tag:blogger.com,1999:blog-81246918860354949742024-03-14T08:43:23.506+05:30देखा जाएगाहर उस मुश्किल को जिससे लोग घबराते हैं। हर उस परिस्थिति को जहा झुक कर समझौते कर लिए जाते हैं। हर उस लाचारी को जहा इंसान टूटने लगता है। यह ब्लॉग उन उत्साही लोगों के लिए है जो सिर्फ़ जीतना चाहते हैं और हर उस शै से निपट लेना चाहते है जो कमजोर करती है ,,,,,, क्योंकि खोने के लिए कुछ नही और पाने की लिए सारी दुनिया पड़ी है...राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.comBlogger53125tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-52950267707649953162015-02-07T18:58:00.000+05:302015-02-07T19:08:59.101+05:30तलाश आवारगी की.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जहां पहली सांस ली। उस गाँव के घरों में आज तक बिजली के मीटर नहीं लग सके
हैं। बचपन की अटखेलियां जिन गली-कूचों में किशोर हुईं, वह जगह तहसील भी
नहीं बन पाई है। एक क़स्बा है। लंबा सा। पहाड़ी की तलहटी में बसा। सुविधाओं
के नाम पर एक 'थाना' था। जो आये दिन किसी न किसी की 'असुविधा' बनता था। एक
'प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र' था। फटी मटमैली चादर बिछे एकाध बिस्तर वाला।
थानों में पीटे जाने वालों का झूठा मेडिकल प्रमाणपत्र यहां बनता था।<br />
<br />
फिर
जहां जवान हुआ, वो 'महानगर' है। कुछ कॉलेज हैं। कुछ कोचिंग हैं। पार्क हैं।
रेस्तरां हैं। और हैं कुछ प्रेमिकाएं। कुछ मेहरबान दोस्त भी। कुछ जलने
वाले हैं। कुछ नेह लुटाने वाले। प्रेमिकाएं अक्सर कॉफी हाउस में मिलने आती
हैं। दोस्त कमरे पर आ धमकते हैं। यहाँ सड़कों पर गिचपिच है। सिपाही रोक लेता
है तो गाड़ी के कागज माँगने से पहले पैसे मांगता है। जेबें टटोलता है। नेता
है जो खींसें निपोरते हुए गाड़ियों में घूमता है।<br />
<br />
एक पुराना किला है। शहर भर से ऊँचा। उदासी के क्षणों में घंटों मैं यहां से
शहर देखता हूँ। वह सिपाही और नेता ऊँचाई से दिखाई नहीं देते।<br />
<br />
फिर देश की
राजधानी है। 'दिल्ली'। यहां मैं खुद को पहचानता हूँ। दूसरों को पहचानना
सीखता हूँ। एक नामचीन अखबार में खबरें लाने की छोटी सी नोकरी करता हूँ, बड़े
सपने लिए। हां यहाँ सताने को कोई नहीं। लोग टच भी हो जाते हैं तो बड़ी
नजाकत से माफ़ी मांग लेते हैं। दिल्ली औपचारिक है। दिली नहीं। अपार्टमेंट
में एक के ऊपर एक दो ढाई सदस्यों वाले परिवार रहते हैं। कहीं कहीं दबड़ेनुमा
कमरों में दस-पंद्रह भरे हैं। यह रात को सिर्फ सोने आते हैं। यह सो भी
पाते होंगे। ताज्जुब होता है। यहां शराब है। नाईट क्लब हैं। भीड़ है।
गुमनामी है। चहल-कदमी है। तन्हाई है।<br />
<br />
स्त्री चमड़ी बेचने वाले एबी रोड हैं।
खरीदने वाले धन्ना सेठ से लेकर रिक्शे वाले हैं। सड़क पर खड़ी लड़कियां हैं और
उनको एक रात के लिए ले जाने वाली कारें भी। यहां कुछ कमजोर चक्कर खाकर
डीटीसी बसों में गिर जाते हैं। भागमभाग में खाना वक़्त पर नहीं खाते। या कमा
नहीं पाते। प्राइम टाइम में वातानुकूलित मेट्रो भी पसीने-पसीने कर देती
है। जबसे मेट्रो का पहला कोच 'केवल महिलाओं के लिए' हुआ है। कुछ शोहदे इससे
सटे दूसरे कोच में ही खड़े होते हैं। कम से कम झाँक तो सकें।<br />
<br />
कनॉट प्लेस'
है। जहां फेसबुक पर दोस्त बनी लड़की से मैं डेटिंग करता हूँ। वह सकुचाई है।
मैं घबराया। एक कॉफी और बर्गर के बाद हम विदा होते हैं। सुनता हूँ यहीं कुछ
दूरी पर देश के राष्ट्रपति व प्रधानमन्त्री रहते हैं। क्या इस शहर के
ट्रैफिक में वे भी फंसते होंगे। देर रात सड़कों पर निकलने से डरते होंगे।
देख चुका हूँ 16 दिसंबर को एक लड़की को अपना नाम खोकर 'निर्भया' हो जाना पड़ा
है। निश्चित ही उसका असली नाम इस नाम से खूबसूरत होगा।<br />
<br />
आज जिस कॉलोनी में किराये से रहता हूँ, यहां पड़ोस वाली आंटी एक दिन बिफर
गईं। मेरे भाई की कार उनकी कार से टच भर हो गई थी। कहने लगीं - फूहड़ बाहरी
लोग। कॉलोनी में बस गए। इसे ख़राब करने के लिए। वह केंद्रीय विद्यालय में
टीचर हैं। पर शायद नहीं जानतीं कि आर्य मध्य एशिया से भारत आए थे। और
द्रविण न मैं हूँ और न वह। फिर बाहरी कौन ? मैं उन्हें समझाता नहीं डांट
देता हूँ।<br />
<br />
फिर सोचता हूँ कहाँ का हूँ मैं। गाँव, क़स्बा, महानगर, देश की
राजधानी या इस कॉलोनी का। भारत का या मध्य एशिया का। क्या कोई नदी किसी
गाँव, शहर, प्रदेश, देश की हो सकती है। जबकि उसकी शैली निरंतर बहना है। बस
ऐसे ही मैं भी कहीं का नहीं होना चाहता। किसी एक स्थान में नहीं बंधना
चाहता। जीवन एक आवारापन हो। अनंत। बेअंत। जिसका न शुरूआती बिंदु हो न
आखिरी। ऐसा ही जीवन तलाश रहा हूँ मैं इस जीवन में।</div>
राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-32636644550155167822011-01-17T20:54:00.003+05:302011-01-17T21:00:31.501+05:30आंदोलन तेज हैं<strong>राहुल यादव </strong><br />देश में आंदोलन तेज हो चले हैं। हर क्रिया पर प्रतिक्रिया होती है। राहुल गांधी का रास्ता लखनऊ में रोका जाता है तो विरोधियों के पुतले दिल्ली में फूंक दिए जाते हैं। वाराणसी में सभाएं हो जाती हैं। गजब की तेज नजर हो गई है लोगों की। हर बात पर आंदोलन कर देते हैं। अब कुछ भी चुप रहकर नहीं सहते हंै लोग। हर गली कूचे से आवाज उठने लगी है।<br /><span class=""></span><br />सोनिया गांधी पर किताब ऐसी क्यों लिखी। फलां फिल्म में फलां डायलॉग व सीन क्यों है। मुन्नी बदनाम क्यों है। बंद करो। शीला की जवानी देश को गर्त में ले जा रही है। बंद करो। चीयर लीडर्स नंगा नाच है। बंद करो। राजधानी ही नहीं छोटे शहर में भी आक्रोश है, ऐसे मुद्दों को लेकर। खूब बवाल काटा जा रहा है। अब मनमानी करना मुश्किल है।<br /><br />आंदोलन तेज है, भगवा आतंकवाद शब्द नहीं सहेंगे। मुस्लिम आतंकवाद चलता रहने दो। देश सिर्फ हिंदुओं का है और पंथ निरपेक्ष भी है। आंदोलन तेज है। बेहद तेज। उनके लिए देश की हर गली कूचे में अगुआ पैदा हो गए हैं। हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हैं। पुतले जलाए जाते हैं, हड़तालें की जा रही हैं। सहयोग व कार्य बहिष्कार किया जाता है। सड़कें जाम कर, ट्रेनें रोककर बंद की घोषणा की जाती है। सामान्य जन जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया जाता है। आंदोलन तेजी से चलते हैं।<br /><br />महंगाई नहीं सहेंगे। बड़े बड़े फोटो के साथ स्थानीय नेता स्थानीय महंगाई के खिलाफ सड़क पर आता है। मुद्दों को लेकर वह सजग है। अखबार में छपता है। ताकि सभी देख सकें। फोटोग्राफर के आने पर हाथ की दो अंगुलियां भी मुस्कुराते हुए ऊपर उठा देता है। वह गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है। देश में अब चुप रहकर कुछ नहीं सहा जाता है। आंदोलन तेज हैं।<br /><span class=""></span><br />आंदोलन तेज हैं क्योंकि देश में मुद्दे बहुत हैं। यह मुद्दे भी अजर और अमर हैं। क्योंकि हर आंदोलन समझदार है। वह मुद्दे खत्म नहीं करता। उन्हें संभालकर रखता है। ताकि वक्त आने पर फिर से उठाए जा सकें। अगर मुद्दे का हल निकल गया तो फिर किस चूल्हे पर रोटी सेंकी जाएगी। गली का नेता कस्बे का, फिर जिले का और फिर प्रदेश स्तर का होते हुए देश का नेता कैसे बनेगा। इसलिए मुद्दे बनाए रखना ही आंदोलन है। समझदार आंदोलन का निष्कर्ष मुद्दे की समाप्ति नहीं है। वरन उसे चला कर कुछ मुनाफा उठाना है।<br /><span class=""></span><br />महंगाई के खिलाफ आंदोलन होता है स्थानीय नेता को प्याज मुफ्त में मार्केट असोसिएशन पहुंचाती है। वह जमाखोरी के मुद्दे को बचाकर रख लेता है। परिजन पब्लिक स्कूलों की मनमानी फीस के खिलाफ खड़े होते हैं तो पैरंट्स असोसिएशन का अध्यक्ष अपनी मर्जी से कुछ एडमिशन करा लेता है स्कूलों में। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान लाठी भांजते हैं तो स्थानीय नेता को इलाके के कई ठेके मिल जाते हैं। कोठियां बन जाती हैं और पिस्टल लाइसेंस के साथ कई गाडिय़ों का काफिला चलने लगता है उसके साथ।<br /><span class=""></span><br />अब आंदोलन सिर्फ चलने के लिए होते हैं। सब समझते हैं बस आम आदमी नहीं समझता। आंदोलन सिर्फ इसलिए चलते हैं कि कोई आंदोलन न हो। अब आंदोलन ही आंदोलन को रोकने के लिए हैं। आंदोलन तेज हैं कि आम आदमी उकता कर वाकई सड़क पर न उतर आए। कोई बड़ा आंदोलन न हो जाए। इसलिए मुन्नी की बदनामी, शीला की जवानी, सोनिया की साड़ी, राहुल के रुके रास्ते पर आंदोलन चलने दो। रोज चलने दो। अखबार में छपने दो। आंदोलन तेज हैं।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-50976746731099205742010-12-10T20:36:00.004+05:302010-12-10T20:50:52.119+05:30शहर ठंडा पड़ा है<strong>राहुल यादव </strong><br />परेशान है आज वह, फिर बेहद<br />करता है मन इस शहर पर थूकने का<br />बड़ी उबकाई आती है इस शहर पर<br />कैसा ठंडा पड़ा है, कमबख्त<br />कहीं कुछ भी तो नहीं होता<br />क्या मुंह लेकर जाएगा आज ऑफिस<br />क्या कह देगा कि कोई नहीं मरा<br />सारे बदमाश कायर हो गए हैं<br />वह बेहद गंभीर, डरा हुआ है<br />दुआ पर दुआ किए जा रहा है<br />मन ही मन सोचता है<br />अरे बदमाशों कुछ तो करो<br />कहीं रेप कर दो, लूट लो किसी को<br />उतार लो गले से किसी के चेन<br />तोड़ ही डालो, किसी के घर का ताला<br />खींच लो किसी लड़की का दुपट्टा<br />उठा ले जाओ किसी मासूम को<br />मांग डालो मनमाफिक फिरौती<br />मत रहने दो, ठंडा इस शहर को<br />अच्छा नहीं लगता, सौहार्द हमको<br />शराब पीकर ही मचा दो उत्पात<br />मार दो चाकू किसी के पेट में<br />जला ही दो किसी गरीब की दुकान<br />सुबह से शाम होने को है<br />सड़क पर दौड़ते - भागते<br />आज कुछ नहीं मिला<br />क्या मुंह लेकर जाएगा ऑफिस<br />शहर का ठंडा पन नहीं भाता हमें<br />हमारी मजबूरी है, हम रिपोर्टर हैं<br />शांति और सुख, खबर नहीं बनती<br />सनसनी चाहिए सिर्फ सनसनी<br />अखबार बिकता है, टीआरपी बढ़ती है<br />तभी भनभनाता है उसका फोन<br />दूसरे छोर से आती है बहन की आवाज<br />बहुत खुश होता है<br />वह पूछता है परिजनों की खैरियत<br />मां, बाबू जी, भाई, भाभी<br />करता है भगवान का शुक्रिया<br />फिर चल देता है अरे कमबख्त<br />कुछ तो करो<br />ठंडा हो शहर अच्छा नहीं लगता<br />क्या मुंह लेकर जाएगा ऑफिस<br />लेकिन भूल जाता है वह<br /><span class="">अपनी धुन में </span><br />उस शहर में भी है<br />किसी अखबार का ऑफिस<br />चलता है कोई खबरिया चेनल<br />जन्हा रहते है उसके घरवाले<br /><span class="">वहा भी कोई दुआ करता होगा </span>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-56046161365103370442010-12-05T14:46:00.005+05:302010-12-05T14:54:03.433+05:30शहर की झुग्गियां<strong>राहुल यादव </strong><br />एक शहर में बेहद घृणित होते हैं<br />झुग्गी और उसके बाशिंदे<br />सड़क किनारे, छप्पर