गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

साल के जाते-जाते

राहुल कुमार

चार अंकों का साल जाने को है। और चार अंकों का ही आने वाला। बस एक नंबर बढ़ गया है। हमेशा की तरह। इस बात से बेखबर की नया क्या है। लोगों में बेहद खुशी है। चारांे तरफ चिल्ल पों है। शोर शराबा। नए साल के स्वागत में लोग पागल हुए जा रहे हैं। सब की अपनी अपनी खुशियां और योजनाएं हैं। नए कपड़ों, नए स्थलों, नए आइडिया, नया करने के जोश के साथ। नए साल का स्वागत।

नए साल के पहले दिन सभी नया करने को बेताब हैं। लेकिन नया क्या किया जाए। परेशान हैं। बावजूद सब वही पुराने ढर्रे पर चल पड़े हैं। रात भर जाम के नशे में चूर होंगे। सुबह सूरज चढ़ने के बाद ही आंख खोलेंगे। जाम और थिरकन का खुमार बाकी रहेगा। साल के जाते जाते ज्योतिषी भी चीख रहे हैं। सभी राशियों का भाग्य तय कर रहे हैं। कौन नए साल में किस तरह की तरक्की पाएगा। लेकिन फिलहाल लोग जाम के नशे में नववर्ष सेलीब्रेट करने को बेताब हैं। झूमने को लालायित।

लेकिन सोचता हूं दिन का ढलना, शाम का चढ़ना, रात का मुब्हम अंधेरा, और फिर सुबह की विजयी मुस्कान। सब कुछ वैसी ही होगी जैसी है। और हमेशा से रही है। प्रकृति ने कभी खुद को नहीं बदला। रात की तन्हाईयों में सुबह के इंतजार में करवटें बदलने ने अदा नहीं बदली। सालों से वही हैं। दोपहर का बीतना। महीनों का आना-जाना। ऋतुओं का बदलना। दिन का उतार-चढ़ाव। रात का बढ़ना-ढलना। शाम का सहरा। सब कुछ हमेशा की तरह। वैसा ही बना रहेगा।

तो फिर सवाल कुलांचे मारता है कि नया क्या है नए साल में ? नए कपड़े पहनना ? नए तरीके से नाचना ? अच्छा खाना ? अच्छी शराब ? आखिर क्या ? शायद यह कि कुछ पुराने चेहरे से नाता तोड़ कर नए से रिश्ता गांठना ?

ऐसे में अपुन ने तय किया है कुछ नया करने का कोई संकल्प नहीं लेना है। जो सामने आएगा देखा जाएगा। साहस के साथ मुखाबित होंगे। हर अच्छे-बुरे से। जीवन की विसात पर शह और मात का खेल खेला जाएगा। बने बनाए सांचे से इतर। जाते साल को सलाम करते हुए नए साल के इंतजार में अपुन भी हैं। जाते साल का दिया अच्छा-बुरा लिए दबे पांव लेकिन उछलते कूदते नए साल में जाने को तैयार। डूबते साल ने बहुत कुछ दिया। इसलिए शुक्रगुजार हंू उसका। जीवन में कुछ खास जोड़ने वाला। नए साल से ढेरों उम्मीदें हैं। जीवन को खास बनाने और तराशने वालीं। पूरे साहस के साथ तैयार हूं। नए साल के लिए। आओ। और देखें इस विसात पर कौन शह खाता और कौन मात। क्या पाना है और क्या खोना।

आप सभी को भी नववर्ष की पहली किरण के साथ ढेर सारी खुशियां मिलने की कामना करता हूं। सभी का शौर्य, साहस, उत्साह, बना रहे। सभी संकल्प जो ले लिए हैं पूरे हो। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ। बाकी सब नए साल में।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

