बुधवार, 4 मार्च 2009

विश्वास गहराता जाता है

जाने क्यूं जब जब भी रिश्तों को टूटते देखता हूं तो उन पर और भी गहरा विश्वास होता है। सोचता हूं मैं अपने जीवन में किसी भी रिश्ते को टूटने नहीं दूंगा। इसके लिए मुझे कितना भी असह दर्द क्यों न सहना पड़े। टूटते रिश्तों को महसूस करने के बाद जाने क्यों उन्हें निभाने की अजीब सी जुस्तजू खुद व खुद जाग जाती है। दूसरे ही पल हर कीमत पर रिश्तों को निभाने के लिए तत्पर हो उठता हूं। क्योंकि बगैर रिश्तों के जीवन में कोई रंग है ही नहीं। वह लोग जो अकेले जीते हैं कितने बेबस और प्यार के बिना होते हैं। बगैर सच्चे दोस्त, मां, पिता, भाई, बहन, प्रेमिका, और भी न जाने कितने प्यारे रिश्तों से परे। खूब खुशियाँ देने वाले रिश्ते। जहां अपनापन और अस्त्तिव का अहसास मिलता है। जहां एक ऐसी बेफ्रिकी मिलती है कि सारे डर खत्म हो जाते हैं। छल, कपट, धोखा, और ओझेपन नाम की कोई चीज दरमियां नहीं होती। प्यार भरा घना साया मिलता है इन रिश्तों की छांव में। जहां मां का खुद भूखा रहकर बच्चों को खाना खिलाने का त्याग है, पिता का सालों थिगरी लगी कमीज पहने रहकर बच्चों को हर जन्मदिन पर नई पोशाक दिलाने की चाह है, जहां छोटे भाई की खुशी के लिए बड़ा भाई जानबूझकर खेल में हार जाता है और हार में जीत का आनंद लेता है। इतना प्यार की बहिन छोटे भाई को कभी कपड़े नहीं धोने देती। दोस्त, दोस्त के लिए जीवन न्यौछावर कर देता है। प्रेमिका का ऐसा साथी जिसकी याद आने भर से दुनिया भर की बालाएं टल जाती हैं। कितनी प्यारी और गहरी है ये रिश्तों की दुनिया।

सच कहूं तो वहीं लोग रिश्तों को निर्दयता से तोड़ते हैं जिन्हें रिश्तों की समझ नहीं होती और उनसे मिलने वाले प्यार के अहसास को वह अनुभव नहीं कर पाते। वरना इन गहराईयों को कौन ठेस पहुंचाना चाहेगा। इसके पीछे अकसर एक तर्क ढूंढता रहा हूं कि ऐसे क्या कारण होते हैं कि जिन्हें छोड़ देने के बजाये लोग रिश्ता तोड़ लेते हैं। साथ ही ऐसा क्यों होता कि रिष्ता तोड़ने के कारण पनप आए। खासकर जो आपका है और आपके दुख से आहत हो जाता हो। उससे।

जब जब भी मनु भंडारी का उपन्यास आपका बंटी पढ़ता हूं तो रिश्ता तोड़ने से डरता हूं। डरता हूं जब लोगों को तड़पते और पश्चाताप करते देखता हूं। खूब देखा है मैंने। पर फिर भी तोड़ देते हैं लोग रिश्ता तोड़ देतें हैं। जब देखता हूं भारत और पाकिस्तान की बाड़ में परिवारों के बंटने का दर्द और कभी न मिल पाने की बेबसी। जब लोगों का पलायन करने की मजबूरी और जेहन में हर वक्त कौंदते रहने वाली टीस महसूस करता हूं, तो रिश्ता तोड़ने से डरता हूं। अपनी जमीन से, अपने गांव से, अपने कस्बे से बिछुड़ने चुभन रह रह कर पाता हूं। जहां बचपन बढ़ा हुआ। जहां पहला प्यार मिला। जहां की नीम व बरगद की छांव आज भी बुलाती है। उन पहाड़ों की पुकार जिन पर बैठ कर कई दोपहर सांझ में ढाल दी थी और घंटों अपने गांव को निहारा था। गांव की वह पथरीली और कांटे भरी पगडंडियां जहां नंगे पैर चलने का अपना ही आनंद था। सभी रिश्तों को महसूस करता हूं तो डर जाता हूं रिश्ता तोड़ने से।

परिवार वाले हो या यार दोस्त सभी के चेहरे देखकर रिश्ता निभाने की कसम खाता हूं। फिर कहां मिलना जिंदगी में इन लोगों को। अच्छा है कि जिनकी याद में कल तड़पना पड़े उन्हें आज ही जाने से रोक लिया जाए। वरना समय फिर नहीं लौटना और न ही वह साथी जिसे खो दिया है।
राहुल कुमार

2 टिप्‍पणियां:

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

सच ही कहा सरजी. हमें जाने क्यों रिश्ते टूटने पर दर्द होता है पर कई लोग तो उस टूटते रिश्ते की चुभन तक महशूस तक नहीं करते. जाने क्यों मुझे लगता है की रिश्ते टूटने का दर्द जमीन से जुड़े लोग ही महशूस कर पाते है. महानगर का आदमी तो संवेदना शून्य हो चुका है.

कडुवासच ने कहा…

... सुन्दर अभिव्यक्ति।