डाले<br />जिंदगी काटते, फटे पुराने लिबास वाले<br />मजदूरी करते, ढेले लगाते<br />रिक्शे चलाते, भीख मांगते<br />बच्चे, बढ़े<br />कोठियों में बर्तन धोती मांएं<br />ये सब हैं नफरत के पात्र<br />एक शहर में<br />उन लोगों के<br />जिनके यहां करते हैं यह काम<br />रखते हैं उनके घर को साफ<br />फिर भी बिगाड़ती हैं झुग्गियां<br />शहर की खूबसूरती को<br />और खटकती हैं सबकी नजर में<br />इस शहर की झुग्गियां<br />किसी काम की होती नहीं हैं झुग्गियां<br />लेकिन जब भी पुलिस को करना हो टारगेट पूरा<br />तो झुग्गी में जाती है टीम<br />उठा लाती हैं चार लोगों को<br />ब्लेड, गांजा, अफीम लगाकर<br />शांति भंग करने के आरोप में<br />भेज देती है सीखचों के पीछे<br />झुग्गी वालों को<br />जब भी होता है दबाव अतिक्रमण दस्ते पर<br />दौड़ जाती हैं गाडिय़ां, मचा देती हैं उत्पात<br />कुचल देती हैं रिक्शे, मिटा देती हैं झुग्गियां<br />हटा देती हैं ढेले, रेहड़ी और खोखे<br />क्योंकि अतिक्रमण करते हैं<br />ये झुग्गी वाले<br />जब भी बढ़ते क्राइम पर होनी हो चर्चा<br />तो झुग्गी के नक्शे बिछा कर<br />बता देते हैं इन्हें कारण<br />बस<br />ये झुग्गियां दिखती हैं सबको<br />नहीं दिखता बड़ी कंपनियों का अतिक्रमण<br />बंगलों के बाहर सड़क पर बनाया<br />बड़े लोगों का छोटा गार्डन<br />पार्किंग के नाम पर सड़क को घेरना<br />सफेद लिबास में, काला धन बटोरना<br />पर जाने क्यों<br />मुझे ये लगता है<br />सभी को बचाते हैं ये झुग्गी वाले<br />खुद की बली देकर<br />जानते हैं सब<br />लेकिन नहीं जानते तो<br />ये खुद झुग्गी वाले<br />कि कितने काम की होती हैं झुग्गियां ?राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-70678511433792693022010-12-04T20:26:00.002+05:302010-12-04T20:28:31.831+05:30ये जिंदगी है या है जंगएक रंग तेरा खुदा, मैं तुझको बता दूं<br />तू आदमी बन जा और मैं तेरा खुदा हूं<br />भोग तू धरती के सारे अजूबे ढंग<br />और मैं ऊपर से तुझे, मनचाही सजा दूं<br /><br />तुझको दौड़ाऊ बाइक से, एक्सप्रेस वे पर<br />और पीछे से तुझ पर, होंडा सिटी चढ़ा दूं<br />ले लूं नजारा बिलखते तेरे परिजनों का मैं<br />भविष्य के सपने सारे, ठहाके में उड़ा दूं <br /><br />अचानक कर दूं तेरे, दिल में सुराख कोई<br />मांगता रहे तू भी उम्र भर हिसाब कोई<br />सोचे तू कि किस गलती की सजा है ये<br />मैं पटल कर दिखा दूं, नियमों की किताब कोई <br /><br />देख तू धरती पर, आकर जरा करीब<br />बनाई हैं तूने, मजबूरियां इतनी अजीब<br />भूख, प्यास, गरीबी और दर दर ठोकरें<br />एक झटके में लिख डालूं, इन सब से तेरा नसीब <br /><br />बतला दूं तुझे, तेरी दुनिया के सारे रंग<br />कर दूं तुझे, किन्हीं ऐसे लोगों के संग<br />पास होकर, तेरे होकर तुझको करें वो चोट<br />और तू सोचे कि ये जिंदगी है, या है जंगराहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-70740452261620440342010-11-11T22:07:00.003+05:302010-11-11T22:11:21.159+05:30ऊपरी कमाई और दहेज का लगेज<strong>राहुल यादव </strong><br /><strong></strong><br />अब से पहले मैंने इतने खुले रूप में कभी नहीं जाना था कि मेरे आस पास जो चेहरे हंै उनका मन ऐसा भी है। उसकी सोच और चीजों को स्वीकार करने की विवशता बदतर दर्जे तक जा पहुंची है। बड़े भाई का सिलेक्शन मध्य प्रदेश सिविल सर्विस के लिए हो गया है। कड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद वह सूबे में एक जिम्मेदार पद पर तैनाती पा गए हैं। खुशी बहुत है लेकिन समाज, गांव, रिश्तेदार, दोस्त आदि से मिली प्रतिक्रियाओं ने एक तरह से हिला कर रख दिया।<br /><span class=""></span><br />कल तक नौकरशाही को कोसने वाले आज सिर्फ ऊपरी कमाई और दहेज के लगेज की बात कर रहे हैं। गुणा भाग लगाकर यह जोडऩे में लगे हैं कि प्रत्येक महीने ऊपर की कमाई कितनी होगी। पिता जी स्कूल के लिए जाते हैं तो रास्ते में भले लोग रोक लेते हैं। पिता जी को बताते कि लड़का जिस पद को पा गया है उस पर 10 हजार रोज की ऊपरी आमदनी है। अगर थोड़ी जोर जबर्दस्ती करेगा तो 20 से 25 हजार रुपये तक कमा सकता है। मास्टर साहब आप तो करोड़ पति हो गए हो। वाकई आपने अच्छे संस्कार दिए बच्चों को।<br /><br />पूरे समाज और दोस्तों में यही अटकलें हैं कि कितना कमाएगा। किसी ने वेतन के बारे में पूछा तक नहीं। ऊपरी कमाई उन्हें इस पद का सबसे जायज हक लग रही है। एक पल भी किसी के चेहरे पर यह ऊपरी कमाई समाज को खोखला बनाने वाली रिश्वतखोरी और गिरते ईमान की निशानी नहीं लगी। किसने इनसे बच रहने की नेक सलाह नहीं दी।<br /><span class=""></span><br />सभी ने इस खोरी को बेहद खूबसूरती के साथ स्वीकार कर लिया है। जैसे सिविल सर्विस में सिलेक्ट होने का सबसे पहला हक ऊपरी कमाई करना ही है। जिन शिक्षकों ने पढ़ाया, जिन्होंने समाज को सुधारने की तथाकथित जिम्मेदारी कंधों पर उठा रखी है, जिन्होंने मोह माया छोड़कर भगवा धारण कर लिया है, पिता जी ऐसे ही कई शुभचिंतकों ने ऊपरी कमाई का पूरा खाका खींच दिया है। हिसाब लगा लगाकर बता दिया है कि इतने साल में कितनी कोठी बन जाएंगी। कुछ ने तो कोठी किस शहर में बनाई है, तक की योजना बनाकर दे दी है।<br /><br />ये सब दिवाली की छुट्टिïयों पर देखने का मिला। पीएससी का रिजल्ट दिवाली से एक सप्ताह पहले ही आया और मैं अपनी अखबारी दुनिया से छुटï्टी लेकर दिल्ली से दिनारा अपने घर पहुंचा था। पूरे वाकये में किसी ने ईमानदारी से काम करने, स्वाभिमान बनाए रखने और समाज व गरीबों के लिए कुछ अच्छा काम करने की बात मुंह से नहीं निकाली। आइडिया देने की समझदारी तो दूर।<br /><span class=""></span><br />यह देखकर हैरत लगी कि समाज में किस हद पर ऊपरी कमाई की स्वीकारोक्ति समा गई है। अब रिश्वत मांगने वाले भ्रष्टï नहीं है और न ही यह क्रिया भ्रष्टïाचार। सब कुछ जायज है। लेना। देना। सोचता रहा इन लोगों की नजर में वह लोग कितने बेवकूफ हैं जो भ्रष्टïाचार के खिलाफ लडऩे की बात कहते हैं। शायद वह खुद बेवकूफ बन रहे हैं और उन्हें खबर तक नहीं।<br /><span class=""></span><br />यहीं नहीं ऊपरी कमाई के बाद सबसे खास मुद्दा है कि शादी में कितना रुपया मिलेगा। लड़की वाले कम से कम 30 लाख तो देंगे ही। विधायक, मंत्री या कोई बड़ा अधिकारी ही अपनी बिटिया ब्याहेगा। ढेरों अटकलें। ढेरों आइडियाज। लड़का बड़ा अधिकारी बन गया। अब तो कमाई ही कमाई है? वह इसका हकदार भी है ? कुर्सी जो पा गया है ?राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-45252638045856733102010-08-26T21:04:00.002+05:302010-08-26T21:06:31.110+05:30भाई साहब दिल्ली डूब रही है<strong>राहुल यादव </strong><br /><br />भाई साहब दिल्ली बचेगी नहीं इस बार। पुरानी दिल्ली। नई दिल्ली। हमारे पुरखों की दिल्ली। यमुना किनारे बसी दिल्ली। मीडिया का हब बनी दिल्ली। नहीं बच पाएगी। यमुना में उफान है। खतरे के निशान से ऊपर बह रही है यमुना। पूरी दिल्ली डूब जाएगी। शायद कोई न बचे। सब के घरों में पानी घुस गया है। जानवर की छोड़ो इंसान को भी ठौर नहीं है दिल्ली में। यमुना खुद के किनारे तोड़ सड़कों पर आ गई है। घुटनों घुटनों पानी पानी हो गई है दिल्ली। यमुना सबको डूबो देगी। भयंकर बाड़ के आसार हैं। प्रशासन सोया है। भाई साहब दिल्ली बचेगी नहीं। इस बार।<br /><br />इक्कीस इंच की टीवी पर बवाल मचा है। किसी किसी की ग्यारह और किसी की इक्कीस से भी अधिक इंच वाली टीवी पर। दिल्ली डूब जाएगी। पूरी दुनिया में खबर है। सबको पता है। दिखाई दे रहा है। महज दिल्ली वालों को छोड़कर। अब तक उन्हें डूबने का अहसास नहीं है। बांगडू। स्याले। पूरी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चीख रही है। लेकिन यह हैं कि रोज की तरह ऑफिस जा रहे हैं। बड़े बड़े मॉल में खरीदारी कर हैं। बाजारों की रौनक बने हंै। मल्टीप्लेक्स में मनोरंजन कर रहे हैं। होटल में पिज्जा, बर्गर और चाउमीन उड़ा रहे हैं। डूबने का अहसास भी नहीं है। पार्कांे में गलबहियां हो रही हैं। बदमाशों की लूटपाट जारी है। दूसरे शहरों में रहने वाले रिश्तेदार मीडिया की मानकर खैरियत पूछने में जुट गए हंै। लेकिन दिल्ली वाले हैं कि सड़कों पर टहलने और सैर सपाटे से फुर्सत ही नहीं। बताते ही नहीं कि दिल्ली कहां डूब रही है। कितने गैर जिम्मेदार हैं। जिम्मेदार मीडिया की भी नहीं सुनते। डूब जाएंगे स्याले। तब समझेंगे। क्यों चीख रही थी मीडिया। समझा रही थी मीडिया। <br /><br />कितनी बड़ी है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इक्कीस इंची टीवी। जिसमें सैंकड़ों किलोमीटर की दिल्ली डूब गई है। हजारों किलोमीटर की यमुना में भयंकर उफान है। कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर अरबों का घोटाला हो रहा है। संसद में महंगाई और सांसदों की तनख्वाह पर हंगामा मचा है। अधिग्रहण पर लाखों किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया है। संसद का घेराव कर लिया है। चोर चोरी कर रहे हैं। ठगी, जालसाजी और अंडरवल्र्ड के तार दिल्ली में तेजी से फैल रहे हैं। पुलिस सोई है। बदमाश चौकस हैं। फिल्मों की शूटिंग हो रही है। हीरो, हीरोइन प्रमोशन के लिए आ रहे हैं। विदेशी राजदूतों और राज नायकों की आवाजाही जारी है। आईएसआई की नजर दिल्ली पर है। दिल्ली में भिखारी फैल गए हैं। बिहारियों ने कब्जा जमा लिया है। झुग्गी झोपड़ी वालों ने बदसूरत बना दी है दिल्ली। उसी सड़क पर यमुना उफान मार रही है, किसान आंदोलन कर रहे हैं, भिखारी भीख मांग रहे हैं, कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी हो रही है और उसी सड़क पर दिल्ली डूब रही है। <br /><br /> कितनी ठगनी है दिल्ली। पल पल रूप बदल रही है। स्टूडियो में एंकर बदलता है। दिल्ली का रूप बदल जाता है। कभी डूब जाती है। तभी क्राइम सिटी बन जाती है। तो कभी हमेशा की तरह गुलजार होकर पब और मॉल कल्चर में मस्त हो जाती है दिल्ली। नाइट क्लब में थिरकती, वाइन व बीयर के नशे में झूमती। सेक्सी दिल्ली। क्योंकि यह दिल्ली है मेरी जान।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-52399607494112475632010-07-19T21:44:00.003+05:302010-07-19T22:03:12.381+05:30ये कौन है<strong>राहुल कुमार </strong><br /><br />ये कौन है जो रातों को सता रहा है<br />दूर होकर भी बुला रहा है<br /><br />खामोश पलकों पर चला आता है<br />दर्द दिल में जगा रहा है<br /><br />कौन है जो अपना नहीं फिर भी<br />खोने का खौफ दिखा रहा है<br /><br />झरने सा बहता हुआ यादों में<br />राग इश्क का बजा रहा है<br /><br />आखिर ये कौन है कौन है<br />जो मेरी रूह में समां रहा है<br /><br />हर वक़्त है जैसे साथ मेरे<br />मुझको मुझसे मिला रहा है<br /><br />संगदिल पत्थर का सनम होगा<br />मेरी हस्ती मिटा रहा हैराहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-69275811987170083762010-06-21T20:06:00.003+05:302010-06-21T20:11:54.175+05:30दिल्ली बदल रही है<strong>राहुल कुमार</strong><br />दिल्ली बदल रही है। तेजी से बदल रही है। कुछ महीनों व सालों में बदल रही है। जितनी अब तक नहीं बदली थी उतनी बदल रही है। आजादी के बाद कभी भी इतनी नहीं सजी संवरी जितना अब संवर रही है। दिल्ली चाहती है वह दुलहन सी बन जाए। नवयौवना। अल्हड़ मस्त जवान दिखे। वो आने वाले हैं। दिल्ली को देखने। ऐसा-वैसा देखेंगे तो क्या सोचेंगे? लज्जा नहीं आएगी क्या? इसलिए दिल्ली तैयारी में है। खुद को बदलने की। ताकि विदेशी मेहमानों के लायक हो जाए। उन्हें रिझा सके। अपने सजे संवरे दामन में छुपा सके।