एक संस्मरण : खो गई, वो पहली सी वैदेही

राहुल कुमार
जैसे ही स्टेषन से बाहर निकला कि पूस माह की ठंडी हवा कमीज को भेदते हुए सीधे सीने में चुभने लगी। पहले ही झटके में समझ गया कि स्टेषन पर सुबह तक इंतजार करना सेहत के लिए ठीक न होगा। सो टैक्सी स्टैंड पर फोन लगाकर एक बुलेरो गाड़ी मंगवा ली। और उसमें बैठ कर सीधे अपने घर दिनारा की ओर चलना तय किया। मैं करीब चार महीने बाद घर वापस लौट रहा था। लेकिन किराये की बुलेरो से रात में जाने का यह पहला मौका था।
तकरीबन 25 मिनट के बाद ही दिनारा की दहलीज में हम दाखिल हो गए। बातों बातों में पता चला कि चालक दिनारा कस्बे का ही है। लेकिन मैं परिचित नहीं था। पिता जी का नाम बताते ही उसने चहक कर कहा था आप दिल्ली में रहते हो। गाड़ी कस्बे के पहले मकान को ही लांघी थी कि दसवीं कक्षा का वह रिष्ता याद आ गया जो आज भी गुदगुदाता है। और जिसकी खबरें मुझे टुकड़ों टुकड़ों में जवानी तक मिलती रही थीं। वैदेही का वह तीखा नाक नक्ष और सुंदर बादामी गोल बड़ी-बड़ी आंखों वाला चेहरा मेरे सामने घूमने लगा। वैदेही और मैं अंग्रेजी का ट्यूषन सक्सेना मास्साब के यहां पढ़ते थे। वैदेही अपनी सुंदरता के चलते जल्दी ही गली मोहल्ले और स्कूल के लड़कों की नजर में आ गई थी। और हर कोई उससे दोस्ती बढ़ाने और रिष्ता गांठने की फिराक में रहता था। वैदेही से मेरा रिष्ता दो तरह से था। एक तो हम दोनों के पिता एक ही स्कूल मंे षिक्षक थे। दूसरे, मैं जब भी ट्यूषन के लिए लेट हो जाता तो वह मेरा कागज नोट्स के लिए मास्साब के कागज और कार्बन पेपर के नीचे लगा देती थी। ट्यूषन खत्म होने के बाद मुझे पता चलता कि मेरा कागज भी मास्साब की नत्थी मंे था। इससे अधिक वैदेही से मेरा कोई रिष्ता कभी नहीं रहा। अपने संकोची स्वाभाव के चलते मैं न तो कभी उससे बात कर सका और न निगाह भर देख सका। बस सुनता था कि वह बला की खूबसूरत है। और इतनी सुंदर है कि पूरी तहसील में उसके मुकाबले लड़की नहीं।
वैदेही का झुकाव ही था कि मैं अन्य लड़कों की नजर में खास बन गया था। लड़के हरसंभव मेरी सोहबत करना चाहते। करीब आकर मुझे बहलाने और दोस्ती गांठने की कोषिष में रहते। मेरी आवाभगत करते। गर्मजोषी से स्वागत करते हुए हाथ मिलाते। इनमें दो लड़के जीतेंद्र और अनिल वैदेही की वजह से ही मेरे दोस्त बने थे। वह वैदेही की तरफ झुकाव रखते थे और मुझ पर लगाम लगाना चाहते थे। लेकिन मैं पहले ही अपने स्वाभाव के चलते इन सब मामलों मंे पड़ने वाला नहीं था।
जीतेेंद्र और अनिल की दांत काटी दोस्ती थी। ऐसी की एक दूसरे के बगैर कोई काम न करते। दोनों ने तय किया कि वैदेही की अन्य लड़कों से रक्षा करेंगे और उसे अपना बना कर रहेंगे। वैदेही के मन में क्या था मैं कभी नहीं जान सका। दोनों दोस्त बड़े चालक थे। पहला यानी अनिल वैदेही का दोस्त बन गया और दूसरा यानी जीतेंद्र उसका प्रेमी बन बैठा। दसवीं की परीक्षा नजदीक आ गई थी। मैं पढ़ाई में मषगूल हो गया। परीक्षा खत्म होते ही मुझे ग्वालियर भेज दिया गया। और बाकी पूरी पढ़ाई ग्वालियर में ही की। दिनारा आना जाना लगा रहा।
जब भी ग्वालियर से दिनारा आता तो जीतेंद्र और अनिल से मुलाकात हो जाती। और बातों बातों में अन्य लोगों से कभी कभार वैदेही, अनिल व जीतेंद्र के किस्से सुनने को मिलते रहते। इसी बीच सुना था कि अनिल को किसी ने वैदेही के घर के सामने 12 बार चाकू मारकर कत्ल कर दिया। जीतेंद्र ने जहर खाकर आत्महत्या करनी चाही। पहली बार बच गया। पर दूसरी बार में सफल हो गया। वैदेही की कोई सूचना नहीं थी। इसलिए मैं वैदेही का हाल जानने के लिए उतावला रहता। खुलकर किसी से पूछ भी नहीं सकता था। लेकिन आज जैसे ही गाड़ी गुप्ता जी के घर के सामने पहुंची। मैंने ड्राइवर से पूछा ही लिया, भाई ये बताओ कि गुप्ता जी के परिवार के क्या हाल चाल हैं। वह बुझी सी आवाज में बोला ठीक ही हैं। मैं चुप हो गया। फिर कुछ देर बाद हिम्मत करके पूछा, गुप्ता जी के एक बेटी थी न, उसके क्या हाल चाल है। कहीं शादी बादी हो गई या अभी भी पढ़ लिख रही है। अब चालक ने झटके से मेरे ओर देखा। और कड़क आवाज में बोला क्या बाबूजी लड़की थी या बबाल, खुद तो बर्बाद हो ही गई। तीन परिवारों को और ले डूबी। उसकी करनी ने ऐसा ताडंव मचाया कि दो लड़के तो मारे ही गए। खुद भी पागल हो गई। अब परिवार वाले उसके पागलपन का इलाज कराते फिर रहे हैं। कभी नेपाल भेजते हैं, कभी आगरा और कभी दिल्ली। सुनते हैं अभी दिल्ली में ही है।
चालक ने गाड़ी वैदेही के घर के सामने रोक दी। बोलना जारी रखा और जो घटा, कह सुनाया। कस्बाई जिंदगी का जो सच उसके मुंह से सुना, मैं स्तब्ध रह गया।
उसने बताया कि अनिल और जीतेंद्र दोनों वैदेही के इश्क में पड़ गए थे। इनमें से अनिल वैदेही दोस्त था। और जीतेंद्र वैदेही का प्रेमी। अनिल, वैदेही और जीतेंद्र के मिलने का स्थान व समय तय करता। वह दोनों की हरसंभव मदद करता। दोनों के बीच की अहम कड़ी बन गया। और दोनों के लिए बेहद खास। अनिल ने वैदेही के भाई से भी अच्छी दोस्ती गांठ ली थी। और घर पर आना जाना शुरू कर दिया था। जीतेंद्र के प्रेम पत्र भी वही लिखता और वैदेही तक पहुंचाने का काम भी उसी के जिम्मे था। वैदेही जीतेंद्र के साथ अनिल से भी पूरी तरह से खुली गई थी। दोनों घंटों बात करते रहते।
फिर न जाने क्या हुआ कि अनिल और जीतेंद्र में बिगड़ने लगी। शायद जीतेंद्र को अनिल का वैदेही के बेहद करीब होना चुभने लगा था। और वह अनिल पर शक भी करने लगा था। जीतेंद्र के अन्य दोस्त भी पीठ पीछे उसके कान भरने लगे थे। इस बात से वैदेही और अनिल दोनों बेखबर थे। फिर एक दिन अनिल और जीतेंद्र के बीच जमकर मारपीट हुई। जीतेंद्र का भाई इलाके का गुंडा था। फिर एक दिन अनिल को वैदेही के घर के सामने ही चाकू मारकर कत्ल कर दिया। जीतेंद्र के भाई ने उसे मारवा दिया था। और तभी से फरार चल रहा है। वैदेही इस बात से बेहद दुखी हुई और जीतेंद्र से दूरी बनाने लगी।
जीतंेद्र का शक और भी बढ़ गया। वैदेही से मिलने की जिद पर अड़ गया और एक दिन उसके घर पहंुच गया। दोनों के प्यार की बात घर वालों को पता चल गई। घरवालों ने वैदेही की जमकर पिटाई की। और शादी करा देना मुनासिब समझा। कुछ दिनों में ही उसकी शादी पक्की कर दी। वैदेही शादी नहीं करना चाहती थी। उसने जीतेंद्र को सब बता दिया। और कहा कि अब हम नहीं मिल सकते। जीतेंद्र को सदमा लगा। वह वैदेही को नहीं खोना चाहता था। और वैदेही से शादी करने की जिद करने लगा। वैदेही लोक लाज के डर से कोई बड़ा कदम नहीं उठा पा रही थी। अंत में जीतेंद्र ने जहर खाकर आत्महत्या करनी चाही। बच गया। लेकिन जब वैदेही को किसी भी सूरत में पाने की उम्मीद न रही तो फिर जहर खा लिया। और इस बार वह बच न सका। जीतेंद्र की मौत की खबर पाकर वैदेही एकदम टूट गई। और लगभग विक्षिप्त सी हो गई। कई महीनों उसने अन्न-जल छुआ तक नहीं। अपना प्यार खो जाने के बाद वह पत्थर की बुत बन कर रह गई। वह जीतेंद्र को नहीं भुला पाई। वैदेही की इस हालत में न तो शादी हो सकती है और न वह खुश रह सकती है। इसकारण घर वाले उसका इलाज कराते फिर रहे हैं।
कस्बाई जिंदगी की यह प्रेम कहानी सुनकर मेरा मन कचोट गया। आखिर तीन हंसती खेलती जिंदगियां स्वाहा हो गई। जीतेंद्र ने संकीर्ण दिमाग के चलते अपना दोस्त खो दिया। और वैदेही के परंपरावादी परिजनों ने जीतेंद्र से उसकी शादी न कर दोनों को जीते जी मार डाला। मैं ऐसे ही विचारों में खोया था कि अचानक वैदेही के घर के सामने एक चार पहिया गाड़ी आकर रूकी। गाड़ी से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति और एक जवान लड़का बाहर निकला। फिर दोनों ने गाड़ी का दरवाजा खोलकर एक लड़की को उसकी एक-एक बांह पकड़कर बाहर निकाला। तभी चालक ने ईशारा करते हुए कहा- यही है वैदेही। शायद दिल्ली से परिवार सहित वापस लौटी है। उसके पिता और भाई ने उसे पकड़ा है। और उसी गाड़ी से आए हैं जिससे आप आए हैं। मैं गौर से वैदेही की हालत देखने लगा। आज पहली बार वैदेही को निगाह भर के देखा है। लेकिन अफसोस वह पहली सी वैदेही नहीं रही। हंसती-खिलखिलाती और हमेशा पढ़ाई में अव्वल आने वाली वैदेही। जिसकी खातिर मैं जानबूझकर ट्यूशन पांच मिनट देरी से जाता था।

