लुंच की उपाधियों से नवाजा जाता है। कोई असमानता और गैर बराबरी नहीं। पूरा और उत्कृष्ट समाजवाद। किसी को पीछे नहीं छोड़ा जाता। साम्यवाद की तरह सबकी पीठ के पीछे चर्चा की जाती है। और मिलने वाले सुख को बराबर बांटा जाता है। भला इनते मानवाधिकार मुंह के सामने मिल पाते हैं क्या ?

फिर भी सुख और आजादी के विरोधी पीठ के पीछे फब्तियां कसने वाले क्रिएटिव लोगों को कायर कहते हैं। कैसे विकट हरामी हैैं। स्वतंत्रता का तो मतलब ही नहीं जानते। स्याले। अंग्रेजों की गुलामी सहते-सहते उसी के आदी हो गए हैं।

पीठ के पीछे ही तो पूरा व्यक्ति निखर पाता है। प्रेमिका को कई प्रेमियों से प्रेम की पींगे बढ़ाकर चरम सुख पाने का फलसफा मिलता है। वरना पूरी जिंदगी एक ही के गले लिपटकर बितानी पड़ जाए। दारू पीकर किसी को भी ठोकर मारने का आनंद पीठ के पीछे ही तो है।

पीठ के पीछे ही तो खुद की कल्पनाशीलता के सारे पंख खोलकर उड़ान भरी जा सकती है और सबका मनोरंजन करने वाली कहानी गढ़ी जा सकती है। पीठ के पीछे ही तो शब्दावली का सदुपयोग है। मुंह पर तो सिवाये बनावटी मीठी मुस्कान और प्रशंसा के दो शब्दों से इतर कुछ भी नहीं।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

तर्ज की तर्ज पर

राहुल कुमार

तर्ज की तर्ज पर बहुत कुछ हो रहा है। दुनिया भर की तर्ज पर दुनिया भर का काम। लगातार विकास आसमान छू रहा है। अंडरपास बन रहे हैं। आकर्षक फ्लाईओवर और चमचमाती सड़कें देशभर में उदय हो रही हैं। कभी इसकी तर्ज पर तो कभी उसकी तर्ज पर। कनाट प्लेस की तरह मोहल्ला चमका दिया जाएगा। स्विटजरलैंड की तर्ज पर सड़कें बनंेगी। पेरिस व जापान की तरह परिवहन सेवा डवलप होगी। और न्यूयार्क-स्यूयार्क की तर्ज पर एक ऐसा सेंटर बनाया जाएगा जहां दुनिया भर के खेल और उन्हें देखने वाले दर्शक एक ही छत के नीचे आ सकेंगे। प्रोजेक्ट कई अरबों, खरबों रूपयों का हैै।

विकास भवन में योजनाएं बनकर दसों साल पहले तैयार हो गई हैं। कुछ तो बीसों साल पहले घोषित हुई थीं। गा, गी, गे अभी भी उनके साथ लगा है। और अधिकारियों ने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगे। घबराने की जरूरत नहीं है। बस तर्ज देना बाकी है। तर्ज दे दें तो फिर अमल में आ ही जाएगी!
खैर अमल में लाने की किसको पड़ी है ? और जरूरत भी क्या है ? कुत्ते ने काटा है क्या ? जो योजनाओं को अमल में ला दें। कागजों पर बन गई और सुबह ग्राफिक्स के साथ अखबारों के फ्रंट पेज पर छा गईं। यह क्या कम हैै ?

फिर भविष्य किसलिए है ? योजनाएं अमली में आती रहेेंगी, वर्तमान में ही कर डालने की क्यों चुल्ल मची है। पहले तर्ज तो दे दी जाए। जो भी नया चेयरमैन आता है अपने ज्ञान के मुताबिक योजनाओं को तर्ज दे जाता है।

योजनाएं पूरे विश्व में तर्ज तलाशती घूम आती हैं बस अपने देश मंे ही नहीं पसर पातीं। और फिर तर्ज तलाशी अभियान से लगता भी तो है कि अधिकारी साहब होशियार हैं। विदेशों में घूमे हैं। फलां बार गए थे तो फलां चीज देखी थी। और मुग्ध होकर अपने देश में भी हूबहू करने की ठान ली थी। कैसे भयंकर देशभक्त हैं ? हर बात पर देश का भला सोचते हैं!