<br /><br />अब दिल्ली नहीं मानेगी। उस पर खुमारी चढ़ गई है खेलों की। राष्ट्रमंडल आने वाले हैं। दिल्ली के पास समय नहीं है। पूरा यौवन निखारना है। अपने दामन के दाग छुपाने हैं। गरीबी के। बेबसी के। लाचारी के। भूख के। मजबूरी के। मजदूरी के। अपराध के। भष्टचार के। दिल्ली अरबों लुटा देगी। लेकिन निखार जरूर लाएगी। भले ही अपनों का पेट काटे। उनके हलक से पैसा निकाल ले। भूखों को मार दे और दो जून की कमाने वालों को भूखा कर दे। लेकिन वह इंडिया के लिए भारत को निकाल देगी। अपनों की कमाई दूसरों के लिए लुटा देगी। उसे इंडिया की चमक दमक से मतलब है। भारत के भूखेपन से नहीं। वह सजने संवरे में अरबों लुटा देगी। भारत के अरबों इंडिया पर। अपने तो बाद में भी खा-पी सकते हैं। और कुछ मर भी जाएं तो क्या। दिल्ली की थू थू तो नहीं होगी। खूबसूरती के लिए बदसूरतों को निकाल बाहर कर देना ही नीति है। पर आने वालों को रिझाना लाजिमी है। वो आने वाले बड़े रसिक हैं। नवयौवनाओं को पसंद करते हैं। बेबाओं को नहीं। दिल्ली को यौवन झलकाना ही होगा। भले ही दो पल के लिए। उनके लायक बनना ही होगा।<br /><br />तभी दिल्ली का यश दूर तक फैलेगा। विदेशों में चर्चे होंगे। लोग उसके यौवन का बखान करेंगे। मुरीद हो जाएंगे। भले ही वह दिल्ली को उजाडऩे वाले क्यों न हो। बरसों दिल्ली को रौंदने वाले क्यों न हों। दिल्ली का अंग अंग निचोड़कर, नोंचकर खाने वाले क्यों न हो। वह दिल्ली की लूटी जागीर पर अय्याशी करने वाले क्यों न हो। भारत का खून चूसकर बने लाल गाल वाले क्यों न हो। दामन छीन कर दिल्ली को नंगा करने वाले क्यों न हो। दिल्ली महान है उसने सब भुला दिया है। उनके साथ (ब्रिटिश) उन सभी (राष्टï्रमंडल गुलाम देश) रौंदे हुए बेबसों का स्वागत भी पलक पंवाड़े बिछाकर करेंगी। फ्लाईओवर, अंडरपास का गजरा लगाकर। स्टेडियमों पर अरबों लुटाकर। अपनों के छप्पर छीनकर। दूसरों के लिए अट्टïालिकाएं बनाकर। दिल्ली खुद के दुख हर लेगी। उनका आना दिल्ली का फिर से जीवित हो उठना है। उनका आगमन उत्सव है। खिले चेहरे आने वाले हैं। अपने तो हमेशा भूख से लाचार और नंगे बदन रहते हैं। इसलिए भले ही दिल्ली आज तक अपनों के लिए नहीं बदली पर गैरों के लिए बदलेगी। उसे बदलना ही होगा। दिल्ली बदल रही है। वो आने वाले हैं।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-996833526808962072010-03-23T12:02:00.004+05:302010-03-23T12:16:47.938+05:30बेहतरी की व्यवस्था बेहाली में<p><strong>राहुल कुमार </strong></p><p>किसने जाना था कि देश का वह भू- भाग जो सबसे पहले संवैधानिक रूप से पंचायती राज व्यवस्था में विश्वास दिखाएगा, उसे अपनाएगा, उसके बाशिंदे कुछ सालों में ही उस प्रजातांत्रिक भावना को चंद सिक्को की चमक में खो देंगे। विकास और सहभागिता की प्रथा दबंगई के असर से दबकर और प्रतिष्ठा से जुड़कर दम तोड़ती नजर आने लगेगी। प्रदेश में ग्राम पंचायत व्यवस्था की हालात बदतर हो चुकी है।</p><p>राज्य चुनाव आयोग के कई प्रयासों के बावजूद प्रदेश में पंचायतों का बिकना जारी है। नोटों की हरियाली से गांव की खुशहाली खरीदी ली है। हाल ही में संपन्न् हुए पंचायती चुनाव में यह खूब देखने को मिला। कितनी ही पंचायतें बिकीं। चंद कागजों के टुकड़ों की खातिर देश को लोकतंत्र की दहलीज तक लाने वाले हजारों शहीदों की कुर्बानियां सत्तालोलुप और लालचिओं के सामने व्यर्थ साबित हो रही हैं।</p><p><br />देश में विकास के नए कीर्तिमान बनाने और एक धारा में विकास करने के लिए बलवंत मेहता कमेटी की सिफारिश पर त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू की गई। मध्य प्रदेश देश का पहला सूबा बना जिसने सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था 1993 में लागू की। ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत और जिला पंचायत जैसे तीन स्तरों पर सदस्यों का चुनाव होने लगा। और उसके बाशिंदे को ऐसे लोगों को चुनने का अवसर प्रदान किया गया जो उनके बीच के हों। उनका हित जानते और चाहते हों। लेकिन यह सुनहरा ख्वाब हकीकत में नहीं बदल पाया। </p><p>ढेरों मौके हैं, बेहतर संसाधन हैं और विकास की बाट जोहती पथराई आंखें भी हैं। लेकिन सरकार द्वारा प्रदत्त पैसों को अंटी में दबाने की होड़ में पंचायती राज व्यवस्था सबसे भ्रष्ट और काली कमाई की चौपाल बनकर रह गई है। गांवों का पिछड़ापन जस का तस है। और इस अंधी दौड़ में सत्ता पर काबिज पार्टियां भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं।</p><p><br />मध्यप्रदेश में हाल ही में 22931 ग्राम पंचायत, 313 जनपद पंचायत और 48 जिला पंचायत के लिए चुनाव संपन्न् हुए। जिसमें अब तक की सबसे बदहाल हालात दिखी। चुनाव को बाहुबली और धनाढ्य उम्मीदवारों ने प्रतिष्ठा और शोहरत से जोड़कर कई पंचायतों को खरीद लिया। उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ खड़े सदस्यों को पैसा देकर बिठा दिया और चुनाव निर्विरोध संपन्न् करा लिया। तर्क था कि जितना पांच साल में कमाओगे उतना एक बार में ही ले लो। </p><p><br />प्रदेश के सबसे विकसित संभाग इंदौर, ग्वालियर, भोपाल, जबलपुर आदि में तकरीबन एक दर्जन से अधिक पंचायतों के बिकने की खबरें प्रकाश में आईं। जबकि ऐसी कई पंचायतें हैं जिनकी जानकारी मीडिया तक नहीं पहुंच पाई। मीडिया ने मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। लेकिन सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई। न ही कोई जांच बिठाई गई।</p><p><br />जनपद व जिला पंचायत के अध्यक्ष के चुनाव में भी प्रत्येक सदस्य को 15 से 20 लाख रुपए बतौर वोट खरीदने के लिए दिए गए। साक्ष्यों के साथ मीडिया ने खबरें छापी। लेकिन सरकार तब भी चु'पी साधकर तमाशबीन बनी रही। बल्कि सत्ताधारी पार्टी ने अपने पार्टी सदस्यों को विजयश्री दिलवाने के लिए पार्टी फंड तक से पैसे दिए। शिवपुरी जिले में जिला पंचायत के सदस्य को आठ लाख रुपए व एक स्कार्पियो गाड़ी खुलेआम दी गई। </p><p>उम्मीदवारों द्वारा लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए गए। और अब जीतने के बाद उसी तर्ज पर दोगने-चौगुने कमाए जाने की जुगत में हैं। एक तरह से सीधा सौदा हुआ। जितना लगाया, उससे दोगुना कमाया। चुनाव के दौरान पंचायत व्यवस्था लोगों की नजर में सत्ता विकेंद्रीकरण व प्रजातांत्रिक सोच नहीं बल्कि धन कमाने का एक बेहतर व्यवसाय बनती दिखाई दी।</p><p><br />महात्मा गांधी का सपना पंचायती राज बदहाल है। उसी मध्य प्रदेश में जिसने सबसे पहले इसे संवैधानिक रूप से अपनाया। इस बार के चुनाव से साफ दिखा कि इस व्यवस्था के सही उद्देश्य में न तो सरकार की गंभीरता है और न ही बाशिंदों की रूचि। आखिर प्रजातंत्र को दौलत की चमक से कब तक चकाचौंध किया जाएगा ?</p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-65021265276216120502010-03-19T12:08:00.009+05:302010-03-19T12:26:35.455+05:30आविष्कार आवश्यकता का जनक<p><strong>राहुल कुमार</strong><br /></p><p>दुनिया भर में होती होगी आवश्यकता आविष्कार की जननी। मंदमुद्धि विदेशी वैज्ञानिकों, चिंतकों व दार्शनिकों के लिए। लेकिन ये देश तो भारत है भाईसाब। यहां तो आविष्कार आवश्यकता का जनक है। अपने देश में विदेशों सी 'जननी" वाली स्थिति नहीं है। न कभी रही है। और रही भी हो तो बाबा आदम के समय ही रही होगी। जब आदमी नंगा घूमता था। पशु मारकर खाता था। जाहिल था। गंवार था। लेकिन अब तो जेंटलमैन है। सो जनक बन बैठा है। देश ने विकास के नए आयाम गढ़ लिए हैं। अभी भी विदेशियों की तरह आवश्यकता पर निर्भर रहेगा क्या ? कतई नहीं भाईसाब।</p><p><br />ये देश 'भारत है भाईसाब। यहां आवश्यकता नहीं आविष्कार महत्वपूर्ण है। आविष्कार ही तय करता है कि आवश्यकता किस चीज की है। और देश के बाशिंदों को क्या जरूरत हैं और कब-कब है। क्योंकि ये देश 'भारत है भाईसाब। अपनी मस्ती में मस्त। </p><p><br />यहां वही चलता हैं जो गणमान्य चाहते हैं। और यहां गणमान्य सिर्फ तीन तरह के प्राणी होते हैं। एक तो नेता दूसरे नौकरशाह और तीसरे पूंजीपति। और ये सब आश्वयकता के नहीं आविष्कार के प्रेमी हैं। जो आविष्कार यह करते हैं, उसी की आवश्यकता पैदा करते हैं। देश की क्या आवश्यकता है ये उनके आविष्कार पर निर्भर करता है। देश के बाशिंदों की क्या मजाल की खुद की आवश्यकता खुद ही तय कर लें।</p><p><br />अब देखिए पंडित नेहरू के यहां एक बालिका का आविष्कार हुआ तो देश को महिला नेता की आवश्यकता हो आई। फिर सोनिया गांधी के यहां राहुल रूपी आविष्कार हुआ तो महिला आवश्यकता खत्म कर देश में युवा नेताओं की आवश्यकता को पैदा किया गया। अब देश को बूढ़े, हांफते नेता नहीं चाहिए। राहुल का आविष्कार हो गया है भाईसाब । </p><p><br />ऐसे ही माधवराव सिंधिया से ज्योतिरादित्य, मुलायम सिंह से अखिलेश, राजेश पायलट से सचिन पायलट और पीए संगमा से अगाथा संगमा का आविष्कार हुआ तो भारतीय पटल पर युवा राजनीति की आवश्यकता खुद व खुद हो आई। अब नेताओं का आविष्कार है तो उसकी आवश्यकता तो देश को होनी ही चाहिए। क्योंकि ये देश 'भारत है भाईसाब। </p><p><br />यहां जब भी नए मंत्री जी का आविष्कार होता है कि देश को नई योजनाओं की आश्यकता हो आती है। जो कागजों तक ही आवश्यक होती हैं। मंत्री जी के बेटे का हेलमेट एजेंसी के ठेकेदार के रूप में आविष्कार हुआ कि पूरे प्रदेश को हेटमेट सुरक्षा की आवश्यकता बेहद आवश्यक हो गई। डंडा मारकर आविष्कार की आवश्यकता पैदा की गई। जैसे ही सारे हेलमेट बिके आवश्यकता खत्म भाईसाब। </p><p><br />नौकरशाहों के रिश्तेदारों में बेरोजगारी का आविष्कार हुआ कि तुरंत ठेकेदारों की आवश्यकता हो आती है। और ठेका भी रिश्तेदारों को दे दिया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे अभिनेताओ के आविष्कारों के लिए फिल्मों की जरूरत हो आती है। बड़े बड़े निर्माता व निर्देशक अभिनेताओं के पुत्र-पुत्रियों रूपी आविष्कार की आवश्यकता पैदा करने का काम करते हैं। </p><p><br />ये देश 'भारत है भाईसाब। यहां तो महंगाई भी आवश्यकता है। यहां व्यापारियों के गोदामों में अनाज, दाल, फल, सब्जी का आविष्कार हुआ कि वहां देश को महंगाई की आवश्यकता हो आती है। सरकार की पसंद के व्यापारी। उनका आविष्कार क्या मामूली चीज है भाईसाब। </p><p><br />कितना कुछ है आविष्कार की महत्ता बताने के लिए। फिर भी आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहें ? न जी न। माना कि दुनिया कहती है। लेकिन ये देश तो 'भारत है भाईसाब। गणमान्यों का देश!