जानता हूं बहुत देर बाद बोल रहा हूं। पर बोल रहा हूं। क्योंकि विदेशी ही नहीं अपनों ने भी यह हालात पैदा कर दिए हैं कि मुझे बोलना पड़ रहा है। बहुत को बुरा लगेगा, मेरा बोलना नहीं सुहायेगा, पर मेरी बला से लगता रहे। मैं बोलने को लालायित हो उठा हूं। खासकर तब से जबसे बड़े पत्रकार और संपादकों को खुद पर टिप्पणी करते देख रहा हूं। विदेशियों ने मुझे ऑस्कर के बहाने भरे चौराहे नंगा दिखाया मैं नहीं बोला। मेरे नाम पर कुछ भारतीयों को ऑस्कर दिलवाया और मेरी फ्रिक का झूठा संदेश देना चाहा, मैं नहीं बोला। मैं तब भी नहीं बोला जब मुझे एक महानायक का इतना दीवाना बता दिया कि मल की गंदगी में कुदा दिया, खास कर तब भी नहीं जब नायिका को रिंगा रिंगा पर वैश्यालय में ठुमके लगाते दिखा दिया गया। क्योंकि यह कहीं न कहीं सच हैं। और इसलिए भी नहीं बोला कि मैं विदेशियों से क्या बोलू। जब सदियों से घृणा और तिरस्कार अपने ही देशवासियों से सहता रहा तो विदेशियों से कैसे उम्मीद रखूं कि वह मेरे लिए अच्छा सोचेंगे। उन्होंने भी मेरी नंगई दुनिया को दिखाई और खूब नाम कमाया।
मैं इसलिए बोलने को तड़प उठा हूं जब देश का चैथा स्तंभ संपादकीय लिख रहा हैं कि विदेशियों ने हमारी गरीबी को कैद कर नाम कमाया है। फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है कि उसे ऑस्कर दिए जाएं। ऑस्कर का यह सम्मान भारत की हथियारों से सशक्त और आर्थिक रूप से सुदृढ़ छवि को मिटाने की एक योजना भर है। विदेशी आज भी यह जताना चाहते हैं कि भारत आज भी भूखों नंगों का देश है।
मैं तब बोलने के लिए उत्सुक हुआ हूं जब कहा जा रहा है कि फिल्म को ऑस्कर मिला पर स्लम में रहने वालों का क्या हुआ, उन्हें क्या मिला....? वह स्लम डॉग तो आज भी वैसे ही हैं जैसे थे। सच है और उम्दा सच है। क्योंकि मेरी नियति ही यह है। मुझे कोई दुख नहीं विदेशियों ने मेरी इज्जत से खेला और वैष्विक स्तर पर नंगा कर दिया। लेकिन मैं आहत उन अपनों से जो यह कह रहे हैं कि मुझे क्या मिला। मैं पूछना चाहता हूँ उन बड़े लेखको से कि मैं तो सदियों से तुम्हारा हूं। तुमने क्या दिया....? जब से मानव सभ्यता बनी तभी से घृणित और तिरस्कारित हूं। मैंने वो दौर भी झेला है। जब मेरी परछाई से भी सभ्य अपवित्र हो जाते थे। मुझे चप्पल पहनने की इजाजत न थी। मैं शमशान में रहता था और दिन उगने से पहले या दिन डूबने के बाद भोजन के लिए निकलता था। ताकी परछाई किसी पर न पड़ जाए। भोजन के लिए उन बंद दरवाजों की दहलीज से जूठन उठा उठाकर खाता था जो मेरा चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते थे। इसलिए दहरी पर जूठन रखकर दरवाजे बंद कर लेते थे और मुझे हाथ में थमाई थाली बजाकर गांव में प्रवेश करना पड़ता था ताकी सब छुप जाए। मेरा मनहूस चेहरा कोई देख न पाए। सब जान जाए मैं यानी अछूत यानी स्लमडाॅग आ रहा हूं।
मैं बताना चाहता हूं यह वही देश हैं जहां धर्म के कुछ चंद ठेकेदार मंदिरों में भी मुझे नहीं जाने देते। दबंगों और बाहुबलियों की हवस का शीकार मैं कई बार हुआ हूं। घर की लड़कियां बेची गई और इसी देश में ही खरीदी गईं। हां मैं इसी देश का स्लम हूं जहां जन्म लेने वाली लड़कियों का भविष्य या तो दबंगों को खुश करने में है वेश्यालय में। हां, मैं वही दूर दराज का स्लम हूं जिसकी लड़की और उसकी मां के साथ महज इसलिए रेप किया जाता है कि वह आठवीं कक्षा में सारे गांव में अव्वल आई है। जी हां, मैं वही स्लम हंू जिसपर गंदी राजनीति होती है। जिससे वोट बैंक बनाया जाता है। जिसे हर कोई दबाना या खरीदना चाहता। वहीं स्लम जिस पर लिख लिख कर कई कथित विद्धान खुद को दलित साहित्यकार बताते हैं। और उंचे ओहदे पर जम गए हैं तरह तरह के वादी वाले साहित्यिक संघ बना डाले हैं।