भले ही शहर मंे चमचमाती सड़कें, आधुनिक फ्लाईओवर, एलीवेटिट रोड व अंडरपास न दिखेें। लेकिन प्रयास तो जारी है। दसों, बीसों साल से मेहनत हो रही है। बस यहां तर्ज देकर हामी भरी, वहां रातोरात सब बनकर तैयार।

तर्ज भी तो हराम की जई है। हर बार बदलती रहती है। सरकार बदली, चेयरमैन बदले, दिमाग बदला और तर्ज भी बदल जाती है। जब तर्ज पूरी हो तभी तो योजना पूरी की जाए! पत्रकारों को भी नया काम मिल जाता है। फिर योजना को नई तर्ज के साथ फ्रंट पर पेल देने का।

सरकारी कागजों पर अधिकारी और अखबारों में संवाददाता लाईबाइन मारता है। नक्शे व ग्राफिक्स के साथ। सुबह ही लगता है अपना शहर, देश विश्व क्षितिज पर छा रहा है। कितना कुछ दुनिया भर की तर्ज पर हो रहा है। स्याला महज दिखाई नहीं देता। देगा कैसे आंखें ही नहीं हैं। अखबार नहीं पड़ते। बस कांव कांव करने से मतलब। आम आदमी। जनता।

खैर योजना पर अमल भले ही न हो। उसका अहसास कराना क्या कम बड़ा काम है। इतनी मेहनत करनी पड़ती है अफसर व पत्रकार को। सरकार को बड़ी सी घोषणा, विकास भवन को अखबारों में बड़ा सा विज्ञापन, और अधिकारी को नए वादों के साथ नई तर्ज का नया नक्शा देना पड़ता है। फिर संवाददाता को पूरे उत्साह के साथ कलम घसीटनी पड़ती है। जैसे कल ही शहर स्वर्ग बन जाएगा। मेहनत की कद्र करना तो आम आदमी जानता ही नहीं। बांगडू की तरह बांग देता रहता है कुछ नहीं हो रहा हैै। भाई, सरकार कुछ नहीं कर रही। बांगडुओं को अक्ल दो। स्याले अखबार पढ़। टै टै मत कर।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

ज्योतिष और कुंडलियां इंसानों पर भारी

राहुल कुमार


तीसरी बार आया हूं पुस्तक मेला। हर बार की तरह इस बार भी नक्षत्र मंडप में गया। जहां हाथ की रेखाओं, कुंडलियों और अंकों के फेर में लोगों को ठगता देखा है। अपनी समस्याओं को रेखाओं का फेर मानकर पीले कपड़े वाले और कुछ भी भविष्य तय करने वाले ज्योतषिओं की फीस के आंकड़े जानने की कोशिश की है। जो हजारों में हैं। लोग दे भी रहे हैं। नौकरी और छोकरी के लिए। लड़की वाले वर की तलाश में हैं और लड़के वाले सुन्दर कन्या की चाह में। एक परिवार ऐसा ही मिला। जो अपनी लड़की की शादी करने से पहले उस लड़के की कुंडली ज्योतिष को दिखा रहा था जो उसके लिए चुना गया है। कई कुंडलियां मिलती हैं कई बार नहीं भी।

मैं देख रहा हूं और हर बार देखता हूं। धर्म के नाम पर इंसानों को डराने और भविष्य तय करने वाले ज्योतषियों की कुंडलियां अब इंसानांे पर भारी पड़ रही हैं। खुद को विज्ञान कहने वाले इस अंधविश्वास ने लोगों को मूढ़ कर दिया है। और उन लोगों में गहरे पैठ कर गया है जो खुद पर भरोसा नहीं करते और दूसरों के सहारे किस्मत बदलने की कमजोरी लेकर घूमते हैं।

जीवन में ज्योतिष को मैंने कभी नहीं माना। क्योंकि ज्योतिष ने जो भी भविष्यवाणियां की हैं वह गरीब और मध्यम तबके पर की हैं। और उनमें भी कभी कोई पूरी तरह सच साबित नहीं हुई। अगर होती तो ताउम्र मध्यम तबके के लोग जीवित रहने के लिए संघर्ष नहीं करते रहते। यह वही तबका है जो पैदा होते ही बच्चे की कुंडली बनवाकर उसका भविष्य तय कर देता है। क्या कोई ज्योतिष बचपन में जो तय कर दे वह ताउम्र गले से बंधा रहेगा ? तो क्यों किसी ज्योतिष ने नेपालियन और हिटलर के बारे में भविष्यवाणी नहीं की थी।