<br /></p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-58036101360096529862010-02-13T22:10:00.003+05:302010-02-13T22:15:54.227+05:30मुई पीठ के पीछे<p><strong>राहुल कुमार</strong> </p><p><br />कमबक्त ये पीठ भी अजीब चीज है। कलमुंहा ऐसा प्लेटफार्म है, जहां निंदा रस का पूरा लुत्फ बड़े से बड़ा शिगूफा छोड़कर लिया जाता है। यहां असली स्वतंत्रता का बोध होता है। दुनिया भर के षडयंत्र रचे जाते हैं। जो बातें मुंह के सामने तिल थीं पीठ के पीछे पहंुचते ही ताड़ बन जाती हैं। अजीब आबोहवा है इस पीठ के पीछे। भयंकर खाद-पानी। जहां दो शब्द भी पोषित होकर पूरी कहानी बन जाते हैं।</p><p>सियारों सा हुंआ हुंआ और गीदड़ सी चालकी है। मसक मार छोड़ते हैं लोग दूसरों की बातें। नमक मिर्च लगाकर। निंदा रसिकों के लिए संजीवनी बूटी है और सुख पाने का एकमात्र साधन। यह पीठ का पिछवाड़ा।</p><p>सोचता हूं कि पीठ का पिछवाड़ा न होता तो कित्ती परेशानी हो जाती। कैसे कटते लोगों के दिन। सुख पाना तो जैसे कतई मुहाल हो जाता। जब देखो तब मुंह के सामने खड़े होना पड़ता। और गिनी चुनी चार बातों से मन समझाना पड़ता। </p><p>कितनी ही चैपालों पर बात करने के लिए कोई बात ही नहीं होती। कैसे तय होता कि अमुख की लड़की आजकल अमुख के लौंडे से नैन लड़ा रही है। और बाॅस वर्तमान में किस की कमर में हाथ डालना पसंद कर रहे हैं। और भविष्य में किसकी में डालने की फिराक में हैं। कल केबिन में किस हुस्नवाली के साथ खास बैठक हुई थी। और बैठक में क्या हुआ होगा ?</p><p>कैसे कटता आॅफिस का लंच टाइम। यार-दोस्तों की गपशप पर तो ब्रेक ही लग जाता। पीठ ही है कि लोग आजाद ख्याल हैं। वरना मुंह पर किसी के भी कुछ कह पाने की हिम्मत कहां से लाएं रोज रोज। और मंुह पर कही बातों में मनोरंजन कहां ?</p><p>मुंह पर कहीं बातें कहां दे पाती हैं वैसा सुख, जो पीठ के पिछवाड़े बहने वाले रस से मिलता है। पीठ का पिछवाड़ा ही है कि किसी की भी मां-बहन करो कोई डर नहीं। किसी के भी चरित्र का पोस्टमार्टम कर डालो। खुद भी मजा लो और दूसरों को भी दो। </p><p>पीठ ही है कि लोकतंत्र जिंदा है। लाखों शहीदों की शहादत से बाद मिली आजादी का सही इस्तेमाल है। वरना मुंह के सामने तो ब्रिटिश रूल का वर्नाकुलर एक्ट और पब्लिक सेफ्टी बिल ही लगा रहता है। कुछ कहो कि अंग्रेजों की तरह लोग दमन करने को उतारू हो आते हैं। आजादी तो जैसे समझते ही नहीं। स्याले।</p><p>पीठ ही है कि समाजवाद और साम्यवाद जिंदा है। सबको एक समान गरियाया जाता है। सबके चरित्र को समान रूप से पतित बताया जाता है। बराबरी के अधिकार का पालन करते हुए लंपट और लुंच की उपाधियों से नवाजा जाता है। कोई असमानता और गैर बराबरी नहीं। पूरा और उत्कृष्ट समाजवाद। किसी को पीछे नहीं छोड़ा जाता। साम्यवाद की तरह सबकी पीठ के पीछे चर्चा की जाती है। और मिलने वाले सुख को बराबर बांटा जाता है। भला इनते मानवाधिकार मुंह के सामने मिल पाते हैं क्या ?</p><p>फिर भी सुख और आजादी के विरोधी पीठ के पीछे फब्तियां कसने वाले क्रिएटिव लोगों को कायर कहते हैं। कैसे विकट हरामी हैैं। स्वतंत्रता का तो मतलब ही नहीं जानते। स्याले। अंग्रेजों की गुलामी सहते-सहते उसी के आदी हो गए हैं। </p><p>पीठ के पीछे ही तो पूरा व्यक्ति निखर पाता है। प्रेमिका को कई प्रेमियों से प्रेम की पींगे बढ़ाकर चरम सुख पाने का फलसफा मिलता है। वरना पूरी जिंदगी एक ही के गले लिपटकर बितानी पड़ जाए। दारू पीकर किसी को भी ठोकर मारने का आनंद पीठ के पीछे ही तो है। </p><p>पीठ के पीछे ही तो खुद की कल्पनाशीलता के सारे पंख खोलकर उड़ान भरी जा सकती है और सबका मनोरंजन करने वाली कहानी गढ़ी जा सकती है। पीठ के पीछे ही तो शब्दावली का सदुपयोग है। मुंह पर तो सिवाये बनावटी मीठी मुस्कान और प्रशंसा के दो शब्दों से इतर कुछ भी नहीं। </p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-90615596563130857132010-02-09T21:40:00.001+05:302010-02-09T21:55:55.651+05:30तर्ज की तर्ज पर<strong>राहुल कुमार </strong><br /><strong><br /></strong>तर्ज की तर्ज पर बहुत कुछ हो रहा है। दुनिया भर की तर्ज पर दुनिया भर का काम। लगातार विकास आसमान छू रहा है। अंडरपास बन रहे हैं। आकर्षक फ्लाईओवर और चमचमाती सड़कें देशभर में उदय हो रही हैं। कभी इसकी तर्ज पर तो कभी उसकी तर्ज पर। कनाट प्लेस की तरह मोहल्ला चमका दिया जाएगा। स्विटजरलैंड की तर्ज पर सड़कें बनंेगी। पेरिस व जापान की तरह परिवहन सेवा डवलप होगी। और न्यूयार्क-स्यूयार्क की तर्ज पर एक ऐसा सेंटर बनाया जाएगा जहां दुनिया भर के खेल और उन्हें देखने वाले दर्शक एक ही छत के नीचे आ सकेंगे। प्रोजेक्ट कई अरबों, खरबों रूपयों का हैै।<br /><br />विकास भवन में योजनाएं बनकर दसों साल पहले तैयार हो गई हैं। कुछ तो बीसों साल पहले घोषित हुई थीं। गा, गी, गे अभी भी उनके साथ लगा है। और अधिकारियों ने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगे। घबराने की जरूरत नहीं है। बस तर्ज देना बाकी है। तर्ज दे दें तो फिर अमल में आ ही जाएगी!<br />खैर अमल में लाने की किसको पड़ी है ? और जरूरत भी क्या है ? कुत्ते ने काटा है क्या ? जो योजनाओं को अमल में ला दें। कागजों पर बन गई और सुबह ग्राफिक्स के साथ अखबारों के फ्रंट पेज पर छा गईं। यह क्या कम हैै ?<br /><br />फिर भविष्य किसलिए है ? योजनाएं अमली में आती रहेेंगी, वर्तमान में ही कर डालने की क्यों चुल्ल मची है। पहले तर्ज तो दे दी जाए। जो भी नया चेयरमैन आता है अपने ज्ञान के मुताबिक योजनाओं को तर्ज दे जाता है।<br /><br />योजनाएं पूरे विश्व में तर्ज तलाशती घूम आती हैं बस अपने देश मंे ही नहीं पसर पातीं। और फिर तर्ज तलाशी अभियान से लगता भी तो है कि अधिकारी साहब होशियार हैं। विदेशों में घूमे हैं। फलां बार गए थे तो फलां चीज देखी थी। और मुग्ध होकर अपने देश में भी हूबहू करने की ठान ली थी। कैसे भयंकर देशभक्त हैं ? हर बात पर देश का भला सोचते हैं!<br /><br />भले ही शहर मंे चमचमाती सड़कें, आधुनिक फ्लाईओवर, एलीवेटिट रोड व अंडरपास न दिखेें। लेकिन प्रयास तो जारी है। दसों, बीसों साल से मेहनत हो रही है। बस यहां तर्ज देकर हामी भरी, वहां रातोरात सब बनकर तैयार।<br /><br />तर्ज भी तो हराम की जई है। हर बार बदलती रहती है। सरकार बदली, चेयरमैन बदले, दिमाग बदला और तर्ज भी बदल जाती है। जब तर्ज पूरी हो तभी तो योजना पूरी की जाए! पत्रकारों को भी नया काम मिल जाता है। फिर योजना को नई तर्ज के साथ फ्रंट पर पेल देने का।<br /><br />सरकारी कागजों पर अधिकारी और अखबारों में संवाददाता लाईबाइन मारता है। नक्शे व ग्राफिक्स के साथ। सुबह ही लगता है अपना शहर, देश विश्व क्षितिज पर छा रहा है। कितना कुछ दुनिया भर की तर्ज पर हो रहा है। स्याला महज दिखाई नहीं देता। देगा कैसे आंखें ही नहीं हैं। अखबार नहीं पड़ते। बस कांव कांव करने से मतलब। आम आदमी। जनता।<br /><br />खैर योजना पर अमल भले ही न हो। उसका अहसास कराना क्या कम बड़ा काम है। इतनी मेहनत करनी पड़ती है अफसर व पत्रकार को। सरकार को बड़ी सी घोषणा, विकास भवन को अखबारों में बड़ा सा विज्ञापन, और अधिकारी को नए वादों के साथ नई तर्ज का नया नक्शा देना पड़ता है। फिर संवाददाता को पूरे उत्साह के साथ कलम घसीटनी पड़ती है। जैसे कल ही शहर स्वर्ग बन जाएगा। मेहनत की कद्र करना तो आम आदमी जानता ही नहीं। बांगडू की तरह बांग देता रहता है कुछ नहीं हो रहा हैै। भाई, सरकार कुछ नहीं कर रही। बांगडुओं को अक्ल दो। स्याले अखबार पढ़। टै टै मत कर।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-13937037202728454742010-02-04T21:40:00.002+05:302010-02-04T21:54:23.353+05:30ज्योतिष और कुंडलियां इंसानों पर भारी<p><strong>राहुल कुमार</strong></p><p><br />तीसरी बार आया हूं पुस्तक मेला। हर बार की तरह इस बार भी नक्षत्र मंडप में गया। जहां हाथ की रेखाओं, कुंडलियों और अंकों के फेर में लोगों को ठगता देखा है। अपनी समस्याओं को रेखाओं का फेर मानकर पीले कपड़े वाले और कुछ भी भविष्य तय करने वाले ज्योतषिओं की फीस के आंकड़े जानने की कोशिश की है। जो हजारों में हैं। लोग दे भी रहे हैं। नौकरी और छोकरी के लिए। लड़की वाले वर की तलाश में हैं और लड़के वाले सुन्दर कन्या की चाह में। एक परिवार ऐसा ही मिला। जो अपनी लड़की की शादी करने से पहले उस लड़के की कुंडली ज्योतिष को दिखा रहा था जो उसके लिए चुना गया है। कई कुंडलियां मिलती हैं कई बार नहीं भी।</p><p>मैं देख रहा हूं और हर बार देखता हूं। धर्म के नाम पर इंसानों को डराने और भविष्य तय करने वाले ज्योतषियों की कुंडलियां अब इंसानांे पर भारी पड़ रही हैं। खुद को विज्ञान कहने वाले इस अंधविश्वास ने लोगों को मूढ़ कर दिया है। और उन लोगों में गहरे पैठ कर गया है जो खुद पर भरोसा नहीं करते और दूसरों के सहारे किस्मत बदलने की कमजोरी लेकर घूमते हैं। </p><p>जीवन में ज्योतिष को मैंने कभी नहीं माना। क्योंकि ज्योतिष ने जो भी भविष्यवाणियां की हैं वह गरीब और मध्यम तबके पर की हैं। और उनमें भी कभी कोई पूरी तरह सच साबित नहीं हुई। अगर होती तो ताउम्र मध्यम तबके के लोग जीवित रहने के लिए संघर्ष नहीं करते रहते। यह वही तबका है जो पैदा होते ही बच्चे की कुंडली बनवाकर उसका भविष्य तय कर देता है। क्या कोई ज्योतिष बचपन में जो तय कर दे वह ताउम्र गले से बंधा रहेगा ? तो क्यों किसी ज्योतिष ने नेपालियन और हिटलर के बारे में भविष्यवाणी नहीं की थी।</p><p>किसी भी ज्योतिष ने नहीं बताया कि बर्सिलोना में पलने वाला साधारण सा लड़का विश्व विजेता बन जाएगा। और तानाशाही का तुर्क बन बैठेगा। उस समय किसी ज्योतिष के सितारे नहीं बोले थे कि द्वितीय विश्व युद्ध का क्रुर सेनापति हिटलर आत्महत्या कर लेगा। जिसके सैनिकों की पदचाप मात्र से 100 किलोमीटर तक के यहूदी घर छोड़कर भाग जाते थे।</p><p>विश्व भर में भारत का डंका बजाने वाली इंदिरा गांधी के शिखर पर पहुंचने की भविष्यवाणियां जब ज्योतिष कर रहे थे, तभी उन्हें गोली मार दी गई। क्यों किसी ज्योतिष ने उन्हें आगाह नहीं कर दिया ? क्यों किसी ने गुणाभाग लगाकर नहीं बता दिया कि वह आज कल में मरने वाली हैं। उन्हें गोली मारी जा सकती है। </p><p>तो क्यों मध्यम तबका ज्योतिष के नाम पर किये जाने वाले मनमाने फैसलों को माने ? क्यों अपनी जिंदगी ऐसे ज्योतिष गणित के हवाले कर दे जो मेहनत से पैसा न कमा पाने के कारण ढांेगी बन बैठा है। और ज्योतिष की आड़ में चांदी काट रहा है।