रविवार, 20 दिसंबर 2009

परेशानी में है अखबार

राहुल कुमार

एक अखबार बेहद परेशान हैं। परेशानी ऐसी की उसकी जान निकल रही है। वह चिंतित है। व्याकुल है। और सोच में डूबा हुआ है। परेशानी से निजात पाने के लिए वह कई कथिक विशेषज्ञों, कुछ बांगडूओं और कुछ ऐरे गैरे नत्थूखैरोें से सलाह लेता फिर रहा हैै। बहस करा रहा है। और अपने सोलह पेज में से कभी पूरा पेज, कभी आधा और तो कभी चार, तीन, दो काॅलम में बहस का हिस्सा छाप रहा है। सामाजिक सरोकार ऐसा कि सभी पाठकों से राय भी ले रहा है। अपनी समस्या जगजाहिर कर रहा है। समस्या भी विकराल है। जो मानवजाति के इतिहास में पहली बार आ धमकी है। अखबार के गले की फांस बन बैठी है।

रोजाना की तरह ही 31 दिसंबर की शाम सूरज डूबेगा और 1 जनवरी की सुबह उदय होगा। प्रकृति के बंधे बंधाये नियम के मुताबिक। लेकिन यही पल अखबार को सासंत में डालने वाला बन गया है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर नए साल को क्या कहें। उसे ट्वेंटी टेन से नवाजें, टू थाउजेंट टेन कहें या फिर टू टेन पुकारें। उसके रिपोर्टर कैंपस मंे स्टूडेंट को पकड़ रहे हैं। जो मिल जाता है चढ़ बैठतेे हैं और पूछ लेते हैं। नए साल को क्या कहें। लेकिन कमबक्त परेशानी है कि जाने का नाम नहीं ले रही। और इस तिलिस्म भरी समस्या से जूझने वाला अखबार कोई और नहीं, खुद को देश की राजधानी का सबसे लोकप्रिय कहने वाला पत्र है।

अखबार की इस गंभीरता पर अपुन कायल हो गए। देख रहे हैं कि जैसे वह समस्या के निदान के लिए अखबार का भरपूर स्पेस दे रहा है। जो स्पेस उसने कभी गरीब, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बेरोजगारी व अन्य सामाजिक समस्याओं पर नहीं दिया। कभी इनके लिए युद्ध स्तर पर ऐसा अभियान नहीं छेड़ा। और आज भयानक समस्या दिखी तो वह कैसे चिंतित हो उठा। कैसे उसने अपने सबसे जिम्मेदार पत्र होेने की इत्तला कर दी। और कैसे समस्या का हल ढंूढ़ने के लिए विशेषज्ञों की चैपाल बिठा ली। आखिर राजधानी का सबसे बड़े अखबार होने का गौरव ऐसे ही थोड़े मिल जाता है। त्याग करना होता है। मुद्दों को समझने की पारखी नजर और उन पर सटीक जानकारी देने दी अद्भुत कला का धनी होना होता है। बेहद काबिले तारीफ है कि पत्र ने अन्य छुटपुट समस्याओं से पाठकों का ध्यान हटाकर इतिहास की सबसे बड़ी व विकराल समस्या की ओर कितनी कलात्मकता से ध्यान आकर्षित कर दिया। मुरीद न हो तो क्या हो।