फिर कैसे आप सब लोग विदेशियों से यह कह सकते हैं कि उनने ऑस्कर जीत लिया पर मुझे क्या मिला। जाहिलों जब तुम और तुम्हारा देश इतने सालों में मुझे कुछ न दे सका तो विदेशी एक फिल्म का मुझे क्या देंगे। तुम्हारे साहित्यकार, राजनेता, हवस की प्रेमी सब ने मुझे प्रयोग किया पर किसने क्या दिया....? तो विदेशियों से आश लगाना तुम्हारी लोलुपता ही है।
सबसे ज्यादा आहत तब हूं जब पत्रकारों और संपादकों को लिखते देख रहा हंू कि स्लम डॉग को क्या मिला। यह साजिश है। भारत के खिलाफ। हंसता हंू खुद की स्थिति को देखकर जब उन पत्रकारों और संपादकों को लिखते देख रहा हूं जिसके अखबार में सख्त आदेश हैं कि 15000 से कम आय वाले व्यक्ति की कोई खबर नहीं छपेगी। अखबार का टारगेट इससे ज्यादा मासिक आय पाने वाले व्यक्ति हैं। संवाददाताओं की स्लम पर लिखी खबरों को कचरें से डब्बे में फेंक देने वाले उन संपादकों को लिखते देखता हूं तो महज अखबार का एक काॅलम और खुद की खेलनी चमकाना चाहते हैं और पूछतें हैं मुझे क्या मिला..........?
राहुल कूमार
रविवार, 8 मार्च 2009
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7 टिप्पणियां:
इसीलिए तो हम आप के मुरीद हैं सर , बहुत ही जबरदस्त लिखा है
सबकी खूब वखिया उधेडी है...
सर जी कभी हमारे ब्लॉग पर भी आएये .... आपके स्वागत में पलक पांवडे बिछाए हुए है... आईये तो सही.
khub kahi sirji. jisake paas kuchh nahi usase logo ne bahut kuchh pa liya lekin vo to kangaal ka kangaal hi raha
राहुल आवेश है, पता चला इसे पढ़कर। मैं तो इस फिल्म को सामंजस्य का एक नमूना मानता हूं दोस्त। विदेश के डायरेक्टर ने बना दी तो हो हल्ला मचा है। संपादकों के लिखने में हर्ज ही क्या। घटना और समसामयिकी पर तो लिखना ही पड़ेगा। फिल्म में उनकी जिंदगी का सच दिखाना सो दिखाया। जिंदगी सुधारने का ठेका तो नहीं उठाया था। वैसे कुछ दिन बाद देखना फिल्मों और एड जिंगलों में नजर आएंगे मोहम्मद अजहरुद्दीन। स्लम के बजाय आप दलितों का इतिहास बयान कर गए। स्लम में गरीबी है तो जीने के कुछ खौफनाक और तिकड़मी अंदाज भी। अच्छा होता अगर ये भी लिखते कि मैं वही स्लम हूं जो नशे का आदी हो चुका है। ब्रेड पर आयोडेक्स चुपड़ कर नशा करता हूं। पंक्चर जोड़ने के सॉल्यूशन से लेकर थिनर तक सूंघता हूं। मेरे सीने में कई हत्याओं के राज दफ्न हैं। मेरे झोंपड़े से ड्रग्स और कच्ची दारू का कारोबार भी चलता है। दलाल बन जाना मेरी नियती बन गई है। मेरे घर की महिलाओं ने बच्चे को गोद में लेकर भीख मांगने की आदत डाल ली है। बाजार में सैकड़ों लड़कियों को फुसलाकर गर्म गोश्त के धंधे में पेल दिया है। मैं वही स्लम हूं जिस हाल तो सरकारी मकान मिले ही नहीं और अगर मिले भी तो मैं बेचकर खा गया। झोंपड़े से ज्यादा मुझे मकान रास नहीं आया। सभ्य समाज के बीच मेरे कुटीर काले धंधे चल नहीं सकते थे। इसलिए मैं झोंपड़े को छोड़ नहीं पा रहा हूं। नाकारापन ने मुझे जकड़ लिया है। मैं खुद भी नहीं चाहता कि मेरा समाज की मुख्य धारा की तरह विकास हो। मुझे स्लम के अंधेरे ही रास आ गए हैं। मेरी मंजिल दुबई है, भाई है और गुनाह का दलदल है। और भी बहुत कुछ होता है वहां, बताने की जरूरत है क्या?
beautiful article....
aacha laga. slam dog ko lekar jo aapne chitran keya hai wah kabile tarif hai
aacha laga. aap ne aapni kalam ki takat se jo chitran keya hai wah kabile tarif hai
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