</p><p>किसी ज्योतिष ने क्यों भविष्यवाणी नहीं की कि राजीव गांधी की हत्या होने वाली है। खासकर उस समय इंदिरा की तरह ही राजीव के कसीदे ज्योतिष गढ़ रहे थेे। और उनके सत्ता सुख में बने रहने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। आखिर क्यों ?</p><p>क्यों भूकंप आने से पहले उसके आने की भविष्यवाणियां नहीं कर दी जातीं। क्यांे महामारी और बाड़ आने की त्रासदियों की सूचनाएं पहले नहीं दे दी जाती। और क्यों हजारों साल की गुलामी झेल रहे भारत के बारे में किसी ज्योतिष ने भविष्यवाणी नहीं की थी कि वह 1947 में आजाद हो जाएगा ? </p><p>क्यों ज्योतषियों ने जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड में मरने वाले लोगों को नहीं बचा लिया। क्यांे जनरल डायर के मन को नहीं पढ़ पाए ? उन मासूम बच्चों को अनाथ हो जाने दिया जो इस क्रूर शासक के मनमाने फैसले की भेंट चढ़ गए ?</p><p>क्यों सुभाषचंद्र बोस को विमान में बैठने से नहीं रोक दिया। या नहीं भविष्यवाणी कर दी कि वह विमान दुर्घटना में मारे जाएंगे। और क्यों किसी ज्योतिष ने नहीं बता दिया था कि सड़कों पर मारा-मारा घूमने वाला विवेकानंद भारतीय धर्म की विजय पताका शिकागो में फहराएगा ?</p><p>आखिर ज्योतषियों ने किसके भविष्य की रक्षा की और किसको बचा लिया ? कभी कोई ऐसा सकारात्मक पुख्ता प्रमाण देखने को नहीं मिलता। तो क्यों उनकी बताईं बेमेल कुंण्डलियों का सच मान लिया जाए ? और ऐसा कदम उठा लिया जाए जिससे सारा जीवन प्रभावित रहे।</p><p>सवाल तो यह भी है कि जो कुण्डलियां मिल जाती हैं क्या वह शादियां हमेशा सफल हुई ? जरा कोर्ट के फैसलों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि जहां कुण्डलियां मिलाने का दकियानूसी रिवाज है उन्हीं परिवारों की शादियां सबसे ज्यादा टूटी हैं।</p><p>अगर कुंडलियों का मिलान ही शाश्वत होता तो बारातों की बारात नदी में डूबने की खबरें प्रकाश में नहीं आतीं। वह तो पूरी तरह से कुण्डली मिलाकर शादी रचाते हैं। कहने की कोशिश यही है कि कुण्डलियांें से बड़ा मन है। और वह खुशी है जो अपने फैसले से मिलती है। न की किसी ज्योतिष के निर्णय से। आखिर खुद ही अपना गला घांेटना कहा की मस्लहत है ?<br /> </p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-88370556027320120542010-01-29T22:00:00.004+05:302010-01-29T22:30:50.822+05:30जब तुम थे<strong>राहुल कुमार</strong><br /><br />जब तुम थे मेरे। ख्वाब सारे हसीन थे। उनमें मैं था तुम थे और थीं मोहब्बत भरी दास्तां। दोस्त थीं सारी गलियां, सारी सड़कें। मौसम थे मेहरबां। और चांद तारे भी मुस्कुराकर बांहें पसार देते थे। देते थे अपने होने का अहसास। पेड़ अपने दामन की छांव में समेट लेते थे मुझे। उन दिनों हर पगडंडी जानी पहचानी सी लगती थी। बुलाती थीं मुझे। गोद में अपनी। दुनिया खुद व खुद खूबसूरत हो उठी थी। हां जब के तुम थे।<br /><br />जिंदगी जिंदादिल थी। जागी जागी सी रातें थीं। महकी महकी सी सुबहें थीं। एक नई उष्मा देने वाली। दिन थे सुनहरे। शामें शीतल। हर लम्हा अनगिनत सुखद अहसास डाल देता था मेरी झोली में। जब के तुम थे। सिर्फ तुम।<br /><br />तुम थे तो हवाओं में खुशबू थी। वो भी महकती सी। तेरे रूह के जैसी। भंवरें गुनगुनाते थे गीत। लगते थे हमारी कहानी सुनाते से। फूल हर रंग और किस्म के थे मेरे। जानते थे मुझे। पंछी की तरह आजाद ख्याल था मैं। बादल की तरह यायावर। कभी इस सिरे कभी उस सिरे। तेरे ख्याल में डूबा। हंसता मुस्कुराता। सड़कों पर उछलता कूंदता। बांहें फैलाकर दौड़ता। आसमान छूने को।<br /><br />ख्वाबों का गहरा तालाब था। जिसमें जीने का फलसफा था। ढेरों उम्मीदें थीं और थीं जीने की कई खूबसूरत वजहें। उमंग की कूदती फांदती नदी जेहन में खिलखिलाती थी। जब तुम थे सारा जहां मेरा था। गम कोसों दूर थे। छू तक न पाता था मुझे। तुम थे हर शब्द नया था। खूब उत्साह, उल्लास से भरा। पत्थर के इस शहर में भी सपनों की नन्हीं कलियां खिली खिली रहती थीं। कड़ी धूप में भी। वह सिर उठाए मुस्कान देतीं। उन्हें साकार करने का मद्दा हिलोरें मारता था। वो सब था जो नहीं था। फिर भी तेरे होने भर से मेरा था।<br /><br />पर अब न जाने क्यों ख्वाब सारे टूटे से लगते हैं। सहरा सा सारा शहर लगता है। अश्कों के मुस्कुराते सब रंग धुल से गए हैं। तू जो नहीं है। और फिर लगता है क्या हुआ। सब जस का तस ही तो है। मुझे फिर वैसी ही नजर से देखना होगा सब कुछ। जैसे पहले था। लाख कोशिश करता हूं। पर हर बार पाता हूं खुद को बेबश। फिर लगता है तुमको भूल न पाएंगे।<br /><span class=""></span>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-56017198441247535952010-01-26T19:59:00.002+05:302010-01-26T20:01:51.841+05:30गजल: दिल मेरा<strong>राहुल कुमार<br /></strong><br />दिल मेरा आज क्यूं मुझको, टूटा सा लगे<br />आइना जिसमें है तस्वीर मेरी, झूठा सा लगे<br /><br />जिसमें है मेरी तमन्नाएं, आरजू मेरी<br />गांव सपनों का वो मुझको, लूटा सा लगे<br /><br />हो गया है वो जुदा जबसे, दूर है हमसे<br />हल्का झांेका भी अब मुझको, तूफां सा लगे<br /><br />खाईं थी जिसने वफा कसमें, बेवफा निकला<br />आज पत्थर लिखा सच भी, शगूफा सा लगेराहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-3376504594579034222010-01-16T17:26:00.005+05:302010-01-16T18:15:35.949+05:30आज भी है वो<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivN3qPxFzAxsgT0X0OZZDWlAedXKm852_gHqnF24RcnV1dt40DFuWpHoLIDZjiHLI8BJNleyOVdCpiwMnWx3NrhIlmuL9p6tKDI5Ae21xjYq0vSe1cW3-qQp-wij3Sh7cbIzJ19Sfnc_pk/s1600-h/Beauty+girl.jpg"></a><br /><div><strong>राहुल कुमार</strong><br /><span class=""></span><br />ये दिन क्यों जल्दी जल्दी ढलता है<br />शामें क्यों बोझल होती हैं<br />रात लंबी वीरानी लिए आती है<br />और सुबह नहीं सोने देती है<br />दिन की बैचेनी, रात की बेताबी मंे<br />अधूरा सा ख्वाब लिए, एक बेख्याली में<br />उसकी सूरत तैर आती है आंखों में<br />झूमती, गाती, इठलाती वो<br />नाजुक सी लड़की, मुस्कुराती वो<br />अकसर छेड़ जाती है पुरानी यादें<br />जब भी बैठता हूं अकेला<br />और ढूंढ़ता हूं खुद को<br />मन पर छाई वीरानी के कुहासे में<br />ढंूढ़ता हूं जब भी प्यार की बातें<br />पाता हूं बेहद करीब<br />आज भी उसकी सांसे,<br />जिसने दिखाए थे सपने<br />और तोड़े भी दिए<br />बनी थी हमसफर, किए थे वादे<br />उन पगडंडिंयों के जानिब मोड़ भी दिए<br />बेकसी और फासलों की गर्द के बीच<br />खोये उस अपनेपन के बीच<br />आज भी नजर आती है वो<br />देती खुद के होने का अहसास<br />और कहती है,<br />जुदा नहीं हूं मैं, जुदा नहीं हूं<br />मेरे भीतर आज भी है वो</div>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-55026646325508383622010-01-12T22:28:00.002+05:302010-01-12T22:32:16.283+05:30गरीब गुरबा गोबर बुद्धि<p><strong>राहुल कुमार</strong> </p><p>प्रेमचंद की महान कृति गोदान का नायक गोबर कहता है कि जिस पैर के नीचे गरीब का गला दबा हो उसे सहलाना ही बेहतर है। गोबर गरीबों की मजबूरी को मार्मिक ढंग से उजागर करता है। लेकिन समय के बदले परिदृश्य मंे अब गरीब गरीब नहीं रहा है। हां, उसे गोबर बुद्धि जरूर समझा जा रहा है। ऐसी गंगा जिसमें सारे पाप धुल जाते हैं। जिसके नाम पर करोड़ों की हेर-फेर हो जाती है। इस गोबर बुद्धि को पता भी नहीं चलता और उस काले धन का ढेला भर भी इसकी अंटी मंे नहीं डाला जाता। यह फक्कड़ अपनी फटी वेशभूषा और सूखी रोटी में ही मस्ताता रहता है। दुनिया इसके नाम पर कुछ भी हासिल कर ले। बांगडू गरीब-गुरबा, गोबर बुद्धि को फर्क नहीं पड़ता। हजारों कमजर्फ शरणार्थियों को शरण दे देता है जो बदले में इसे कुछ नहीं देते।</p><p>पिछले दिनों चारों खाने चित्त हुई और अपना हलक सूखाकर पानी मांग बैठी भाजपा भी इस गरीब-गुरबा की शरण में आकर सत्ता सुख पाने की चाह मंे है। अपना अस्तित्व बचाने के बावस्ता इस धूर्त पार्टी के एक बुद्धिजीवी ने गोबर बुद्धि को जगाने की बांग दी है। हिंदूत्व, संस्कृति, संस्कार, जब वोट बैंक नहीं बचा सकें तो पार्टी के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने गरीबों की सेवा करने की ठान ली है। शायद यहां भाजपा की कामचोरी छुप जाए। अपनों कंधों पर भाजपा को नया जीवन देने की जुगत में जुटे गडकरी गरीब-गुरबा की कमान पर तीर चलाने की राजनीति पर उतर आए हैं। पट्टे ने अध्यक्ष बनने के बाद हुई पहली बैठक में ही पासा फेंक दिया कि सेवा प्रकल्प का निर्माण किया जाएगा। जो गांव-गांव जाकर गरीबों की सेवा करेगी। आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाओं को सांत्वना देकर हरसंभव मदद करेगी। महिलाओं के विकास को मुद्दा बनाएगी। और उन्हें पार्टी से जोड़ेगी। </p><p>जैसे इससे पहले कभी गरीब थे ही नहीं। 1980 मंे गठित हुई इस पार्टी की आंखें अब तक मुंदी थीं कि गरीब इससे पहले दिखाई नहीं दिए। हां, आज उसकी गोबर बुद्धि जरूर टिप रही है। जिसकी सहायता से खोया सुख पाने की कवायद मंे जुटी गई है पार्टी। जैसे न इससे पहले महिलाएं थीं और न ही किसानों की विधवाएं। यह गोबर बुद्धि भाजपा ही नहीं कथित समाजसेविओं की भी बड़ी हितैषी है। जो इसके नाम पर बड़े-बड़े स्वयंसेवी संगठन बना बैठे हैं। और खूब पैसा कूट रहे हैं। गोबर बुद्धि उन एनआरआई ओं की भी बड़ी सहयोगी है जो अकूत संपत्ति से उकता आते हैं और समाजसेवा करने का कीड़ा उनके उनकी में कुलबुलाने लगा है। कुछ कंबल बांट कर और शौचालय बना कर धर्मार्थी बन गए हैं।</p><p>इस गरीब को अपनी किस्मत से कोई लेना देना नहीं है। चंपक को गोबर मंे ही स्वर्ग नजर आता है। कितने ही सहृदय परोपकारी इसे सुधारने व उद्धार करने आते हैं लेकिन यह आलसी वहीं का वहीं पड़ा है। कितने ही मंत्रियांे ने गरीबी हटाने की योजनाएं बनाईं। कागजों पर खूब पैसा बहाया। लेकिन यह गरीब बुद्धि गोबर से बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेती। अब भाजपा ने इसकी मदद करने का बीड़ा उठाया है। परंतु देखना कमबख्त सुधरेगा नहीं। जस का तस बना रहेगा। बांगडू कहीं का।</p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-48256311721758750702010-01-11T22:14:00.002+05:302010-01-11T22:18:25.941+05:30धांसू धांसू ब्लाॅगर<p><strong>राहुल कुमार</strong> </p><p>एक धांसू रिपोर्टर नए ब्लाॅगर बने हैं। और धांसू ब्लाॅगर बनने की चाह में हैं। भाईसाहब ने एक घंटे में ही ब्लाॅग का पोस्टपार्टम कर डाला। रिपोर्टिंग से जी चुरा कर एक दिन 12 बजे से ही पीसी में पिल पड़े और बहुत कुछ सीख डाला। हालांकि ब्लाॅग में सीखने को कुछ भी नहीं है। जो मोबाइल व कम्प्यूटर आॅपरेट कर ले वह ब्लाॅग भी हांक सकता है। लेकिन गुुरू को अपनी इस उपलब्धि पर बड़ा गुमान हुआ। और हमसे अपने मुखारबिंदू से पेल बैठे कि हमें भलां सिंह, भलां कुमार कहते हैं। एक दिन में ही सब कुछ सीख डालते हैं। समझे। अभी तुम सीखो, कोशिश करो। तुम्हें भी आ जाएगा।