राहुल कुमार
वाकई बहुत बेशरम हैं। लानत है इन नेताओं पर जो जनता के धिक्कारने के बाद भी अपनी खुदगर्जी से बाज नहीं आ रहे हैं। मुंह की खाने के बाद भी बांगडू बांग दे रहे हैं। समर्थन ले लो समर्थन। अरे भाई काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती। जनता बेवकूफ नहीं है। समझ गई हरामखोरी को। निकाल फेंका न मक्खी के तरह राजनीति से। अलगाव और अफसरवादिता की राजनीति की हांडी जलाकर राख ही कर दी। अब रोये पांच साल तक। बहा लो टेसू साइकिल, लालटेन, हाथी और झोपड़ी के नाम पर। कमल भी मुरझा गया। आखिर कब तक गोधरा और बाबरी मस्जिद की त्रासदी झेलेगी जनता। अब दंगे नहीं, शांति और तरक्की चाहिए भाई। तरक्की। चैन से रहने के लिए।
मुलायम, लालू और पासवान अब फड़फड़ा रहे हैं राजनीति में जीवित रहने के लिए। सबसे ज्यादा लालू। पिछले दो दशक में ऐसा पहले बार होगा कि वह सत्ता से बेदखल गुमनामी में जीने को मजबूर होंगे। मुलायम की लुटिया भी हिचकोले खा रही है कब डूब जाए कयास तेज हैं। वहीं पासवान पिघल गए जनता के अक्रोश की आंच में। खुद की सीट भी नहीं बचा पाए दलितों के मसीहा। देर से जरूर पर ठीक हुआ जनता को भेड़ समझने वाले इन नेताओं के साथ। आखिर बहुत खेल खेल लिया था दोस्ती और दुश्मनी का। अबकी भेड़ की तरह नहीं हंकी जनता। विधानसभा में कट्टर दुश्मन और लोकसभा में भाईगिरी नहीं चली। जनता ने सबक दे ही दिया या तो दोस्त रहो या दुश्मन। मनमर्जी नहीं चलेगी। मतदाता बेवकूफ नहीं है कि हर बार इशारों पर नाचे। अहम तोड़ दिया। और ऐसा तोड़ा कि संभलना मुश्किल है।
वहीं उप्र को खुद की बफौती समझने वाली कुंवारी बहन जी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोय बैठी थीं। खूब ताल ठांेक रही थी। 21 सीट ही ले सकी। सुंदर सपना टूट गया। जातिवाद नहीं चला। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाए के समीकरण भी ध्वस्त हो गए। हालत ये हो गई है इन सपनों के प्रधानमंत्रियों की कि यूपीए को बिन मांगे समर्थ देने को लालायित हैं। समर्थन आलू, बैंगन टमाटर हो गया है। ले ले बिना शर्त के। अंदर से बाहर से बस ले ले। ताकी बचे रहें। गुजर बसर होती रहे।
याद हो यह वहीं नेता हैं जो महीने पर पहले बहुमत में आई पार्टी को बिना कंठ गीला किया कोसते थे। दावा करते थे उनके बगैर देश को प्रधानमंत्री नहीं मिल सकता। और अब तेवर कैसे बदल गए। बांगडूओं को शर्म तक नहीं आ रही। मीडिया पुराने बयान और वीडियो पर सवाल दाग रही है। पर वह बस समर्थन देने की बात पर टिके हैं। यूपीए नहीं ले रही है। न उसे चाहिए। पर जबर्रदस्ती दे रहे हैं। जनादेश को वाकई सलाम करने का मन है आज। दिखा दिया काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती।
मंगलवार, 19 मई 2009
गुरुवार, 7 मई 2009
पप्पू एक छलावा और नेताओं का पाप है
राहुल कुमार