खैर वो बात और कि अखबार की समस्या का हल हो भी जाए, लेकिन प्रकृति का असंतुलित होना रूकने वाला नहीं। हर छह बच्चों में भूख से मरने वाले उस एक बच्चे को भरपेट भोजन मिलने वाला नहीं। लोगों को कमजोर कर उनकी कमजोरियों को सियासी रंग देकर सत्ता पर काबिज होने की कायरता रूकने वाली नहीं। बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर सड़कों पर चप्पल चटकाते युवाओं को रोजगार मिलने वाला नहीं। बीसों साल से न्याय के लिए कोर्ट के चक्कर काटते गरीब को न्याय नहीं। रोटी, मकान, सड़क, बिजली, पानी समस्याओं मंे कोई विकास नहीं। धर्म के नाम पर लूटने वाले मठाधीशों का बाल भी बांका नहीं। कई वादों में बिखरे देश को और नए वाद पैदा कर बांटने वालों पर कोई आंच नहीं। गुंडों और बाहूबलियों पर कोई अंकुश लगने वाला नहीं है। जब नये साल में कुछ भी नया होने वाला नहीं है तो क्यों न नये साल को नया नाम देकर ही मन भर लिया जाए। और नयेपन का अहसास कर लिया जाए। आखिर अन्य मुद्दांे के लिए क्या लड़ना। और इस शांतिप्रिय देश में लड़ने की बात भी क्या करना। जब अखबार की ये दूरदृष्टि समझ मंे आई तो खुद को कोसे बिना हम नहीं रह सके। कितने बेवजह के मुद्दों पर नजर गड़ाए बैठा रहता हूं। असल मुद्दा तो यहां था। जिस पर ध्यान ही नहीं गया। वो तो इस अखबार को भला हो। वरना दिल्लीवासी कहीं के नहीं रहते। अखबार की इस चिंता पर अगर सारी मीडिया गंभीर हो उठे तो कोई परेशानी ही न रहे।

पर वो बात दूसरी है कि नये साल का सूरज भी अपनी किरणों में किसी तरह की कोई तब्दीली करने वाला नहीं।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

नाइट क्लब में डांस पे चांस....