</p><p> दरअसल अपुन भी उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पूछ बैठे थे कि वाह भाई बड़ा अच्छा ब्लाॅग बना लिया। अक्षरों को रंगीन कैसे किया ? तभी गुरू का दिमाग फिर गया। लगा जैसे उन्होंने बड़ा भारी ज्ञान अर्जित कर लिया हो और अब कोई भी यहां तक नहीं पहुंच सकता। -वो बात अलग है कि नील अर्मास्टांग के बाद कई लोग चांद को भी रौंद आए हैं।-, लेकिन अपने गुरू फलसफा तुरंत छुपा गए। कहने लगे- हमने सीखा है। मेहनत की है। तुम भी करो। जरूर कुछ मिल जाएगा। </p><p>हमें समझते देर न लगी कि वाकई भाईसाहब बड़े धांसू ब्लाॅगर बन गए हैं। जो एक दिन में ही यह भूल गए कि जो उन्होंने ब्लाॅग पर डाला है। उसे महीने पर पहले लिखकर तैयार किए बैठे थे। लेकिन फाॅण्ट कनवर्ट करना नहीं आ रहा है। सो लंबे समय से मैटर तैयार होने के बावजूद हरी भजन करने को मजबूर थे। इस इंतजार मंे कि हनुमान आएंगे अवतार लेकर और कर देंगे चमत्कार फाण्ट बदलने का।</p><p>धांसू ब्लाॅगर अपने परम प्रियों मंे से एक हैं। जितना अपुन उन्हें मानते हैं वह भी अपुन को उतना ही मानते हैं। उम्र मंे कुछ बड़े हैं और कुछ अच्छा-बुरा समय साथ-साथ एक छत के नीचे बिताए हैैं। अपुन को पता चला कि भाई का ब्लाॅग बनना है। सो जुट गए फाण्ट कनटर्वर कबाड़ने में। कुछ मगजमारी की। और सफल भी हो गए। और मेल से कनवर्टर का फंडा भाई के सुपुर्द कर दिया। भाई ने तुरंत थैंक्यू वैंक्यू बोलकर अपना भी फर्ज निभा दिया और हमें चलता किया। बात खत्म।इस घटना के दूसरे ही दिन गुरू से हमने रंगीन फाण्ट का फंडा पूछा तो पता चला वह अब वह नहीं है। भलां सिंह, भलां कुमार बन गए हैं। मुबारक हो भाई। अच्छा फण्डा है। </p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-35075782582499131602010-01-09T18:47:00.002+05:302010-01-09T18:49:40.683+05:30दूध, समोसे वाले मजबूत व टिकाउ मास्साब<p><strong>राहुल कुमार<br /></strong>कान उमठेते, पेट की खाल खींचतेे, बाल पकड़ते और हाथ मरोड़ते मास्साब पहली कक्षा से ही पल्ले पड़ गए थे। यह सिलसिला जवानी तक जारी रहा। बस मास्साब की फितरत बदलती रही। अपने आप में सब के सब महानता लिए हुए। अलग अलग परिपेक्ष्य वाली। जिन्होंने पढ़ाने की अद्भुत शैली अपनी घोर तपस्या से हासिल की थी। सभी मास्साब की पढ़ाने व पिटाई करने की अदा खास थी और वहीं उनकी पहचान। कोई कान पकड़ने के धनी थे तो कोई पेट की खाल खींचने मंे अव्वल। कोई झटके से बाल उखाड़ मंे उस्ताद थे तो कोई मारने से पहले हाथ से घड़ी उतारने के हुनरमंद। छात्र भी एक से बढ़कर एक महारथी थे। उनने भी सबकी मारक शैली का पूरा परीक्षण कर रखा था। जैसे ही मास्साब गुस्से मंे आते कि उसी अंग को बचा लेते जिसपर वह आक्रमण करने के कलाबाज थे। कभी कान पर हाथ रखकर तो कभी बाल पर। मास्साब भी छात्रांे के इस शोध से तंग आ गए थे।</p><p>तरह तरह के मास्साब। कोई महान क्रांतिकारी बनने का नाटक करते और तर्क देते कि सब जगहों पर उंची उंची इमारतें बन गई हैं। कहीं भी बैठने की जगह नहीं है। इसकारण देश में क्रांति नहीं हो पा रही है। लोग एक साथ नहीं बैठ पाते और क्रांति की योजना नहीं बन पाती। तो कुछ ऐसे कि धेला भर भी जानते नहीं और बघारते ऐसे की महाज्ञानी हो। और खूब हड़काते।</p><p>बाल्यावस्था में पहली बार तीन साल की उमर में खांटी गांव की पाठशाला में पिता जी ने दाखिला दिला दिया था। जहां कांवेंट की तरह बेंच व कुर्सियां नहीं थीं। बस्ते में सिलेट और बत्ती के साथ बोरी का एक पल्ला फाड़कर टाटपट्टी के रूप ले जाना पड़ता था। उसे बिछाते और बैठते। कक्षाएं ऐसी की शांतिनिकेतन की छवि दिखाई पड़ती। सूरज की दिशा के साथ साथ बरगद के पेड़ के नीचे हमारी पंक्तियां घूमती रहतीं। बरगद की आड़ में सूरज की तपन से बचने के लिए जैसे-जैसे सूरज घूमता हम भी घूमते और मास्साब की कुर्सी भी। बरसात से बचने का कोई उपाय नहीं था। टप टप गिरते टपके को झेलना ही पड़ता था। और सुबह स्कूल पहंुचते ही कक्षा से पानी उलीचना पड़ता था। अन्य मौसम मंें स्कूल में झाडू लगाना, कंकंड बीनने का काम छात्रों के जिम्मे था।</p><p>कुछ ही समय की मगजमारी के बाद हमें समझते देर न लगी थी कि हम इसी पाठशाला के लिए बने हैं और हमें पढ़ाने वाले मास्साब को भी दुनिया मंे कहीं और ठौर मिलने वाली नहीं। दोनों का संबंध आठवें अजूबे की जोड़ी था। और यह जोड़ी टूटे से भी नहीं टूटनी थी। हम काॅवेंट स्कूल, डीयू, जेएनयू, कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, हार्वर्ट जैसे विश्वविद्यालयों के लिए नहीं बने थे। और हमारे मास्साब भी नहीं। उन्हें हमसे ही सर मारना था। और हमें उनमें ही खपना था। जैसे दोनों एक दूसरे के लिए ही धरती पर अवतरित हुए हो। गजब का मेल था। जैसे छात्र वैसे अध्यापक। रंगा-बिल्ला से।</p><p>एक मास्साब थे जाटव जी। विज्ञान के पुरोधा। अपनी कुंजी साथ लाते और प्रश्न बोलकर उत्तर उसी मंे से टिपा देते। कोर्स खत्म। कुछ पूछ बैठो तो हकलाते जवाब देते थे। एक दिन हम पूछ ही बैठे कि एयरबेस क्या होता है। कहने लगे अंतरिक्ष मंे वैज्ञानिकों को लाने ले जाने की एयर बस को एयरबेस कहते हैं। किस्सा खत्म। एक थे शुक्ला जी। संस्कृत के पुरोधा। ऐसे मास्साब कि बच्चों का नाम कभी नहीं लेते। सीधे उनके बाप के नाम से बुलाते। कस्बे की तीन पीढ़ियों को पढ़ा चुके थे। और अरे रमूआ के, वह श्याम का कहां गया, मक्कार साले तेरे बाप के कान उमेठे हैं तू किस खेत की मूली है आदि इत्यादि वाक्य उनके पान वाले लाल मुख से झरते। जिनके बापों को उन्होंने नहीं पढ़ाया था। उन्हें उनके बड़े भाई के नाम से हांकते। हम ऐसे ही छात्र थे जिसे अपने नाम का बोध कभी न हुआ। बड़े भाई के नाम से ही जाने गए।</p><p>एक थे सक्सेना मास्साब। जिन्होंने कभी कक्षा में नहीं पढ़ाया। आॅफिस में रखे लोहे के बक्से पर बिछे फर्श पर लेटे रहते। और पिछवाडे़ से आ रही ठंडी हवा का झरोखे से आनंद उठाते। छात्रों को आॅफिस में ही बुला लेते थे। गणित के पुरोधा थे। एक सवाल दे देते और खर्राटे मारते सो जाते। पूरे साल में एक भी प्रश्नावली हल नहीं कराते। परीक्षा में खुद नकल की पर्ची दे देते। पूरे कस्बे में उनकी धाक थी। गणित में महाज्ञानी थे वह। रिटायर हो गए और एक दिन सीढ़ियों से लुढ़क गए। पैर टूट गया। भगवान ने लंबा आराम दे दिया। अब घर पर ही बघारते हैं मास्टरी।</p><p>ऐसे ही थे कबीर साहब, वर्मा जी, त्रिपाठी जी, शर्मा जी। एक से बढ़कर एक ज्ञानी। जो पढ़ाई ही नहीं दूसरे क्षेत्रों में भी गुरू थे। कोई सुबह दूध बेचते, कोई समोसे की दुकान लगाते तो कोई परचूने की दुकान छोड़कर पढ़ाने आते थे। सुबह-शाम वह दुकानदार होते और हम ग्राहक। दोपहर को गुरू-शिष्य की परंपरा का निर्वाह करते। सबसे बढ़े ज्ञानी थे यादव जी। रसायनशास्त्र के ज्ञाता। जिन्होंने पूरी जिन्दगी में पेरियोडिक टेबिल से आगे रसायनशास्त्र नहीं पढ़ाया। छात्र पूरी टेबिल साल भर में नहीं रट पाते। और वह बगैर रटाये आगे नहीं बढ़ते। कई पीढ़ियों से यही सिलसिला चला आ रहा है। यादव जी बेहद अनुशासनप्रेमी थे। प्रश्न लेकर कक्षा से बाहर चले जाते और फिर कक्षा के पीछे जाकर खिड़की से झांकते थे कि कौन क्या कर रहा है ? एक बार, एक छात्र ने खिड़की के बाहर थूक दिया। तब पता चला कि यादव जी पीछे खड़े जायजा लेते हैं। एकदम उनके मंुह पर पड़ा था थूक।</p><p>काॅलेज में बीएससी के दौरान अपुन ने तीन साल में एक भी क्लास नहीं ली। बस ट्यूशन जाते थे। जिन मास्साब के पास जाते उनकी एक खूबसूरत लड़की थी। जब हम ट्यूशन पढ़ते थे। वह तभी बाहर निकलती थी। जिस भी लड़के ने उसकी ओर देख लिया तो समझो शामत आ गई। मास्साब लाल हो जाते और कमरे से बाहर निकाल देते। बाद में वह लड़की ट्यूशन आने वाले उसी गांव के गबरू लड़के से पट गई। जो अकसर उसके कारण कक्षा से बाहर निकाला जाता था। मास्साब कुछ न कर पाए।</p><p>आज कंक्रीट के इस बियाबान में बचपन के मास्साब खूब याद आते हैं। जिनके सिखाए गुर हम देश के कई अखबारों में जरिये लोगों तक पहंुचा रहे हैं। आखिर नींव तो उन्होंने ही डाली थी हमारी। आज सभी मास्साब के लिए आदर है। जिन्हांेने हर परिस्थितियों में जीने की कला सिखाई। खांटी थे, पर थे मस्ताने। जो सिखाया और जो न सिखा सके। सब जानते हैं। लेकिन हैं तो हमारे मास्साब ही। अद्भुत शैली वाले। हमारे देश के असली मास्साब। जिन्हांेने बच्चों को पढ़ाया, उनके लिए लड़कियां देखने भी गए। फिर बारात में नाचे, उसके बाप बनने पर खुशी जाहिर की। और पीढ़ियों को पनपने, बनते, बिगड़ते देखते। जेएनयू, आॅक्सफोर्ड, डीयू के प्रोफेसर अपवाद हो सकते हैं। जो सिर्फ सुविधाओं व संसाधनों में पनपते हैं। और कुछ सालों का ही संबंध छात्रों से रखते हैं। पर हमारे मास्साब असली व बेजोड़ हैं। मन पर अमिट हैं। जो भारत देश की नींव व संस्कार हैं। सदियों से टिकाउ और मजबूत हैं। गांवों में भविष्य रचने वाले हैं। हमारे मास्साब। हमारे अपने।</p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-84353969079914585012009-12-31T17:01:00.002+05:302009-12-31T17:09:55.616+05:30साल के जाते-जाते<p><strong>राहुल कुमार</strong></p><p>चार अंकों का साल जाने को है। और चार अंकों का ही आने वाला। बस एक नंबर बढ़ गया है। हमेशा की तरह। इस बात से बेखबर की नया क्या है। लोगों में बेहद खुशी है। चारांे तरफ चिल्ल पों है। शोर शराबा। नए साल के स्वागत में लोग पागल हुए जा रहे हैं। सब की अपनी अपनी खुशियां और योजनाएं हैं। नए कपड़ों, नए स्थलों, नए आइडिया, नया करने के जोश के साथ। नए साल का स्वागत।</p><p>नए साल के पहले दिन सभी नया करने को बेताब हैं। लेकिन नया क्या किया जाए। परेशान हैं। बावजूद सब वही पुराने ढर्रे पर चल पड़े हैं। रात भर जाम के नशे में चूर होंगे। सुबह सूरज चढ़ने के बाद ही आंख खोलेंगे। जाम और थिरकन का खुमार बाकी रहेगा। साल के जाते जाते ज्योतिषी भी चीख रहे हैं। सभी राशियों का भाग्य तय कर रहे हैं। कौन नए साल में किस तरह की तरक्की पाएगा। लेकिन फिलहाल लोग जाम के नशे में नववर्ष सेलीब्रेट करने को बेताब हैं। झूमने को लालायित। </p><p>लेकिन सोचता हूं दिन का ढलना, शाम का चढ़ना, रात का मुब्हम अंधेरा, और फिर सुबह की विजयी मुस्कान। सब कुछ वैसी ही होगी जैसी है। और हमेशा से रही है। प्रकृति ने कभी खुद को नहीं बदला। रात की तन्हाईयों में सुबह के इंतजार में करवटें बदलने ने अदा नहीं बदली। सालों से वही हैं। दोपहर का बीतना। महीनों का आना-जाना। ऋतुओं का बदलना। दिन का उतार-चढ़ाव। रात का बढ़ना-ढलना। शाम का सहरा। सब कुछ हमेशा की तरह। वैसा ही बना रहेगा।</p><p>तो फिर सवाल कुलांचे मारता है कि नया क्या है नए साल में ? नए कपड़े पहनना ? नए तरीके से नाचना ? अच्छा खाना ? अच्छी शराब ? आखिर क्या ? शायद यह कि कुछ पुराने चेहरे से नाता तोड़ कर नए से रिश्ता गांठना ?