चंद स्वार्थी और खुद को दूसरे से ज्यादा जागरूक समझने वाले कथित लोगों ने वोट की ऐसी लहर चलाई कि पप्पू शब्द ही घृणित कर दिया। हर तरफ पप्पू न बनने की गूंज है। पप्पू मत बनिए वोट डालिए। आपका वोट सरकार बदल सकता है। लोकतंत्र में भागीदार बनो आदि इत्यादि। जैसे आप पप्पू बन गए तो इस धरती पर रहने के काबिल ही नहीं है। पप्पू होना दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह है। सरकार से लेकर खबरिया चैनल, बकबक करने वाले एफएम और पत्र-पत्रिकाएं पप्पू न बनने का दबाव डाल रही हैं। इस सारी मुहिम में पप्पू नाम वालों का क्या हुआ होगा मैं नहीं जानता पर यह जरूर समझ सकता हूं कि यह पप्पू साधारण नहीं है। बड़ी चाल है। और इसके पीछे वही गंदी राजनीति जान पड़ रही है।
जानता हूं कि वोट देना हक है और हर व्यक्ति को वोट देना चाहिए। लेकिन जिस तरह मतदाताओं पर जबर्दस्त दबाव बनाया जा रहा है वह पच नहीं रहा है। वोट लेने के लिए नेताओं ने पूरा प्रोपेगंडा रच डाला हैं। पप्पू कह कह कर मतदाता को इतना जलील करने की मुहिम चला दी है कि वह पप्पू शब्द से घृणा करने लगा है और इसी डर से की कहीं वह घृणित प्राणी न हो जाए वोट डालने जा रहा है। इसमें जागरूक करने की कौन सी बात है? यह तो सरासर डराना और धमकाना है। जिसमें सरकार से लेकर मीडिया तक शामिल है।
आखिर समझ नहीं आता यह पप्पू पप्पू क्या है। हर खास बनने की ललक वाला लंपट प्राणी पप्पू के नाम को भुना रहा है। जो भी चार पत्रकारों की प्रेस वार्ता का खर्चा उठाने में सक्षम है वह पप्पू का मसीहा बन बैठा है। वह मीडिया से जरिये अपील कर रहा है कि पप्पू मत बनिए। वोट देने वाले को वह दवाईयां मुफ्त देंगे। मुफत में बूट पोलिश करेंगे, मनोरंजन पार्काें और मल्टीप्लेक्स में छूट देंगे, बस वोट डालने जाओ। उनकी बात मानों क्योंकि वह अपील कर रहे हैं और अपील करने की उनकी हैसियत है। यह वही छपास के रोगी हैं जो मीडिया पर कुछ खर्च कर चमकने की लालसा रखते हैं और कामयाब भी होते हैं। इन सालों से पूछा जाए कि इनके घर के सदस्य कितने वोट देते हैं तो आंकड़ा शून्य ही निकलेगा। और छूट देना किस मानसिकता को उगाजर करता है वह भी साफ हैै। क्योंकि अमीर आदमी तो छूट के लालच में आएगा नहीं। इसका मतलब वह समझते हैं - पप्पू गरीब मतदाता है जो छूट के लिए और बूथ पोलिश के लिए वोट डालने आ जाएगा।
अफसोस इस बात का है कि इस परिस्थिति के लिए भी आम जनता को ही दोषी ठहराया जा रहा है। जिसके पास पैसा है वह जागरूक करने वाला बन बैठा है। जागरूकता की परिभाषा तय करने का मानक क्या है ? किसी को वास्ता नहीं। साथ ही आहत इस लिए भी हूं कि मतदाता पर सब चढ़ बैठे हैं। आखिर यह हालात पैदा किसने किए ? ऐसा कौन सा नेता है जिसे अपना मत दिया जा सके। खैर आप कहेंगे कि पप्पू न बनने के लिए फाॅर्म नंबर 17 इस्तेमाल किया जा सकता है। पर क्या यह सवाल खड़ा नहीं होता कि पांच साल के लिए चुन लिए जाने वाले नेताओं के लिए ऐसी मुहिम क्यों नहीं चलाई जाती। क्यों सरकार ऐसे विज्ञापनों का इस्तेमाल उन नेताओं के लिए नहीं करती जो पांच साल सत्ता सुख भोगने के बाद भी विकास की उपलब्धियोें में शून्य होते हैं। आज तक क्यों