सोमवार, 21 जून 2010

दिल्ली बदल रही है

राहुल कुमार
दिल्ली बदल रही है। तेजी से बदल रही है। कुछ महीनों व सालों में बदल रही है। जितनी अब तक नहीं बदली थी उतनी बदल रही है। आजादी के बाद कभी भी इतनी नहीं सजी संवरी जितना अब संवर रही है। दिल्ली चाहती है वह दुलहन सी बन जाए। नवयौवना। अल्हड़ मस्त जवान दिखे। वो आने वाले हैं। दिल्ली को देखने। ऐसा-वैसा देखेंगे तो क्या सोचेंगे? लज्जा नहीं आएगी क्या? इसलिए दिल्ली तैयारी में है। खुद को बदलने की। ताकि विदेशी मेहमानों के लायक हो जाए। उन्हें रिझा सके। अपने सजे संवरे दामन में छुपा सके।

अब दिल्ली नहीं मानेगी। उस पर खुमारी चढ़ गई है खेलों की। राष्ट्रमंडल आने वाले हैं। दिल्ली के पास समय नहीं है। पूरा यौवन निखारना है। अपने दामन के दाग छुपाने हैं। गरीबी के। बेबसी के। लाचारी के। भूख के। मजबूरी के। मजदूरी के। अपराध के। भष्टचार के। दिल्ली अरबों लुटा देगी। लेकिन निखार जरूर लाएगी। भले ही अपनों का पेट काटे। उनके हलक से पैसा निकाल ले। भूखों को मार दे और दो जून की कमाने वालों को भूखा कर दे। लेकिन वह इंडिया के लिए भारत को निकाल देगी। अपनों की कमाई दूसरों के लिए लुटा देगी। उसे इंडिया की चमक दमक से मतलब है। भारत के भूखेपन से नहीं। वह सजने संवरे में अरबों लुटा देगी। भारत के अरबों इंडिया पर। अपने तो बाद में भी खा-पी सकते हैं। और कुछ मर भी जाएं तो क्या। दिल्ली की थू थू तो नहीं होगी। खूबसूरती के लिए बदसूरतों को निकाल बाहर कर देना ही नीति है। पर आने वालों को रिझाना लाजिमी है। वो आने वाले बड़े रसिक हैं। नवयौवनाओं को पसंद करते हैं। बेबाओं को नहीं। दिल्ली को यौवन झलकाना ही होगा। भले ही दो पल के लिए। उनके लायक बनना ही होगा।

तभी दिल्ली का यश दूर तक फैलेगा। विदेशों में चर्चे होंगे। लोग उसके यौवन का बखान करेंगे। मुरीद हो जाएंगे। भले ही वह दिल्ली को उजाडऩे वाले क्यों न हो। बरसों दिल्ली को रौंदने वाले क्यों न हों। दिल्ली का अंग अंग निचोड़कर, नोंचकर खाने वाले क्यों न हो। वह दिल्ली की लूटी जागीर पर अय्याशी करने वाले क्यों न हो। भारत का खून चूसकर बने लाल गाल वाले क्यों न हो। दामन छीन कर दिल्ली को नंगा करने वाले क्यों न हो। दिल्ली महान है उसने सब भुला दिया है। उनके साथ (ब्रिटिश) उन सभी (राष्टï्रमंडल गुलाम देश) रौंदे हुए बेबसों का स्वागत भी पलक पंवाड़े बिछाकर करेंगी। फ्लाईओवर, अंडरपास का गजरा लगाकर। स्टेडियमों पर अरबों लुटाकर। अपनों के छप्पर छीनकर। दूसरों के लिए अट्टïालिकाएं बनाकर। दिल्ली खुद के दुख हर लेगी। उनका आना दिल्ली का फिर से जीवित हो उठना है। उनका आगमन उत्सव है। खिले चेहरे आने वाले हैं। अपने तो हमेशा भूख से लाचार और नंगे बदन रहते हैं। इसलिए भले ही दिल्ली आज तक अपनों के लिए नहीं बदली पर गैरों के लिए बदलेगी। उसे बदलना ही होगा। दिल्ली बदल रही है। वो आने वाले हैं।