राहुल कुमार
लगातार आ रहे आॅफरों को कई बार ठुकराने के बाद, न जाने क्यों इस बार नाइट क्बल का रूख कर ही लिया। देखें तो भला रात की सुकून भरी नींद गवाने और उछले-कूदते, बांहों में बांहें डालने के पीछे लोगों का फलसफा क्या हैै। सो, दो साथियों के प्रवेश को एक फोन घुमाकर पक्का कर लिया। अकेले जाना मुनासिब न समझा। अपुन खांटी देसी आदमी, उस पर खराब मैनेजर। लेकिन अफसोस की बाकी दो भी अपुन जैसे ही। पर अच्छे मैनेजर। अब जाना है तो जाना है। मन बन गया है। और फिर तय कर दिया रात में मदहोश होती जवानियों के थिरकते कदमों से कदम मिलाने का समय। रात 11 बजे।
दोनों भाई लोग अपनी तरह अर्थशास्त्र में कमजोर। उम्र में बड़े। मुझसे खर्च भी नहीं करा सकते। एक की पगार हाल ही में मिली है। प्रवेश मुफ्त है। लेकिन पीने का खर्चा बहुत। पूरी पगार जेब में रख ली है। बहुत कुछ पीकर गए हैं। ताकी क्लब में और न पीना पड़े। लेकिन पीना तो पड़ेगी ही। रात जवान होगी और शराब उतरती-चढ़ती रहेगी। एक ने बहुत पी है। मैंने उससे कम और एक ने मुझसे भी कम। क्योंकि उसकी गर्लफ्रैंड का फोन आ जाता है। वह डरता है। अपनी अभी-अभी जुदा हो गई। टेंशन खत्म। पहले फोन आता था। तब पीते भी नहीं थे।
क्लब में जोड़े के साथ प्रवेश है। लेकिन अपनी चलती है। तीन का जोड़ा है। वो भी मस्ती में। भाईयों के साथ प्रवेश करते हैं। मुंबई से बैंड आया है। बहुत पाॅपुलर है। कानों में डीजे की धमक के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। सारा शरीर लगभग डीजे बन गया है। पूरा डांस फ्लोर थिरक रहा है। हम भी। सामने बार काउंटर है। जो भी पीना हो, पैसे दो और पिओ। पटियाला, टकीला, काॅकटेल, बीयर, बिस्की, रम, वोदका कुछ भी। लड़कियों के हाथों में बीयर की बोतल है। कुछ काउंटर पर टकीले पे टकीला पिये जा रही हैं। वोदका उन्हें खूब पसंद आ रही है। सब पुरुषों मित्रों के साथ हैं। बांहों में बांहे और लगभग सांसो में सांसे डाले हुए। चेहरे से खानदानी कम, रहीस ज्यादा हैं। बहुत कुछ पहना है फिर भी बहुत कुछ दिख रहा हैै। भाई इशारा करता है। अपुन पहले से ही देख रहे हैं।
रात जैसे-जैसे बढ़ती है। हरकतें भी बढ़ती जा रही हैं। पहले महज डांस हो रहा था। लेकिन अब और भी बहुत कुछ। जिन्होंने क्बल में ही पी है, वह अब बहकने लगे हैं। इसलिए हरकतें भी बढ़ गई हंै। पास वाला जोड़ा परेशान है। लड़का बार-बार किस लेना चाहता है। लड़की चेहरा फेर लेती है। बांहों में बांहें हैं पर होंठ.....जाने दीजिये। वह नखरे कर रही है। शायद बाद में किस देगी। देना नहीं होता तो रात को क्लब में ही क्यों आती। खैर।
भाई लोग पूरी बाराती स्टाइल में फ्लोर पर हाथ-पैर फड़फड़ाने लगे हैं। अपुन को थोड़ा बहुत थिरकना आता है। फ्लोर पर भीड़ बहुत है। सब नशे में चूर हैं। पता नहीं कौन किसके साथ आया है। जो मिलता है, उसी के साथ डांस पर चांस मारा जा रहा है। कौन कहेगा अपुन बगैर गर्लफ्रैंड के आए हैं। आसपास कई गोपियां कमर मटका रही हैं। कई बार स्पर्श का आनंद भी मिल जाता है।
करीब एक घंटे बाद एक जोड़ा थक पर सोफे पर लेट जाता है। अपनी पार्टी भी थक गई है। सोफे पर बैठने पहुंच जाते हैं। अंधेरा काफी है। फ्लोर पर चमक रही लाल पीली बत्ती से कुछ कुछ दिखता है। देखकर लगा शायद अब रात पूरी तरह जवान हुई है। कई जोड़े हैं वहां। पर हम वहां से निकल लेते हैं। कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। भाई सिगरेट का पूरा पैकेट लेकर आया है। सुलगा लेते हैं।
कुछ सुस्ताते हैं। भाई इशारा करता है। क्योंकि कान मुंह के कितने भी पास हो आवाज सुनाई नहीं दे रही है। तीन लड़कियां हमारी तरह अकेली खड़ी हैं। शायद पार्टनर की तलाश में हैं। दोस्त आॅफर करने की बात करता है। अपुन को डर लगता है। साफ इंकार कर देते हैं। वह कुछ पास आतीं हैं। मुस्कुराती हैं। कुर्सियों पर बैठ जाती हैं। उनके हाथ में भी सिगरेट हैं। भाई डांस पर चांस मारने का चांस उन्हें देता है। वह राजी हो जाती हैं। मस्ती दुगुनी हो चली है। भाई वेस्ट आॅफ लक वाला अंगूठा दिखाता है। अब अपुन भी एक के साथ फ्लोर पर पहुंच जाते हैं।
कदमों के साथ कदम मिल गए हैं। मुझे घबराहट है। वह बिंदास है। मैं उसके कान में चिल्लाता हूं हाॅस्टल मंे रहती हो क्या ? वह डांस करते करते सिर हिला देती है। तभी जादू है नशा है..... बज उठता है। वह करीब आ जाती है। कब उसका हाथ मेरी कमर में आ जाता है पता नहीं। और मेरा भी। यह भी पता नहीं। सोणी केे नखरे सोणे लगदे.... बजते ही वह दूर हो गई है। पूरे जोश के साथ नाचने लगी है। अपुन फ्लोर छोड़कर कुर्सियों पर आ बैठते हैं। भाई लोग मस्त हैं। मेरा ख्याल उन्हें अब नहीं है।मैं उन्हें बुलाता हूं। और उपर वाले फ्लोर पर जाने के लिए कहता हूं। तीनों जाते हैं लेकिन बड़े कद वाला बाउंसर खड़ा है। वह रोक देता है। कहता है उपर कुछ नहीं है। जाना मना है। डांस नीचे ही करो। हम नादान नहीं हैं। जानते हैं उपर क्या है पर जाना भी नहीं चाहते। क्योंकि यह सब जानते हैं।
मन पूरी तरह उब चुका है। दम घुटने लगा है। ज्यादातर जोड़ियां थक कर बैठ गई हैं। कुछ लेट गए हंै। फ्लोर पर एक्का दुक्का ही बचे हैं। रात के तीन बज चुके हैं। अपना अब वापस चलने का मन है। तीनों राजी भी हैं। साथ वाली लड़कियां कहां गई पता नहीं। शायद किसी और के साथ हो गई होगी। लेकिन उनकी इस फितरत का बुरा नहीं लगता। जैसा कि उसका......खैर जाने दीजिये।
वापसी बेहद भारी है। दिमाग फट रहा है। लुत्फ क्या मिला पता नहीं लेकिन रात व्यर्थ जाने का दुख है। शुक्र है आने वाला दिन रविवार है। और काम कम है।
गाड़ी स्टार्ट करने से पहले दोस्तों से कहता हूं। यह क्या रिश्ता था। बांहों में बांहें थी और साथ में डांस। कुछ पल बेहद करीब। लेकिन अब कुछ नहीं। जैसे न अपने होने का कोई स्वाभिमान, न कोई अस्तित्व और न किसी तरह की कोई भावना। एक पल साथ और दूसरे पल में कोई नाता नहीं। तभी दोस्त चपत मारता है। ठीक वैसे जैसे किसी बेवकूफ को मारी जाती है। वह कहता है यह तो एक रात का साथ था। लोग सालों का छोड़ जाते हैं। तभी उसका ख्याल आता है। फिर कहता हूं। तो क्या अंतर है, इस रिश्ते में और उस रिश्ते में जो सालों रहा। दोनों रिश्तों का नतीजा एक है तो फितरत भी एक सी ही होगी। दोस्त हामी भर देता है। और कहता है कोई अंतर नहीं। सब एक है। लेकिन मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं है। कम से कम अपनी जानिब तो बिलकुल नहीं।
रात भर नाचने के बाद भी मन बेहद उदास है। तभी दोस्त कहता है पगार में से साढ़े तीन हजार का बट्टा लग गया। मैं मन ही मन कसम खाता हूं। आज के बाद न नाइट क्लब और न ही शराब।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