नेताओं के पप्पू बनने की बात का प्रचार नहीं हुआ। मीडिया, सरकार और खुद को जागरूक कहने वाले कथिक समाज सुधारक घोटाले करने वाले भष्ट्र नेताओं के लिए आगे नहीं आए। क्यों जनता को ऐसे नेताओं के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए जागरूक नहीं किया जाता है। और जनता को ही क्यों जागरूक किया जाए, क्या भला वही सोई है। इन बांगडू नेताओं को जागरूक क्यों नहीं किया जाता। जो सत्ता में आते ही टमाटर की तरह लाल हो जाते हैं और आसमान छूती कोठियों का स्वामी बन बैठता है। पप्पू बनने के लिए क्या महज मतदाता ही है। यह साजिश के अलावा और कुछ नहीं। पप्पू एक छलावा है जो नेताओं का बनाया हुआ पाप है। अपने पाप को छुपाने के लिए सरकार ने यह पप्पू पैदा किया है और मतदाताओं को उलझा कर फिर से अपना उल्लू सीधा किया है।
चंद स्वार्थी और खुद को दूसरे से ज्यादा जागरूक समझने वाले कथित लोगों ने वोट की ऐसी लहर चलाई कि पप्पू शब्द ही घृणित कर दिया। हर तरफ पप्पू न बनने की गूंज है। पप्पू मत बनिए वोट डालिए। आपका वोट सरकार बदल सकता है। लोकतंत्र में भागीदार बनो आदि इत्यादि। जैसे आप पप्पू बन गए तो इस धरती पर रहने के काबिल ही नहीं है। पप्पू होना दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह है। सरकार से लेकर खबरिया चैनल, बकबक करने वाले एफएम और पत्र-पत्रिकाएं पप्पू न बनने का दबाव डाल रही हैं। इस सारी मुहिम में पप्पू नाम वालों का क्या हुआ होगा मैं नहीं जानता पर यह जरूर समझ सकता हूं कि यह पप्पू साधारण नहीं है। बड़ी चाल है। और इसके पीछे वही गंदी राजनीति जान पड़ रही है।
जानता हूं कि वोट देना हक है और हर व्यक्ति को वोट देना चाहिए। लेकिन जिस तरह मतदाताओं पर जबर्दस्त दबाव बनाया जा रहा है वह पच नहीं रहा है। वोट लेने के लिए नेताओं ने पूरा प्रोपेगंडा रच डाला हैं। पप्पू कह कह कर मतदाता को इतना जलील करने की मुहिम चला दी है कि वह पप्पू शब्द से घृणा करने लगा है और इसी डर से की कहीं वह घृणित प्राणी न हो जाए वोट डालने जा रहा है। इसमें जागरूक करने की कौन सी बात है? यह तो सरासर डराना और धमकाना है। जिसमें सरकार से लेकर मीडिया तक शामिल है।
आखिर समझ नहीं आता यह पप्पू पप्पू क्या है। हर खास बनने की ललक वाला लंपट प्राणी पप्पू के नाम को भुना रहा है। जो भी चार पत्रकारों की प्रेस वार्ता का खर्चा उठाने में सक्षम है वह पप्पू का मसीहा बन बैठा है। वह मीडिया से जरिये अपील कर रहा है कि पप्पू मत बनिए। वोट देने वाले को वह दवाईयां मुफ्त देंगे। मुफत में बूट पोलिश करेंगे, मनोरंजन पार्काें और मल्टीप्लेक्स में छूट देंगे, बस वोट डालने जाओ। उनकी बात मानों क्योंकि वह अपील कर रहे हैं और अपील करने की उनकी हैसियत है। यह वही छपास के रोगी हैं जो मीडिया पर कुछ खर्च कर चमकने की लालसा रखते हैं और कामयाब भी होते हैं। इन सालों से पूछा जाए कि इनके घर के सदस्य कितने वोट देते हैं तो आंकड़ा शून्य ही निकलेगा। और छूट देना किस मानसिकता को उगाजर करता है वह भी साफ हैै। क्योंकि अमीर आदमी तो छूट के लालच में आएगा नहीं। इसका मतलब वह समझते हैं - पप्पू गरीब मतदाता है जो छूट के लिए और बूथ पोलिश के लिए वोट डालने आ जाएगा।