</p><p>ऐसे में अपुन ने तय किया है कुछ नया करने का कोई संकल्प नहीं लेना है। जो सामने आएगा देखा जाएगा। साहस के साथ मुखाबित होंगे। हर अच्छे-बुरे से। जीवन की विसात पर शह और मात का खेल खेला जाएगा। बने बनाए सांचे से इतर। जाते साल को सलाम करते हुए नए साल के इंतजार में अपुन भी हैं। जाते साल का दिया अच्छा-बुरा लिए दबे पांव लेकिन उछलते कूदते नए साल में जाने को तैयार। डूबते साल ने बहुत कुछ दिया। इसलिए शुक्रगुजार हंू उसका। जीवन में कुछ खास जोड़ने वाला। नए साल से ढेरों उम्मीदें हैं। जीवन को खास बनाने और तराशने वालीं। पूरे साहस के साथ तैयार हूं। नए साल के लिए। आओ। और देखें इस विसात पर कौन शह खाता और कौन मात। क्या पाना है और क्या खोना।</p><p>आप सभी को भी नववर्ष की पहली किरण के साथ ढेर सारी खुशियां मिलने की कामना करता हूं। सभी का शौर्य, साहस, उत्साह, बना रहे। सभी संकल्प जो ले लिए हैं पूरे हो। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ। बाकी सब नए साल में। </p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-58186648439555598672009-12-24T22:39:00.002+05:302009-12-24T22:44:36.412+05:30एक संस्मरण : खो गई, वो पहली सी वैदेही<strong>राहुल कुमार</strong><br />जैसे ही स्टेषन से बाहर निकला कि पूस माह की ठंडी हवा कमीज को भेदते हुए सीधे सीने में चुभने लगी। पहले ही झटके में समझ गया कि स्टेषन पर सुबह तक इंतजार करना सेहत के लिए ठीक न होगा। सो टैक्सी स्टैंड पर फोन लगाकर एक बुलेरो गाड़ी मंगवा ली। और उसमें बैठ कर सीधे अपने घर दिनारा की ओर चलना तय किया। मैं करीब चार महीने बाद घर वापस लौट रहा था। लेकिन किराये की बुलेरो से रात में जाने का यह पहला मौका था।<br />तकरीबन 25 मिनट के बाद ही दिनारा की दहलीज में हम दाखिल हो गए। बातों बातों में पता चला कि चालक दिनारा कस्बे का ही है। लेकिन मैं परिचित नहीं था। पिता जी का नाम बताते ही उसने चहक कर कहा था आप दिल्ली में रहते हो। गाड़ी कस्बे के पहले मकान को ही लांघी थी कि दसवीं कक्षा का वह रिष्ता याद आ गया जो आज भी गुदगुदाता है। और जिसकी खबरें मुझे टुकड़ों टुकड़ों में जवानी तक मिलती रही थीं। वैदेही का वह तीखा नाक नक्ष और सुंदर बादामी गोल बड़ी-बड़ी आंखों वाला चेहरा मेरे सामने घूमने लगा। वैदेही और मैं अंग्रेजी का ट्यूषन सक्सेना मास्साब के यहां पढ़ते थे। वैदेही अपनी सुंदरता के चलते जल्दी ही गली मोहल्ले और स्कूल के लड़कों की नजर में आ गई थी। और हर कोई उससे दोस्ती बढ़ाने और रिष्ता गांठने की फिराक में रहता था। वैदेही से मेरा रिष्ता दो तरह से था। एक तो हम दोनों के पिता एक ही स्कूल मंे षिक्षक थे। दूसरे, मैं जब भी ट्यूषन के लिए लेट हो जाता तो वह मेरा कागज नोट्स के लिए मास्साब के कागज और कार्बन पेपर के नीचे लगा देती थी। ट्यूषन खत्म होने के बाद मुझे पता चलता कि मेरा कागज भी मास्साब की नत्थी मंे था। इससे अधिक वैदेही से मेरा कोई रिष्ता कभी नहीं रहा। अपने संकोची स्वाभाव के चलते मैं न तो कभी उससे बात कर सका और न निगाह भर देख सका। बस सुनता था कि वह बला की खूबसूरत है। और इतनी सुंदर है कि पूरी तहसील में उसके मुकाबले लड़की नहीं।<br />वैदेही का झुकाव ही था कि मैं अन्य लड़कों की नजर में खास बन गया था। लड़के हरसंभव मेरी सोहबत करना चाहते। करीब आकर मुझे बहलाने और दोस्ती गांठने की कोषिष में रहते। मेरी आवाभगत करते। गर्मजोषी से स्वागत करते हुए हाथ मिलाते। इनमें दो लड़के जीतेंद्र और अनिल वैदेही की वजह से ही मेरे दोस्त बने थे। वह वैदेही की तरफ झुकाव रखते थे और मुझ पर लगाम लगाना चाहते थे। लेकिन मैं पहले ही अपने स्वाभाव के चलते इन सब मामलों मंे पड़ने वाला नहीं था।<br />जीतेेंद्र और अनिल की दांत काटी दोस्ती थी। ऐसी की एक दूसरे के बगैर कोई काम न करते। दोनों ने तय किया कि वैदेही की अन्य लड़कों से रक्षा करेंगे और उसे अपना बना कर रहेंगे। वैदेही के मन में क्या था मैं कभी नहीं जान सका। दोनों दोस्त बड़े चालक थे। पहला यानी अनिल वैदेही का दोस्त बन गया और दूसरा यानी जीतेंद्र उसका प्रेमी बन बैठा। दसवीं की परीक्षा नजदीक आ गई थी। मैं पढ़ाई में मषगूल हो गया। परीक्षा खत्म होते ही मुझे ग्वालियर भेज दिया गया। और बाकी पूरी पढ़ाई ग्वालियर में ही की। दिनारा आना जाना लगा रहा।<br />जब भी ग्वालियर से दिनारा आता तो जीतेंद्र और अनिल से मुलाकात हो जाती। और बातों बातों में अन्य लोगों से कभी कभार वैदेही, अनिल व जीतेंद्र के किस्से सुनने को मिलते रहते। इसी बीच सुना था कि अनिल को किसी ने वैदेही के घर के सामने 12 बार चाकू मारकर कत्ल कर दिया। जीतेंद्र ने जहर खाकर आत्महत्या करनी चाही। पहली बार बच गया। पर दूसरी बार में सफल हो गया। वैदेही की कोई सूचना नहीं थी। इसलिए मैं वैदेही का हाल जानने के लिए उतावला रहता। खुलकर किसी से पूछ भी नहीं सकता था। लेकिन आज जैसे ही गाड़ी गुप्ता जी के घर के सामने पहुंची। मैंने ड्राइवर से पूछा ही लिया, भाई ये बताओ कि गुप्ता जी के परिवार के क्या हाल चाल हैं। वह बुझी सी आवाज में बोला ठीक ही हैं। मैं चुप हो गया। फिर कुछ देर बाद हिम्मत करके पूछा, गुप्ता जी के एक बेटी थी न, उसके क्या हाल चाल है। कहीं शादी बादी हो गई या अभी भी पढ़ लिख रही है। अब चालक ने झटके से मेरे ओर देखा। और कड़क आवाज में बोला क्या बाबूजी लड़की थी या बबाल, खुद तो बर्बाद हो ही गई। तीन परिवारों को और ले डूबी। उसकी करनी ने ऐसा ताडंव मचाया कि दो लड़के तो मारे ही गए। खुद भी पागल हो गई। अब परिवार वाले उसके पागलपन का इलाज कराते फिर रहे हैं। कभी नेपाल भेजते हैं, कभी आगरा और कभी दिल्ली। सुनते हैं अभी दिल्ली में ही है।<br />चालक ने गाड़ी वैदेही के घर के सामने रोक दी। बोलना जारी रखा और जो घटा, कह सुनाया। कस्बाई जिंदगी का जो सच उसके मुंह से सुना, मैं स्तब्ध रह गया।<br />उसने बताया कि अनिल और जीतेंद्र दोनों वैदेही के इश्क में पड़ गए थे। इनमें से अनिल वैदेही दोस्त था। और जीतेंद्र वैदेही का प्रेमी। अनिल, वैदेही और जीतेंद्र के मिलने का स्थान व समय तय करता। वह दोनों की हरसंभव मदद करता। दोनों के बीच की अहम कड़ी बन गया। और दोनों के लिए बेहद खास। अनिल ने वैदेही के भाई से भी अच्छी दोस्ती गांठ ली थी। और घर पर आना जाना शुरू कर दिया था। जीतेंद्र के प्रेम पत्र भी वही लिखता और वैदेही तक पहुंचाने का काम भी उसी के जिम्मे था। वैदेही जीतेंद्र के साथ अनिल से भी पूरी तरह से खुली गई थी। दोनों घंटों बात करते रहते।<br />फिर न जाने क्या हुआ कि अनिल और जीतेंद्र में बिगड़ने लगी। शायद जीतेंद्र को अनिल का वैदेही के बेहद करीब होना चुभने लगा था। और वह अनिल पर शक भी करने लगा था। जीतेंद्र के अन्य दोस्त भी पीठ पीछे उसके कान भरने लगे थे। इस बात से वैदेही और अनिल दोनों बेखबर थे। फिर एक दिन अनिल और जीतेंद्र के बीच जमकर मारपीट हुई। जीतेंद्र का भाई इलाके का गुंडा था। फिर एक दिन अनिल को वैदेही के घर के सामने ही चाकू मारकर कत्ल कर दिया। जीतेंद्र के भाई ने उसे मारवा दिया था। और तभी से फरार चल रहा है। वैदेही इस बात से बेहद दुखी हुई और जीतेंद्र से दूरी बनाने लगी।<br />जीतंेद्र का शक और भी बढ़ गया। वैदेही से मिलने की जिद पर अड़ गया और एक दिन उसके घर पहंुच गया। दोनों के प्यार की बात घर वालों को पता चल गई। घरवालों ने वैदेही की जमकर पिटाई की। और शादी करा देना मुनासिब समझा। कुछ दिनों में ही उसकी शादी पक्की कर दी। वैदेही शादी नहीं करना चाहती थी। उसने जीतेंद्र को सब बता दिया। और कहा कि अब हम नहीं मिल सकते। जीतेंद्र को सदमा लगा। वह वैदेही को नहीं खोना चाहता था। और वैदेही से शादी करने की जिद करने लगा। वैदेही लोक लाज के डर से कोई बड़ा कदम नहीं उठा पा रही थी। अंत में जीतेंद्र ने जहर खाकर आत्महत्या करनी चाही। बच गया। लेकिन जब वैदेही को किसी भी सूरत में पाने की उम्मीद न रही तो फिर जहर खा लिया। और इस बार वह बच न सका। जीतेंद्र की मौत की खबर पाकर वैदेही एकदम टूट गई। और लगभग विक्षिप्त सी हो गई। कई महीनों उसने अन्न-जल छुआ तक नहीं। अपना प्यार खो जाने के बाद वह पत्थर की बुत बन कर रह गई। वह जीतेंद्र को नहीं भुला पाई। वैदेही की इस हालत में न तो शादी हो सकती है और न वह खुश रह सकती है। इसकारण घर वाले उसका इलाज कराते फिर रहे हैं।<br />कस्बाई जिंदगी की यह प्रेम कहानी सुनकर मेरा मन कचोट गया। आखिर तीन हंसती खेलती जिंदगियां स्वाहा हो गई। जीतेंद्र ने संकीर्ण दिमाग के चलते अपना दोस्त खो दिया। और वैदेही के परंपरावादी परिजनों ने जीतेंद्र से उसकी शादी न कर दोनों को जीते जी मार डाला। मैं ऐसे ही विचारों में खोया था कि अचानक वैदेही के घर के सामने एक चार पहिया गाड़ी आकर रूकी। गाड़ी से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति और एक जवान लड़का बाहर निकला। फिर दोनों ने गाड़ी का दरवाजा खोलकर एक लड़की को उसकी एक-एक बांह पकड़कर बाहर निकाला। तभी चालक ने ईशारा करते हुए कहा- यही है वैदेही। शायद दिल्ली से परिवार सहित वापस लौटी है। उसके पिता और भाई ने उसे पकड़ा है। और उसी गाड़ी से आए हैं जिससे आप आए हैं। मैं गौर से वैदेही की हालत देखने लगा। आज पहली बार वैदेही को निगाह भर के देखा है। लेकिन अफसोस वह पहली सी वैदेही नहीं रही। हंसती-खिलखिलाती और हमेशा पढ़ाई में अव्वल आने वाली वैदेही। जिसकी खातिर मैं जानबूझकर ट्यूशन पांच मिनट देरी से जाता था।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-49332652407674309702009-12-20T13:53:00.002+05:302009-12-20T13:56:18.952+05:30परेशानी में है अखबार<p><strong>राहुल कुमार</strong></p><p>एक अखबार बेहद परेशान हैं। परेशानी ऐसी की उसकी जान निकल रही है। वह चिंतित है। व्याकुल है। और सोच में डूबा हुआ है। परेशानी से निजात पाने के लिए वह कई कथिक विशेषज्ञों, कुछ बांगडूओं और कुछ ऐरे गैरे नत्थूखैरोें से सलाह लेता फिर रहा हैै। बहस करा रहा है। और अपने सोलह पेज में से कभी पूरा पेज, कभी आधा और तो कभी चार, तीन, दो काॅलम में बहस का हिस्सा छाप रहा है। सामाजिक सरोकार ऐसा कि सभी पाठकों से राय भी ले रहा है। अपनी समस्या जगजाहिर कर रहा है। समस्या भी विकराल है। जो मानवजाति के इतिहास में पहली बार आ धमकी है। अखबार के गले की फांस बन बैठी है।</p><p>रोजाना की तरह ही 31 दिसंबर की शाम सूरज डूबेगा और 1 जनवरी की सुबह उदय होगा। प्रकृति के बंधे बंधाये नियम के मुताबिक। लेकिन यही पल अखबार को सासंत में डालने वाला बन गया है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर नए साल को क्या कहें। उसे ट्वेंटी टेन से नवाजें, टू थाउजेंट टेन कहें या फिर टू टेन पुकारें। उसके रिपोर्टर कैंपस मंे स्टूडेंट को पकड़ रहे हैं। जो मिल जाता है चढ़ बैठतेे हैं और पूछ लेते हैं। नए साल को क्या कहें। लेकिन कमबक्त परेशानी है कि जाने का नाम नहीं ले रही। और इस तिलिस्म भरी समस्या से जूझने वाला अखबार कोई और नहीं, खुद को देश की राजधानी का सबसे लोकप्रिय कहने वाला पत्र है।