अय्यार दुनिया

राहुल कुमार
दरीचे में रखी ये बेढंगी किताबें
आज सुबह से ही मुंह चिढ़ा रही हैं मुझे
इनमें जो लिखा है इनसे जो पढ़ा है
कुछ भी तो नहीं है इस अय्यार दुनिया में
आसूदगी की बातें, नेकियत की दुहाई
इंसानियत के किस्से, उसूलों की कसमें
जैसे बोझ सी जान पड़ती हैं मुझे
अक्लबानों की ये बातें, कमअक्लों के लिए
पांवों में पड़ी जंजीर के सिवा कुछ भी तो नहीं है
कितनी झूठी और मक्कार लगने लगी हैं किताबें
जो खींच ले जाती हैं, ऐसे स्याह जहां में
जो कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं
और हम ढूंढ़ते रहते हैं, ताउम्र
एक बेहतर कल की आस में
जिसे ख्याबों में आना है, हकीकत में नहीं
फिर सोचता हूं, उस शख्स के बारे में
जिसने बना दिया है मुझे ऐसा
जिसने दी है ये दृष्टि
जो जेहन में छुपा बैठा है
और कचोटता है मन को
रह रह कर आता है याद मुझको
लाख कोशिश करता हंू फिर भी बेबस हूं
आंख के कोने में आए आंसू की तरह
उसका ख्याल जाता क्यों नहीं।

रविवार, 15 नवंबर 2009

नाम मेरे नाम से


राहुल कुमार

जुड़ गया फिर नाम उसका, नाम मेरे नाम से
लोगों ने महफिल सजा ली, नित नए इल्जाम से

कौन है ऐसा जो समझा उसके मेरे बीच की
सोच कर दिन भर के बाद, आंख नम है शाम से

चल गए कांटों पे गर, इश्क को समझेंगे तब
प्यार पर तोहमत लगाते जो बड़े आराम से

इश्क ही शै है यहां और बात है जज्बात की
आदमी भी देवता बन जाता है इस काम से

धड़कनें उसकी धड़कती आज फिर दिल में मेरे
उसने कुछ ऐसा कहा है अपने नए पैगाम से

दिल के नाते दिल के रिश्ते निभते हैं कैसे यहां
उससे पूछो मुझसे पूछो या फिर पूछो राम से

बातों में उनकी हम न हो

राहुल कुमार
जिक्र उनका जब भी हो, बातों में उनकी हम न हो
ये तो ऐसे हो गया कि जिन्दगी हो गम न हो

याद जब भी हम करें और हिचकियां उनको न हो
ये तो ऐसे हो गया कि साज हो सरगम न हो

नाम मेरा लेती हो, और दांतों मंे अंगुली न हो
ये तो ऐसे हो गया साथी हो हमदम न हो

ख्याब मेरी आंखों में हो और तस्व्वुर उनका न हो
ये तो ऐसे हो गया कि जख्म हो मरहम न हो

जब भी हमसे रूठते हो, रात भर जगते न हो
ये तो ऐसे हो गया कि आंख हो पर नम हो

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

गुंडांे से नहीं हारेगी हिन्दी

राहुल कुमार
राज ठाकरे के गुंडों का तमाचा हिंदी पर नहीं लोकतंत्र पर ज्यादा है। ओछी राजनीति व टुच्ची गुडंई करने वाले ठाकरे की इतनी औकात नहीं कि वह हिंदी की बिसात को ललकारे सके। उसने आकाश की ओर थूंका है मंुह पर ही गिरेगा। विधायिका में उसकी पार्टी का दुस्साहस संविधान की अवहेलना व देश चलाने वाले अगुआ बने नेताओं व कानून व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों के ढुलमुल रवैये की देने है। वरना हिंदी भाषी छात्रों के साथ दुव्र्यवहार के बाद ही सरकार राज ठाकरे के पंख क्यों नहीं कतरे गए। क्यों वोट बैंक की राजनीति के चलते राष्ट्रभाषा का अपमान किया व सहा जा रहा है। बात महज भाषा की नहीं उसके दुस्साहस और कारगुजारियों की है। जिसने अब हदें लांघ दी हैं।
जिस हिंदी की छाती पर चढ़ राज ठाकरे अपनी राजनीति चमकाना चाहता है वह उसकी ताकत से बेखबर है। चंद छात्रों के साथ मारपीट कर लेेने भर से अगर वह समझ रहा है कि हिंदी की गलेबान भी पकड़ लेगा तो भूल में है। जिस हिंदी को एक हजार वर्षांे की गुलामी खाक न कर सकी उसे 12 विधायक लिए ठाकरे क्या आंच पहुंचाएंगे।
यह वही हिंदी है जिसने भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने बलबूते लड़ा। वही हिंदी जिसके गीत गाते गाते शहादतें क्रांतिकारी हंसते हंसते दे गए। वही हिंदी जिसके अक्षरों के प्रेम से करोड़ों हिन्दुस्तानी एक होकर ललकार उठे और अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर बांधकर जाना पड़ा। जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था उस ग्लोबल अंग्रेजी को मुंह की खानी पड़ी।ये वही हिंदी है जिसने मोहम्मद बिन कासिम से लेकर अब्दाली तक के तुफानी आक्रमण सहे। जिसने अरबी, फारसी, मुगल, फ्रैंच, पुर्तगाली और अंग्रेजी भाषाओं से लोहा लिया। वह भी तक जब इन भाषाओं के रखवाले देश की सत्ता पर काबिज हो गए थे और कुछ होने की लड़ाई लड़ रहे थे। हर हिंदी भाषी पर जमकर अत्याचार कर रहे थे।
फिर यह वही हिंदी तो है जिसने प्रेमचंद, अज्ञेय, जैसे कथाकार व मैथलीशरण गुप्त जैसा राष्ट्रकवि, मीरा का प्रेमलाप और कबीर सा दर्शन अपने अक्षरों से दिया। यह वही हिंदी है जिसमें गुलजार ने प्रेम के गीत रचे, निदा फाजली ने गजलें गढ़ी और जावेद अख्तर धड़कनों तक पहुंच रहे हैं। वही हिंदी जिसने अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक बना दिया। जिसने सारी दुनिया की मां मदर टेरसा को भारत बुला लिया।
हिंदी दिल और जुबान ही नहीं लहू भी है। जो खौलता भी है। जिसमें करोड़ों हिंदुस्तानियों के सपने हैं और जब इन्हें आघात लगेगा तो कोई गुंडा या दुस्साहसी टिकेगा नहीं। जब तक चुप्पी सधी है सधी है। खमोशी टूटेगी तो नमोनिशान न होगा। क्योंकि हिंदी हिंदी है। हिंदुस्तानियों का दिल। धड़कन और जीवन। और ठाकरे भी खूब जानता है तभी तो महाराष्ट्र की चाहरदीवारी मंे बयानबाजी व हरकतें करता है। कभी लखनउ, भोपाल या पटना आकर दिखाए। हिंदी गुंडई भूला देगी।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

