राहुल कुमार
कमबक्त ये पीठ भी अजीब चीज है। कलमुंहा ऐसा प्लेटफार्म है, जहां निंदा रस का पूरा लुत्फ बड़े से बड़ा शिगूफा छोड़कर लिया जाता है। यहां असली स्वतंत्रता का बोध होता है। दुनिया भर के षडयंत्र रचे जाते हैं। जो बातें मुंह के सामने तिल थीं पीठ के पीछे पहंुचते ही ताड़ बन जाती हैं। अजीब आबोहवा है इस पीठ के पीछे। भयंकर खाद-पानी। जहां दो शब्द भी पोषित होकर पूरी कहानी बन जाते हैं।
सियारों सा हुंआ हुंआ और गीदड़ सी चालकी है। मसक मार छोड़ते हैं लोग दूसरों की बातें। नमक मिर्च लगाकर। निंदा रसिकों के लिए संजीवनी बूटी है और सुख पाने का एकमात्र साधन। यह पीठ का पिछवाड़ा।
सोचता हूं कि पीठ का पिछवाड़ा न होता तो कित्ती परेशानी हो जाती। कैसे कटते लोगों के दिन। सुख पाना तो जैसे कतई मुहाल हो जाता। जब देखो तब मुंह के सामने खड़े होना पड़ता। और गिनी चुनी चार बातों से मन समझाना पड़ता।
कितनी ही चैपालों पर बात करने के लिए कोई बात ही नहीं होती। कैसे तय होता कि अमुख की लड़की आजकल अमुख के लौंडे से नैन लड़ा रही है। और बाॅस वर्तमान में किस की कमर में हाथ डालना पसंद कर रहे हैं। और भविष्य में किसकी में डालने की फिराक में हैं। कल केबिन में किस हुस्नवाली के साथ खास बैठक हुई थी। और बैठक में क्या हुआ होगा ?
कैसे कटता आॅफिस का लंच टाइम। यार-दोस्तों की गपशप पर तो ब्रेक ही लग जाता। पीठ ही है कि लोग आजाद ख्याल हैं। वरना मुंह पर किसी के भी कुछ कह पाने की हिम्मत कहां से लाएं रोज रोज। और मंुह पर कही बातों में मनोरंजन कहां ?
मुंह पर कहीं बातें कहां दे पाती हैं वैसा सुख, जो पीठ के पिछवाड़े बहने वाले रस से मिलता है। पीठ का पिछवाड़ा ही है कि किसी की भी मां-बहन करो कोई डर नहीं। किसी के भी चरित्र का पोस्टमार्टम कर डालो। खुद भी मजा लो और दूसरों को भी दो।
पीठ ही है कि लोकतंत्र जिंदा है। लाखों शहीदों की शहादत से बाद मिली आजादी का सही इस्तेमाल है। वरना मुंह के सामने तो ब्रिटिश रूल का वर्नाकुलर एक्ट और पब्लिक सेफ्टी बिल ही लगा रहता है। कुछ कहो कि अंग्रेजों की तरह लोग दमन करने को उतारू हो आते हैं। आजादी तो जैसे समझते ही नहीं। स्याले।
पीठ ही है कि समाजवाद और साम्यवाद जिंदा है। सबको एक समान गरियाया जाता है। सबके चरित्र को समान रूप से पतित बताया जाता है। बराबरी के अधिकार का पालन करते हुए लंपट और लुंच की उपाधियों से नवाजा जाता है। कोई असमानता और गैर बराबरी नहीं। पूरा और उत्कृष्ट समाजवाद। किसी को पीछे नहीं छोड़ा जाता। साम्यवाद की तरह सबकी पीठ के पीछे चर्चा की जाती है। और मिलने वाले सुख को बराबर बांटा जाता है। भला इनते मानवाधिकार मुंह के सामने मिल पाते हैं क्या ?
फिर भी सुख और आजादी के विरोधी पीठ के पीछे फब्तियां कसने वाले क्रिएटिव लोगों को कायर कहते हैं। कैसे विकट हरामी हैैं। स्वतंत्रता का तो मतलब ही नहीं जानते। स्याले। अंग्रेजों की गुलामी सहते-सहते उसी के आदी हो गए हैं।
पीठ के पीछे ही तो पूरा व्यक्ति निखर पाता है। प्रेमिका को कई प्रेमियों से प्रेम की पींगे बढ़ाकर चरम सुख पाने का फलसफा मिलता है। वरना पूरी जिंदगी एक ही के गले लिपटकर बितानी पड़ जाए। दारू पीकर किसी को भी ठोकर मारने का आनंद पीठ के पीछे ही तो है।
पीठ के पीछे ही तो खुद की कल्पनाशीलता के सारे पंख खोलकर उड़ान भरी जा सकती है और सबका मनोरंजन करने वाली कहानी गढ़ी जा सकती है। पीठ के पीछे ही तो शब्दावली का सदुपयोग है। मुंह पर तो सिवाये बनावटी मीठी मुस्कान और प्रशंसा के दो शब्दों से इतर कुछ भी नहीं।