अफसोस इस बात का है कि इस परिस्थिति के लिए भी आम जनता को ही दोषी ठहराया जा रहा है। जिसके पास पैसा है वह जागरूक करने वाला बन बैठा है। जागरूकता की परिभाषा तय करने का मानक क्या है ? किसी को वास्ता नहीं। साथ ही आहत इस लिए भी हूं कि मतदाता पर सब चढ़ बैठे हैं। आखिर यह हालात पैदा किसने किए ? ऐसा कौन सा नेता है जिसे अपना मत दिया जा सके। खैर आप कहेंगे कि पप्पू न बनने के लिए फाॅर्म नंबर 17 इस्तेमाल किया जा सकता है। पर क्या यह सवाल खड़ा नहीं होता कि पांच साल के लिए चुन लिए जाने वाले नेताओं के लिए ऐसी मुहिम क्यों नहीं चलाई जाती। क्यों सरकार ऐसे विज्ञापनों का इस्तेमाल उन नेताओं के लिए नहीं करती जो पांच साल सत्ता सुख भोगने के बाद भी विकास की उपलब्धियोें में शून्य होते हैं। आज तक क्यों नेताओं के पप्पू बनने की बात का प्रचार नहीं हुआ। मीडिया, सरकार और खुद को जागरूक कहने वाले कथिक समाज सुधारक घोटाले करने वाले भष्ट्र नेताओं के लिए आगे नहीं आए। क्यों जनता को ऐसे नेताओं के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए जागरूक नहीं किया जाता है। और जनता को ही क्यों जागरूक किया जाए, क्या भला वही सोई है। इन बांगडू नेताओं को जागरूक क्यों नहीं किया जाता। जो सत्ता में आते ही टमाटर की तरह लाल हो जाते हैं और आसमान छूती कोठियों का स्वामी बन बैठता है। पप्पू बनने के लिए क्या महज मतदाता ही है। यह साजिश के अलावा और कुछ नहीं। पप्पू एक छलावा है जो नेताओं का बनाया हुआ पाप है। अपने पाप को छुपाने के लिए सरकार ने यह पप्पू पैदा किया है और मतदाताओं को उलझा कर फिर से अपना उल्लू सीधा किया है।
मंगलवार, 5 मई 2009
पत्रकारिता पर रोने के लिए दुखड़ा बदलो
राहुल कुमार
पत्रकारित्रा के छात्र जीवन में जितने भी नाम चीन पत्रकार हमें लेक्चर देने विश्वविद्यालय आते ज्यादातर अपनी संघर्ष की कहानी सुनाते थे। और छात्र अधिकांशतः एक ही सवाल पूछते- पत्रकारिता मिशन है या प्रोफेशन ? असल में मैं भी इस जाल में ऐसा फंस गया था कि हर संभव इसका जवाब ढूंढने की जुगत में लगा रहता। इसके अलावा छात्र जीवन के बाद अब नौकरी में दौरान भी गोष्ठी के नाम पर एकत्रित हुए बड़े पत्रकारों को भी एक दो विषयों से इतर बहस करते नहीं देखता हूं।
छात्र जीवन में ग्वालियर में कई गोष्ठियों में शामिल हुआ लेकिन मुद्दे हमेशा एक से ही पाए। पहला संपादक की सत्ता पर प्रबंधक का दवाब, दूसरा खबरों से ज्यादा विज्ञापन की बढ़ती अहमियत, और तीसरा भाषा का गिरता स्तर। जिसमें बड़े पत्रकारों का भाषा को लेकर रोना और सुधारने के लिए लंबी दुहाईयां और नए पत्रकारों को जमकर कोसना शामिल होता था। सौभाग्य से दिल्ली में भी एक गोष्ठी में शामिल होना का मौका जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार अमित प्रकाश जी के सहयोग से मिला। गोष्ठी का विषय था स्वतंत्रता के बाद पत्रकारिता के जोखिम और चुनौतियां। जिसमें देश के बड़े अखबारी और खबरिया चैनलों के पत्रकारों ने अपने मत रखे। गोष्ठी में हिंदी निदेशालय के निदेशक और दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग की प्रोफेसर भी शामिल थीं। इसके अलावा नवोदित पत्रकारों को भी बोलने का मौका दिया गया।