और जुदा हो गया बगावती स्वर

राहुल कुमार
प्रभास जी से अपनी मुलाकात की बात सुनकर मैं बेहद उत्साहित था। इससे पहले उन्हें गोष्ठियांे में वक्तव्य देते सुना व देखा था। लेकिन एक कमरे में इत्मीनान से घंटे भर की बातचीत होगी, जितना चाहूंगा बतिया पाउंगा जैसा मौका हाथ लगने की सोचकर में लंबी लंबी डगें भर सड़क पर लगभग दौड़ सा रहा था। सन 2007, अगस्त माह की गर्मी थी। बरसात मुंह चिढ़ा रही थी। और दोपहरी के तीन बजे उनने मिलने का समय मिला था। प्रभास जी ग्वालियर के तनासेन होटल में ठहरे थे। मेरे गुरु आशीष द्विवेदी का जी फोन आया था और मेरी जनसत्ता में इंटर्न की बात भी करने बात भी कही थी।
मेरी सांस फूल रही थी, कुछ पैदल जल्दी जल्दी डगें बढ़ाने से तो कुछ पत्रकारिता के पितामह से मिलने की बात सुनकर। कैसे मिलूंगा ? क्या बात कंरूगा दिमाग मंे कई सवाल कौंद रहे थे। खैर में होटल में पहुंचा और जैसे ही उनके कमरे में दाखिल हुआ वह अपनी धोती बांध रहे थे। नईदुनिया के पत्रकार राजदेव पांडे, नरेंद्र कुईंया व गुरु आशीष द्विवेदी मौजूद थे। मैंने प्रभास जी के चरण स्पर्श किए और सामने बैठ गया। वह नईदुनिया के लिए साक्षात्कार दे रहे थेे। बात पत्रकारिता के कई आयामों पर हुई। प्रभास जी ने हर पहलू पर अपने विचार दिए। और अंत में मुस्कुराते हुए कहा कि छापना वही जो कह रहा हूं। आजकल कुछ कहो और पत्रकार कुछ छाप रहे हैं। अपने हिसाब से कुछ भी लिख रहे हैं। प्रभास जी का धोती पहनना जारी थी। लंबी सफेद धोती खुद धीरे धीरे बांध रहे थे। और पत्रकारिता के गुर सिखाते जा रहे थे।
प्रभास जी ने बताया कि कैसे उन्होंने हाथों पर लिख लिखकर रिपोर्टिंग की। राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते और राहुल सांस्कृत्यान के करीब रहकर क्या क्या खास सीखा। जनसत्ता का प्रयोग कैस सफल बनाया और पत्रकारिता में क्या कुछ बेहतर किया जा सकता है। वह कह रहे थे कि वह अब घूम-घूमकर यही पता लगाना चाहते हैं कि जो नई पीढ़ी पत्रकारिता में आ रही हैं कैसी है। उनमें कहा सुधार की गुंजाइश है और कहा वह पुरानी पीढ़ी से मजबूत है। वह कह रहे थे कि जगह जगह यात्राएं कर वह पत्रकारिता मंे आ रही बुराईंयों को दूर करना चाहते हंै। ताकी यह धर्म व सरोकारों की दुनिया सदा ऐसी ही बनी रहे।
उनका पूरा जोर पत्रकारिता के तेवर और लेखनी पर था। जो उन्होंने जनसत्ता में अपने नायाब प्रयोगों से करके भी दिखाई। और एक ऐसा इतिहास रच गए। जो हमेशा याद किया जाएगा।
वो दिन है कि आज का दिन है। प्रभास जी का हर कहा शब्द कानों में है। लेकिन उस दिन की तरह उनकी चमकती आंखे और होठों पर तैरती मुस्कान खो गई। आज सुबह जनसत्ता अपार्टमेंट पहुंचा तो वह शांत और निश्चिंत लेटे हैं। फूलों से सजे और सफेद चादर में लिपटे। एक युग आज एक ताबूत में बंद हो गया। प्रभास जी चले गए संसार छोड़कर। लेकिन वो सब कुछ दे गए जो हमें आगे की राह दिखाता रहेगा। बगावती तेवर, बुराई के खिलाफ डटकर खड़े रहने की हिम्मत, अंतिम सांस तक लड़ने की जिजीविषा, अडिग चट्टान सी विचारों की मजबूती और सत्ता के खिलाफ खड़े रहकर जनता को सत्ता मानने का स्वाभाविक गुण।