किसी भी ज्योतिष ने नहीं बताया कि बर्सिलोना में पलने वाला साधारण सा लड़का विश्व विजेता बन जाएगा। और तानाशाही का तुर्क बन बैठेगा। उस समय किसी ज्योतिष के सितारे नहीं बोले थे कि द्वितीय विश्व युद्ध का क्रुर सेनापति हिटलर आत्महत्या कर लेगा। जिसके सैनिकों की पदचाप मात्र से 100 किलोमीटर तक के यहूदी घर छोड़कर भाग जाते थे।

विश्व भर में भारत का डंका बजाने वाली इंदिरा गांधी के शिखर पर पहुंचने की भविष्यवाणियां जब ज्योतिष कर रहे थे, तभी उन्हें गोली मार दी गई। क्यों किसी ज्योतिष ने उन्हें आगाह नहीं कर दिया ? क्यों किसी ने गुणाभाग लगाकर नहीं बता दिया कि वह आज कल में मरने वाली हैं। उन्हें गोली मारी जा सकती है।

तो क्यों मध्यम तबका ज्योतिष के नाम पर किये जाने वाले मनमाने फैसलों को माने ? क्यों अपनी जिंदगी ऐसे ज्योतिष गणित के हवाले कर दे जो मेहनत से पैसा न कमा पाने के कारण ढांेगी बन बैठा है। और ज्योतिष की आड़ में चांदी काट रहा है।

किसी ज्योतिष ने क्यों भविष्यवाणी नहीं की कि राजीव गांधी की हत्या होने वाली है। खासकर उस समय इंदिरा की तरह ही राजीव के कसीदे ज्योतिष गढ़ रहे थेे। और उनके सत्ता सुख में बने रहने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। आखिर क्यों ?

क्यों भूकंप आने से पहले उसके आने की भविष्यवाणियां नहीं कर दी जातीं। क्यांे महामारी और बाड़ आने की त्रासदियों की सूचनाएं पहले नहीं दे दी जाती। और क्यों हजारों साल की गुलामी झेल रहे भारत के बारे में किसी ज्योतिष ने भविष्यवाणी नहीं की थी कि वह 1947 में आजाद हो जाएगा ?

क्यों ज्योतषियों ने जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड में मरने वाले लोगों को नहीं बचा लिया। क्यांे जनरल डायर के मन को नहीं पढ़ पाए ? उन मासूम बच्चों को अनाथ हो जाने दिया जो इस क्रूर शासक के मनमाने फैसले की भेंट चढ़ गए ?

क्यों सुभाषचंद्र बोस को विमान में बैठने से नहीं रोक दिया। या नहीं भविष्यवाणी कर दी कि वह विमान दुर्घटना में मारे जाएंगे। और क्यों किसी ज्योतिष ने नहीं बता दिया था कि सड़कों पर मारा-मारा घूमने वाला विवेकानंद भारतीय धर्म की विजय पताका शिकागो में फहराएगा ?

आखिर ज्योतषियों ने किसके भविष्य की रक्षा की और किसको बचा लिया ? कभी कोई ऐसा सकारात्मक पुख्ता प्रमाण देखने को नहीं मिलता। तो क्यों उनकी बताईं बेमेल कुंण्डलियों का सच मान लिया जाए ? और ऐसा कदम उठा लिया जाए जिससे सारा जीवन प्रभावित रहे।

सवाल तो यह भी है कि जो कुण्डलियां मिल जाती हैं क्या वह शादियां हमेशा सफल हुई ? जरा कोर्ट के फैसलों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि जहां कुण्डलियां मिलाने का दकियानूसी रिवाज है उन्हीं परिवारों की शादियां सबसे ज्यादा टूटी हैं।

अगर कुंडलियों का मिलान ही शाश्वत होता तो बारातों की बारात नदी में डूबने की खबरें प्रकाश में नहीं आतीं। वह तो पूरी तरह से कुण्डली मिलाकर शादी रचाते हैं। कहने की कोशिश यही है कि कुण्डलियांें से बड़ा मन है। और वह खुशी है जो अपने फैसले से मिलती है। न की किसी ज्योतिष के निर्णय से। आखिर खुद ही अपना गला घांेटना कहा की मस्लहत है ?