वक्तवों में भाषा, संपादक की सत्ता और विज्ञापन के प्रभाव जैसे मुद्दों के इर्द गिर्द ही सारी गोष्ठी के मत घूमते रहे। लेकिन पत्रकारिता की चुनौतियां और जोखिम और भी हैं। गोष्ठी में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर ने अपना महिला होने का धर्म निभाते हुए मीडिया पर स्त्री देह को इस्तेमाल करने बात कही। यह मुद्दा मेरे लिए नया तो नहीं पर गोष्ठी में किसी महिला से पहली बार सुना था। सो नया लगा।सोचता हूं कि गोष्ठियांे के पास क्या इन मुद्दांे, विषयों के लिए की गई बहसों के अलावा कुछ और नहीं होता। पत्रकारिता में भाषा गिरी है पर है तो, वह भी जनमानस के हिसाब से तब्दीली के साथ पनपी है। संपादक की सत्ता प्रभावित हुई पर वह भी अस्त्तिव में है। संपादक नाम का प्राणी आज भी खबरों का मुखिया और जवाबदेह है। वहीं खबरों और विज्ञापन में दोनों का महत्तव बराबर है। और जब तक पत्रकारिता रहेगी दोनों की बराबर अहमियत बनी रहने की संभावनाएं हमेशा जीवित रहेंगी।
लेकिन पत्रकारिता जिस बात से सबसे ज्यादा पतित हो रही है उस मुद्दे को कोई छूता ही नहीं है। मैं समझता हूं कि इस विधा के बगैर पत्रकारिता पूरी तरह लुप्त हो जाएगी। जिसपर किसी का ध्यान नहीं है। खासकर इसके बगैर पत्रकारिता बेहद मुश्किल व गुणवत्ता के साथ बना रहना कठिन है। जिस संस्कार से ही देश के बढ़े पत्रकार आज नाम कमा चुके हैं। उन्हीं का ध्यान अब इस संस्कार पर नहीं है। मैं बात कर रहा हंू गुरू शिष्य परंपरा की। जो आज की पत्रकारिता में खो चुकी है। कथित बड़ा पत्रकार न्यूकमर को अपने गुर देेने से इतना डरता है कि कुछ पूछते ही पत्रकारिता में आने की बात को ही दुर्भाग्य कह उठता है। अगर मजे पत्रकार नवोदित पत्रकारों को गुर नहीं देंगे तो कैसे यह पेशा गुणवत्ता के साथ बना रह सकता है। सभी जानते हैं कि प्रभास जोशी बने तो राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसे लोगों के बीच रहकर। साथ ही जनसत्ता जब अपने उफान पर था तो आज कई संस्थाओं के उच्च पदों पर बैठे बड़े पत्रकार यहीं पत्रकारिता के गुर सीखा करते थे। लुप्त हो चुके इस संस्कार से पत्रकारिता जरूर गलत दिशा में जा सकती है। गोष्ठियों में इस मुद्दे पर बहस करने वाले शायद ही मिले। लेकिन खुद को बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखने के लिए वह संपादक की सत्ता और भाषा के गिरते स्तर पर खूब हिचकियां भरते हैं। महोदय पत्रकारिता पर रोने के लिए और भी खूब मुद्दे हैं। पर इसके लिए जरा यथार्थ पर आना होगा। समय पर और जरूरत के हिसाब का वेतन मिलना भी बड़ा मुद्दा है ?
