राहुल कुमार
किसने जाना था कि देश का वह भू- भाग जो सबसे पहले संवैधानिक रूप से पंचायती राज व्यवस्था में विश्वास दिखाएगा, उसे अपनाएगा, उसके बाशिंदे कुछ सालों में ही उस प्रजातांत्रिक भावना को चंद सिक्को की चमक में खो देंगे। विकास और सहभागिता की प्रथा दबंगई के असर से दबकर और प्रतिष्ठा से जुड़कर दम तोड़ती नजर आने लगेगी। प्रदेश में ग्राम पंचायत व्यवस्था की हालात बदतर हो चुकी है।
राज्य चुनाव आयोग के कई प्रयासों के बावजूद प्रदेश में पंचायतों का बिकना जारी है। नोटों की हरियाली से गांव की खुशहाली खरीदी ली है। हाल ही में संपन्न् हुए पंचायती चुनाव में यह खूब देखने को मिला। कितनी ही पंचायतें बिकीं। चंद कागजों के टुकड़ों की खातिर देश को लोकतंत्र की दहलीज तक लाने वाले हजारों शहीदों की कुर्बानियां सत्तालोलुप और लालचिओं के सामने व्यर्थ साबित हो रही हैं।
देश में विकास के नए कीर्तिमान बनाने और एक धारा में विकास करने के लिए बलवंत मेहता कमेटी की सिफारिश पर त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू की गई। मध्य प्रदेश देश का पहला सूबा बना जिसने सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था 1993 में लागू की। ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत और जिला पंचायत जैसे तीन स्तरों पर सदस्यों का चुनाव होने लगा। और उसके बाशिंदे को ऐसे लोगों को चुनने का अवसर प्रदान किया गया जो उनके बीच के हों। उनका हित जानते और चाहते हों। लेकिन यह सुनहरा ख्वाब हकीकत में नहीं बदल पाया।
ढेरों मौके हैं, बेहतर संसाधन हैं और विकास की बाट जोहती पथराई आंखें भी हैं। लेकिन सरकार द्वारा प्रदत्त पैसों को अंटी में दबाने की होड़ में पंचायती राज व्यवस्था सबसे भ्रष्ट और काली कमाई की चौपाल बनकर रह गई है। गांवों का पिछड़ापन जस का तस है। और इस अंधी दौड़ में सत्ता पर काबिज पार्टियां भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं।
मध्यप्रदेश में हाल ही में 22931 ग्राम पंचायत, 313 जनपद पंचायत और 48 जिला पंचायत के लिए चुनाव संपन्न् हुए। जिसमें अब तक की सबसे बदहाल हालात दिखी। चुनाव को बाहुबली और धनाढ्य उम्मीदवारों ने प्रतिष्ठा और शोहरत से जोड़कर कई पंचायतों को खरीद लिया। उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ खड़े सदस्यों को पैसा देकर बिठा दिया और चुनाव निर्विरोध संपन्न् करा लिया। तर्क था कि जितना पांच साल में कमाओगे उतना एक बार में ही ले लो।
प्रदेश के सबसे विकसित संभाग इंदौर, ग्वालियर, भोपाल, जबलपुर आदि में तकरीबन एक दर्जन से अधिक पंचायतों के बिकने की खबरें प्रकाश में आईं। जबकि ऐसी कई पंचायतें हैं जिनकी जानकारी मीडिया तक नहीं पहुंच पाई। मीडिया ने मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। लेकिन सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई। न ही कोई जांच बिठाई गई।
जनपद व जिला पंचायत के अध्यक्ष के चुनाव में भी प्रत्येक सदस्य को 15 से 20 लाख रुपए बतौर वोट खरीदने के लिए दिए गए। साक्ष्यों के साथ मीडिया ने खबरें छापी। लेकिन सरकार तब भी चु'पी साधकर तमाशबीन बनी रही। बल्कि सत्ताधारी पार्टी ने अपने पार्टी सदस्यों को विजयश्री दिलवाने के लिए पार्टी फंड तक से पैसे दिए। शिवपुरी जिले में जिला पंचायत के सदस्य को आठ लाख रुपए व एक स्कार्पियो गाड़ी खुलेआम दी गई।
उम्मीदवारों द्वारा लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए गए। और अब जीतने के बाद उसी तर्ज पर दोगने-चौगुने कमाए जाने की जुगत में हैं। एक तरह से सीधा सौदा हुआ। जितना लगाया, उससे दोगुना कमाया। चुनाव के दौरान पंचायत व्यवस्था लोगों की नजर में सत्ता विकेंद्रीकरण व प्रजातांत्रिक सोच नहीं बल्कि धन कमाने का एक बेहतर व्यवसाय बनती दिखाई दी।
महात्मा गांधी का सपना पंचायती राज बदहाल है। उसी मध्य प्रदेश में जिसने सबसे पहले इसे संवैधानिक रूप से अपनाया। इस बार के चुनाव से साफ दिखा कि इस व्यवस्था के सही उद्देश्य में न तो सरकार की गंभीरता है और न ही बाशिंदों की रूचि। आखिर प्रजातंत्र को दौलत की चमक से कब तक चकाचौंध किया जाएगा ?