</p><p>अखबार की इस गंभीरता पर अपुन कायल हो गए। देख रहे हैं कि जैसे वह समस्या के निदान के लिए अखबार का भरपूर स्पेस दे रहा है। जो स्पेस उसने कभी गरीब, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बेरोजगारी व अन्य सामाजिक समस्याओं पर नहीं दिया। कभी इनके लिए युद्ध स्तर पर ऐसा अभियान नहीं छेड़ा। और आज भयानक समस्या दिखी तो वह कैसे चिंतित हो उठा। कैसे उसने अपने सबसे जिम्मेदार पत्र होेने की इत्तला कर दी। और कैसे समस्या का हल ढंूढ़ने के लिए विशेषज्ञों की चैपाल बिठा ली। आखिर राजधानी का सबसे बड़े अखबार होने का गौरव ऐसे ही थोड़े मिल जाता है। त्याग करना होता है। मुद्दों को समझने की पारखी नजर और उन पर सटीक जानकारी देने दी अद्भुत कला का धनी होना होता है। बेहद काबिले तारीफ है कि पत्र ने अन्य छुटपुट समस्याओं से पाठकों का ध्यान हटाकर इतिहास की सबसे बड़ी व विकराल समस्या की ओर कितनी कलात्मकता से ध्यान आकर्षित कर दिया। मुरीद न हो तो क्या हो।</p><p>खैर वो बात और कि अखबार की समस्या का हल हो भी जाए, लेकिन प्रकृति का असंतुलित होना रूकने वाला नहीं। हर छह बच्चों में भूख से मरने वाले उस एक बच्चे को भरपेट भोजन मिलने वाला नहीं। लोगों को कमजोर कर उनकी कमजोरियों को सियासी रंग देकर सत्ता पर काबिज होने की कायरता रूकने वाली नहीं। बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर सड़कों पर चप्पल चटकाते युवाओं को रोजगार मिलने वाला नहीं। बीसों साल से न्याय के लिए कोर्ट के चक्कर काटते गरीब को न्याय नहीं। रोटी, मकान, सड़क, बिजली, पानी समस्याओं मंे कोई विकास नहीं। धर्म के नाम पर लूटने वाले मठाधीशों का बाल भी बांका नहीं। कई वादों में बिखरे देश को और नए वाद पैदा कर बांटने वालों पर कोई आंच नहीं। गुंडों और बाहूबलियों पर कोई अंकुश लगने वाला नहीं है। जब नये साल में कुछ भी नया होने वाला नहीं है तो क्यों न नये साल को नया नाम देकर ही मन भर लिया जाए। और नयेपन का अहसास कर लिया जाए। आखिर अन्य मुद्दांे के लिए क्या लड़ना। और इस शांतिप्रिय देश में लड़ने की बात भी क्या करना। जब अखबार की ये दूरदृष्टि समझ मंे आई तो खुद को कोसे बिना हम नहीं रह सके। कितने बेवजह के मुद्दों पर नजर गड़ाए बैठा रहता हूं। असल मुद्दा तो यहां था। जिस पर ध्यान ही नहीं गया। वो तो इस अखबार को भला हो। वरना दिल्लीवासी कहीं के नहीं रहते। अखबार की इस चिंता पर अगर सारी मीडिया गंभीर हो उठे तो कोई परेशानी ही न रहे। </p><p>पर वो बात दूसरी है कि नये साल का सूरज भी अपनी किरणों में किसी तरह की कोई तब्दीली करने वाला नहीं।</p>राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-26755049900814443802009-12-06T16:47:00.002+05:302009-12-06T16:53:30.957+05:30नाइट क्लब में डांस पे चांस....<strong>राहुल कुमार</strong><br />लगातार आ रहे आॅफरों को कई बार ठुकराने के बाद, न जाने क्यों इस बार नाइट क्बल का रूख कर ही लिया। देखें तो भला रात की सुकून भरी नींद गवाने और उछले-कूदते, बांहों में बांहें डालने के पीछे लोगों का फलसफा क्या हैै। सो, दो साथियों के प्रवेश को एक फोन घुमाकर पक्का कर लिया। अकेले जाना मुनासिब न समझा। अपुन खांटी देसी आदमी, उस पर खराब मैनेजर। लेकिन अफसोस की बाकी दो भी अपुन जैसे ही। पर अच्छे मैनेजर। अब जाना है तो जाना है। मन बन गया है। और फिर तय कर दिया रात में मदहोश होती जवानियों के थिरकते कदमों से कदम मिलाने का समय। रात 11 बजे।<br />दोनों भाई लोग अपनी तरह अर्थशास्त्र में कमजोर। उम्र में बड़े। मुझसे खर्च भी नहीं करा सकते। एक की पगार हाल ही में मिली है। प्रवेश मुफ्त है। लेकिन पीने का खर्चा बहुत। पूरी पगार जेब में रख ली है। बहुत कुछ पीकर गए हैं। ताकी क्लब में और न पीना पड़े। लेकिन पीना तो पड़ेगी ही। रात जवान होगी और शराब उतरती-चढ़ती रहेगी। एक ने बहुत पी है। मैंने उससे कम और एक ने मुझसे भी कम। क्योंकि उसकी गर्लफ्रैंड का फोन आ जाता है। वह डरता है। अपनी अभी-अभी जुदा हो गई। टेंशन खत्म। पहले फोन आता था। तब पीते भी नहीं थे।<br />क्लब में जोड़े के साथ प्रवेश है। लेकिन अपनी चलती है। तीन का जोड़ा है। वो भी मस्ती में। भाईयों के साथ प्रवेश करते हैं। मुंबई से बैंड आया है। बहुत पाॅपुलर है। कानों में डीजे की धमक के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। सारा शरीर लगभग डीजे बन गया है। पूरा डांस फ्लोर थिरक रहा है। हम भी। सामने बार काउंटर है। जो भी पीना हो, पैसे दो और पिओ। पटियाला, टकीला, काॅकटेल, बीयर, बिस्की, रम, वोदका कुछ भी। लड़कियों के हाथों में बीयर की बोतल है। कुछ काउंटर पर टकीले पे टकीला पिये जा रही हैं। वोदका उन्हें खूब पसंद आ रही है। सब पुरुषों मित्रों के साथ हैं। बांहों में बांहे और लगभग सांसो में सांसे डाले हुए। चेहरे से खानदानी कम, रहीस ज्यादा हैं। बहुत कुछ पहना है फिर भी बहुत कुछ दिख रहा हैै। भाई इशारा करता है। अपुन पहले से ही देख रहे हैं।<br />रात जैसे-जैसे बढ़ती है। हरकतें भी बढ़ती जा रही हैं। पहले महज डांस हो रहा था। लेकिन अब और भी बहुत कुछ। जिन्होंने क्बल में ही पी है, वह अब बहकने लगे हैं। इसलिए हरकतें भी बढ़ गई हंै। पास वाला जोड़ा परेशान है। लड़का बार-बार किस लेना चाहता है। लड़की चेहरा फेर लेती है। बांहों में बांहें हैं पर होंठ.....जाने दीजिये। वह नखरे कर रही है। शायद बाद में किस देगी। देना नहीं होता तो रात को क्लब में ही क्यों आती। खैर।<br />भाई लोग पूरी बाराती स्टाइल में फ्लोर पर हाथ-पैर फड़फड़ाने लगे हैं। अपुन को थोड़ा बहुत थिरकना आता है। फ्लोर पर भीड़ बहुत है। सब नशे में चूर हैं। पता नहीं कौन किसके साथ आया है। जो मिलता है, उसी के साथ डांस पर चांस मारा जा रहा है। कौन कहेगा अपुन बगैर गर्लफ्रैंड के आए हैं। आसपास कई गोपियां कमर मटका रही हैं। कई बार स्पर्श का आनंद भी मिल जाता है।<br />करीब एक घंटे बाद एक जोड़ा थक पर सोफे पर लेट जाता है। अपनी पार्टी भी थक गई है। सोफे पर बैठने पहुंच जाते हैं। अंधेरा काफी है। फ्लोर पर चमक रही लाल पीली बत्ती से कुछ कुछ दिखता है। देखकर लगा शायद अब रात पूरी तरह जवान हुई है। कई जोड़े हैं वहां। पर हम वहां से निकल लेते हैं। कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। भाई सिगरेट का पूरा पैकेट लेकर आया है। सुलगा लेते हैं।<br />कुछ सुस्ताते हैं। भाई इशारा करता है। क्योंकि कान मुंह के कितने भी पास हो आवाज सुनाई नहीं दे रही है। तीन लड़कियां हमारी तरह अकेली खड़ी हैं। शायद पार्टनर की तलाश में हैं। दोस्त आॅफर करने की बात करता है। अपुन को डर लगता है। साफ इंकार कर देते हैं। वह कुछ पास आतीं हैं। मुस्कुराती हैं। कुर्सियों पर बैठ जाती हैं। उनके हाथ में भी सिगरेट हैं। भाई डांस पर चांस मारने का चांस उन्हें देता है। वह राजी हो जाती हैं। मस्ती दुगुनी हो चली है। भाई वेस्ट आॅफ लक वाला अंगूठा दिखाता है। अब अपुन भी एक के साथ फ्लोर पर पहुंच जाते हैं।<br />कदमों के साथ कदम मिल गए हैं। मुझे घबराहट है। वह बिंदास है। मैं उसके कान में चिल्लाता हूं हाॅस्टल मंे रहती हो क्या ? वह डांस करते करते सिर हिला देती है। तभी जादू है नशा है..... बज उठता है। वह करीब आ जाती है। कब उसका हाथ मेरी कमर में आ जाता है पता नहीं। और मेरा भी। यह भी पता नहीं। सोणी केे नखरे सोणे लगदे.... बजते ही वह दूर हो गई है। पूरे जोश के साथ नाचने लगी है। अपुन फ्लोर छोड़कर कुर्सियों पर आ बैठते हैं। भाई लोग मस्त हैं। मेरा ख्याल उन्हें अब नहीं है।मैं उन्हें बुलाता हूं। और उपर वाले फ्लोर पर जाने के लिए कहता हूं। तीनों जाते हैं लेकिन बड़े कद वाला बाउंसर खड़ा है। वह रोक देता है। कहता है उपर कुछ नहीं है। जाना मना है। डांस नीचे ही करो। हम नादान नहीं हैं। जानते हैं उपर क्या है पर जाना भी नहीं चाहते। क्योंकि यह सब जानते हैं।<br />मन पूरी तरह उब चुका है। दम घुटने लगा है। ज्यादातर जोड़ियां थक कर बैठ गई हैं। कुछ लेट गए हंै। फ्लोर पर एक्का दुक्का ही बचे हैं। रात के तीन बज चुके हैं। अपना अब वापस चलने का मन है। तीनों राजी भी हैं। साथ वाली लड़कियां कहां गई पता नहीं। शायद किसी और के साथ हो गई होगी। लेकिन उनकी इस फितरत का बुरा नहीं लगता। जैसा कि उसका......खैर जाने दीजिये।<br />वापसी बेहद भारी है। दिमाग फट रहा है। लुत्फ क्या मिला पता नहीं लेकिन रात व्यर्थ जाने का दुख है। शुक्र है आने वाला दिन रविवार है। और काम कम है।<br />गाड़ी स्टार्ट करने से पहले दोस्तों से कहता हूं। यह क्या रिश्ता था। बांहों में बांहें थी और साथ में डांस। कुछ पल बेहद करीब। लेकिन अब कुछ नहीं। जैसे न अपने होने का कोई स्वाभिमान, न कोई अस्तित्व और न किसी तरह की कोई भावना। एक पल साथ और दूसरे पल में कोई नाता नहीं। तभी दोस्त चपत मारता है। ठीक वैसे जैसे किसी बेवकूफ को मारी जाती है। वह कहता है यह तो एक रात का साथ था। लोग सालों का छोड़ जाते हैं। तभी उसका ख्याल आता है। फिर कहता हूं। तो क्या अंतर है, इस रिश्ते में और उस रिश्ते में जो सालों रहा। दोनों रिश्तों का नतीजा एक है तो फितरत भी एक सी ही होगी। दोस्त हामी भर देता है। और कहता है कोई अंतर नहीं। सब एक है। लेकिन मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं है। कम से कम अपनी जानिब तो बिलकुल नहीं।<br />रात भर नाचने के बाद भी मन बेहद उदास है। तभी दोस्त कहता है पगार में से साढ़े तीन हजार का बट्टा लग गया। मैं मन ही मन कसम खाता हूं। आज के बाद न नाइट क्लब और न ही शराब।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8124691886035494974.post-79728746035699452962009-12-03T22:49:00.001+05:302009-12-03T22:51:53.327+05:30अय्यार दुनिया<strong>राहुल कुमार<br /></strong>दरीचे में रखी ये बेढंगी किताबें<br />आज सुबह से ही मुंह चिढ़ा रही हैं मुझे<br />इनमें जो लिखा है इनसे जो पढ़ा है<br />कुछ भी तो नहीं है इस अय्यार दुनिया में<br />आसूदगी की बातें, नेकियत की दुहाई<br />इंसानियत के किस्से, उसूलों की कसमें<br />जैसे बोझ सी जान पड़ती हैं मुझे<br />अक्लबानों की ये बातें, कमअक्लों के लिए<br />पांवों में पड़ी जंजीर के सिवा कुछ भी तो नहीं है<br />कितनी झूठी और मक्कार लगने लगी हैं किताबें<br />जो खींच ले जाती हैं, ऐसे स्याह जहां में<br />जो कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं<br />और हम ढूंढ़ते रहते हैं, ताउम्र<br />एक बेहतर कल की आस में<br />जिसे ख्याबों में आना है, हकीकत में नहीं<br />फिर सोचता हूं, उस शख्स के बारे में<br />जिसने बना दिया है मुझे ऐसा<br />जिसने दी है ये दृष्टि<br />जो जेहन में छुपा बैठा है<br />और कचोटता है मन को<br />रह रह कर आता है याद मुझको<br />लाख कोशिश करता हंू फिर भी बेबस हूं<br />आंख के कोने में आए आंसू की तरह<br />उसका ख्याल जाता क्यों नहीं।राहुल यादवhttp://www.blogger.com/profile/17584554814410271031noreply@blogger.com2