पत्रकारित्रा के छात्र जीवन में जितने भी नाम चीन पत्रकार हमें लेक्चर देने विश्वविद्यालय आते ज्यादातर अपनी संघर्ष की कहानी सुनाते थे। और छात्र अधिकांशतः एक ही सवाल पूछते- पत्रकारिता मिशन है या प्रोफेशन ? असल में मैं भी इस जाल में ऐसा फंस गया था कि हर संभव इसका जवाब ढूंढने की जुगत में लगा रहता। इसके अलावा छात्र जीवन के बाद अब नौकरी में दौरान भी गोष्ठी के नाम पर एकत्रित हुए बड़े पत्रकारों को भी एक दो विषयों से इतर बहस करते नहीं देखता हूं।
छात्र जीवन में ग्वालियर में कई गोष्ठियों में शामिल हुआ लेकिन मुद्दे हमेशा एक से ही पाए। पहला संपादक की सत्ता पर प्रबंधक का दवाब, दूसरा खबरों से ज्यादा विज्ञापन की बढ़ती अहमियत, और तीसरा भाषा का गिरता स्तर। जिसमें बड़े पत्रकारों का भाषा को लेकर रोना और सुधारने के लिए लंबी दुहाईयां और नए पत्रकारों को जमकर कोसना शामिल होता था। सौभाग्य से दिल्ली में भी एक गोष्ठी में शामिल होना का मौका जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार अमित प्रकाश जी के सहयोग से मिला। गोष्ठी का विषय था स्वतंत्रता के बाद पत्रकारिता के जोखिम और चुनौतियां। जिसमें देश के बड़े अखबारी और खबरिया चैनलों के पत्रकारों ने अपने मत रखे। गोष्ठी में हिंदी निदेशालय के निदेशक और दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग की प्रोफेसर भी शामिल थीं। इसके अलावा नवोदित पत्रकारों को भी बोलने का मौका दिया गया।
वक्तवों में भाषा, संपादक की सत्ता और विज्ञापन के प्रभाव जैसे मुद्दों के इर्द गिर्द ही सारी गोष्ठी के मत घूमते रहे। लेकिन पत्रकारिता की चुनौतियां और जोखिम और भी हैं। गोष्ठी में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर ने अपना महिला होने का धर्म निभाते हुए मीडिया पर स्त्री देह को इस्तेमाल करने बात कही। यह मुद्दा मेरे लिए नया तो नहीं पर गोष्ठी में किसी महिला से पहली बार सुना था। सो नया लगा।सोचता हूं कि गोष्ठियांे के पास क्या इन मुद्दांे, विषयों के लिए की गई बहसों के अलावा कुछ और नहीं होता। पत्रकारिता में भाषा गिरी है पर है तो, वह भी जनमानस के हिसाब से तब्दीली के साथ पनपी है। संपादक की सत्ता प्रभावित हुई पर वह भी अस्त्तिव में है। संपादक नाम का प्राणी आज भी खबरों का मुखिया और जवाबदेह है। वहीं खबरों और विज्ञापन में दोनों का महत्तव बराबर है। और जब तक पत्रकारिता रहेगी दोनों की बराबर अहमियत बनी रहने की संभावनाएं हमेशा जीवित रहेंगी।
लेकिन पत्रकारिता जिस बात से सबसे ज्यादा पतित हो रही है उस मुद्दे को कोई छूता ही नहीं है। मैं समझता हूं कि इस विधा के बगैर पत्रकारिता पूरी तरह लुप्त हो जाएगी। जिसपर किसी का ध्यान नहीं है। खासकर इसके बगैर पत्रकारिता बेहद मुश्किल व गुणवत्ता के साथ बना रहना कठिन है। जिस संस्कार से ही देश के बढ़े पत्रकार आज नाम कमा चुके हैं। उन्हीं का ध्यान अब इस संस्कार पर नहीं है। मैं बात कर रहा हंू गुरू शिष्य परंपरा की। जो आज की पत्रकारिता में खो चुकी है। कथित बड़ा पत्रकार न्यूकमर को अपने गुर देेने से इतना डरता है कि कुछ पूछते ही पत्रकारिता में आने की बात को ही दुर्भाग्य कह उठता है। अगर मजे पत्रकार नवोदित पत्रकारों को गुर नहीं देंगे तो कैसे यह पेशा गुणवत्ता के साथ बना रह सकता है। सभी जानते हैं कि प्रभास जोशी बने तो राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसे लोगों के बीच रहकर। साथ ही जनसत्ता जब अपने उफान पर था तो आज कई संस्थाओं के उच्च पदों पर बैठे बड़े पत्रकार यहीं पत्रकारिता के गुर सीखा करते थे। लुप्त हो चुके इस संस्कार से पत्रकारिता जरूर गलत दिशा में जा सकती है। गोष्ठियों में इस मुद्दे पर बहस करने वाले शायद ही मिले। लेकिन खुद को बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखने के लिए वह संपादक की सत्ता और भाषा के गिरते स्तर पर खूब हिचकियां भरते हैं। महोदय पत्रकारिता पर रोने के लिए और भी खूब मुद्दे हैं। पर इसके लिए जरा यथार्थ पर आना होगा। समय पर और जरूरत के हिसाब का वेतन मिलना भी बड़ा मुद्दा है ?
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