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

खबर का खौफ

राहुल कुमार
वह आठ साल की लड़की थी। पर उसने बात ऐसी कह दी कि मैं अचरज में पड़ गया और बहुत देर तक सोचता रहा। उसकी बात सुनकर लगा कि क्या ये बातें नामचीन संपादक, अखबार मालिक नहीं सोच पाते। आखिर उस लड़की के दिमाग में ऐसी बातें कैसे पनपीं, जो संपादकों के दिमाग में नहीं उपज पातीं।
बड़े दिनों बाद अखबारी काम काज से दो दिन की छुट्टी मिली। खुशी-खुशी मैं अपने गांव की ओर रवाना हो गया। रास्ते में ही बुआ का गांव पड़ता है। मध्य प्रदेश के दतिया शहर से करीब सात किलोमीटर दूर। लरायटा गांव। एक अरसा बीत गया था उन सबसे मिले। सो पहुंच गया। सबसे मिला। सब बैठ कर बतिया रहे थे कि अचानक छोटी बहन ने कहा भईया आप पत्रकार हैं! वही पत्रकार जो तीन खबर झूठी लिखते हैं और एक सच। जो पैसा मांगते फिरते हैं। मैं अंदर तक कांप गया। जिस गांव में रास्ता आज भी कच्चा हो, बिजली एक घंटे आती हो, स्कूल पांचवी तक हो और जहां अखबार जैसी चीज बामुश्किल ही पहुंचती हो, उस गांव की छोटी सी बच्ची के दिमाग में यह सच कैसे उपजा ? क्षेत्रीय स्तर पर पत्रकारिता की यह छवि किस तरह बन रही है। और उसकी सोच ऐसी क्यों बनी ? मैंने पूछा, तुमसे किसने कहा। उसने बताया, पड़ोस में पुलिस वाले रहते हंै उन्होंने। आगे बुआ ने कमान संभाल ली, कहने लगीं उनसे पत्रकार पैसे मांगते हैं। हर महीने 15-20 हजार रुपए। पुलिस से पत्रकारों का पैसा बंधा है। नहीं देने पर गलत खबरें छाप देते हैं। छोटे-छोटे अखबार ही नहीं, बड़े अखबारों का भी यही हाल है। मैं हिल गया। पैसा बंधे होने की बात से नहीं बल्कि आम लोगों में पत्रकारिता की गिरती छवि के बारे में सोचकर।
सोचता हूं, दिल्ली-एनसीआर की पत्रकारिता से इतर संपादक क्षेत्रीय स्तर पर कितना ध्यान देते हैं ? पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए कौन जिम्मेदार है ? नामचीन संपादकों और मालिकों को धंधा बनती पत्रकारिता दिखाई क्यों नहीं देती। प्रतिस्पर्धा के दौर में सभी अखबारों ने क्षेत्रीय स्तर पर अपने संस्करण शुरू कर दिए हैं। लगातार बढ़ रहे हैं। व्यापक फैलाव की चाहत सभी को हो चली है। आगे बढ़ने की होड़ का आलम यह है कि अनचाही खबरें भी छापी जा रही हैं। पेज भरने की विवशता ने कई अनचाहे समाजसेवी और नेता पैदा कर दिए हैं। जिनका समाज से कोई सरोकार नहीं है और रोज अखबार में छपते हैं। फोटो के साथ कई काॅलम में। छपास के रोगी पैदा कर दिए हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे पर भी अनाप-शनाप बयान जारी कर देते हैं। कोई मुद्दा नहीं मिला तो क्रिकेट इंडिया जीती, नहीं जीती तो हाॅकी हारी आदि ऐसे कई मौकों को भुनाते हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी के जन्मदिन पर मिठाइयां बंटीं, किसी भी बयान पर पुतला फंूक डाला और बड़े से फोटों के साथ छप गए। कभी-कभार पत्रकारों को छापने का मूल्य भी चुकाते हैं। कभी गिफ्ट के रूप में तो कभी सीधे पैसा देकर। प्रेस कांफ्रेस में रिपोटरों को दिए ट्रीटमेंट से तय होता है कि खबर कितनी बड़ी जाएगी। अच्छा खाना खिलाया तो डीसी बन गई। दारू पिला दी तो तीन से चार काॅलम और कुछ नहीं किया तो संक्षेप में सिमट जाती है।
आखिर पत्रकारिता के इस स्तर की जिम्मेदारी कौन लेगा। अखबार के मालिक, संपादक या रिपोर्टर। सवाल यह भी उठता है कि क्षेत्रीय पत्रकारों और संपादकों के बीच संवाद कितना है। कौन सा संपादक क्षेत्रीय स्तर पर जाकर पत्रकारों से सीधे मिलता है। उन्हें संस्थान से जुड़े होने का अहसास कराता है। पत्रकारिता की गुणवत्ता पर बात करता है। सिखाता है। उनके सुख दुख का साथी बनता है। और क्षेत्रीय संपादकों के इतर कितने अन्य कर्मचारियों के नाम उन्हें मुंह जबानी याद हैं। गुणवत्ता के गिरते स्तर पर कौन संपादक बात करता है। उनसे पूछता है, उनकी पेज भरने की विवशता। साथ ही एक दिन में पांच से आठ खबरें देने की विवशता के बाद उन्हें कितना वेतन देता है। कई संपादकों को तो यह भी नहीं पता होता कि क्षेत्रीय स्तर पर कितना पैसा दिया जा रहा है।हर छोटे शहरों की यही हालत है। बहुत से लोगों ने अधिकारियों, नेताओं को ब्लैकमेल करने के लिए ही अखबार निकालने शुरू कर दिए हैं। जमकर धंधेबाजी हो रही है।
पत्रकारिता के लिए बेहद अफ़सोस का दौर है। जब दूर-दराज के गांवों में पत्रकारिता की पहचान इस रूप में हो रही है तो शहरों के जागरूक पाठकों की नजर में क्या स्थिति होगी। और सबसे बड़ी बात उन रिपोर्टरों की क्या छवि होगी, जिनसे खबरों के दौरान वे मिलते हैं। यह दर्द संपादक और मालिक महसूस करते हांे, इसकी संभावना नहीं लगती। सारी संभावनाएं अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ाने की आपाधापी में गुम होती जा रही है। इस कड़वी सच्चाई से अखबार के मालिक, संपादक, रिपोर्टर भले ही नजरें चुराएं लेकिन एक आठ साल की बच्ची भी इसे बखूबी बयां कर देती है।