शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

तलाश आवारगी की.....

जहां पहली सांस ली। उस गाँव के घरों में आज तक बिजली के मीटर नहीं लग सके हैं। बचपन की अटखेलियां जिन गली-कूचों में किशोर हुईं, वह जगह तहसील भी नहीं बन पाई है। एक क़स्बा है। लंबा सा। पहाड़ी की तलहटी में बसा। सुविधाओं के नाम पर एक 'थाना' था। जो आये दिन किसी न किसी की 'असुविधा' बनता था। एक 'प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र' था। फटी मटमैली चादर बिछे एकाध बिस्तर वाला। थानों में पीटे जाने वालों का झूठा मेडिकल प्रमाणपत्र यहां बनता था।

फिर जहां जवान हुआ, वो 'महानगर' है। कुछ कॉलेज हैं। कुछ कोचिंग हैं। पार्क हैं। रेस्तरां हैं। और हैं कुछ प्रेमिकाएं। कुछ मेहरबान दोस्त भी। कुछ जलने वाले हैं। कुछ नेह लुटाने वाले। प्रेमिकाएं अक्सर कॉफी हाउस में मिलने आती हैं। दोस्त कमरे पर आ धमकते हैं। यहाँ सड़कों पर गिचपिच है। सिपाही रोक लेता है तो गाड़ी के कागज माँगने से पहले पैसे मांगता है। जेबें टटोलता है। नेता है जो खींसें निपोरते हुए गाड़ियों में घूमता है।

एक पुराना किला है। शहर भर से ऊँचा। उदासी के क्षणों में घंटों मैं यहां से शहर देखता हूँ। वह सिपाही और नेता ऊँचाई से दिखाई नहीं देते।

फिर देश की राजधानी है। 'दिल्ली'। यहां मैं खुद को पहचानता हूँ। दूसरों को पहचानना सीखता हूँ। एक नामचीन अखबार में खबरें लाने की छोटी सी नोकरी करता हूँ, बड़े सपने लिए। हां यहाँ सताने को कोई नहीं। लोग टच भी हो जाते हैं तो बड़ी नजाकत से माफ़ी मांग लेते हैं। दिल्ली औपचारिक है। दिली नहीं। अपार्टमेंट में एक के ऊपर एक दो ढाई सदस्यों वाले परिवार रहते हैं। कहीं कहीं दबड़ेनुमा कमरों में दस-पंद्रह भरे हैं। यह रात को सिर्फ सोने आते हैं। यह सो भी पाते होंगे। ताज्जुब होता है। यहां शराब है। नाईट क्लब हैं। भीड़ है। गुमनामी है। चहल-कदमी है। तन्हाई है।

स्त्री चमड़ी बेचने वाले एबी रोड हैं। खरीदने वाले धन्ना सेठ से लेकर रिक्शे वाले हैं। सड़क पर खड़ी लड़कियां हैं और उनको एक रात के लिए ले जाने वाली कारें भी। यहां कुछ कमजोर चक्कर खाकर डीटीसी बसों में गिर जाते हैं। भागमभाग में खाना वक़्त पर नहीं खाते। या कमा नहीं पाते। प्राइम टाइम में वातानुकूलित मेट्रो भी पसीने-पसीने कर देती है। जबसे मेट्रो का पहला कोच 'केवल महिलाओं के लिए' हुआ है। कुछ शोहदे इससे सटे दूसरे कोच में ही खड़े होते हैं। कम से कम झाँक तो सकें।

कनॉट प्लेस' है। जहां फेसबुक पर दोस्त बनी लड़की से मैं डेटिंग करता हूँ। वह सकुचाई है। मैं घबराया। एक कॉफी और बर्गर के बाद हम विदा होते हैं। सुनता हूँ यहीं कुछ दूरी पर देश के राष्ट्रपति व प्रधानमन्त्री रहते हैं। क्या इस शहर के ट्रैफिक में वे भी फंसते होंगे। देर रात सड़कों पर निकलने से डरते होंगे। देख चुका हूँ 16 दिसंबर को एक लड़की को अपना नाम खोकर 'निर्भया' हो जाना पड़ा है। निश्चित ही उसका असली नाम इस नाम से खूबसूरत होगा।

आज जिस कॉलोनी में किराये से रहता हूँ,  यहां पड़ोस वाली आंटी एक दिन बिफर गईं। मेरे भाई की कार उनकी कार से टच भर हो गई थी। कहने लगीं  - फूहड़ बाहरी लोग। कॉलोनी में बस गए। इसे ख़राब करने के लिए। वह केंद्रीय विद्यालय में टीचर हैं। पर शायद नहीं जानतीं कि आर्य मध्य एशिया से भारत आए थे। और द्रविण न मैं हूँ और न वह। फिर बाहरी कौन ? मैं उन्हें समझाता नहीं डांट देता हूँ।

फिर सोचता हूँ कहाँ का हूँ मैं। गाँव, क़स्बा, महानगर, देश की राजधानी या इस कॉलोनी का। भारत का या मध्य एशिया का। क्या कोई नदी किसी गाँव, शहर, प्रदेश, देश की हो सकती है। जबकि उसकी शैली निरंतर बहना है। बस ऐसे ही मैं भी कहीं का नहीं होना चाहता। किसी एक स्थान में नहीं बंधना चाहता। जीवन एक आवारापन हो। अनंत। बेअंत। जिसका न शुरूआती बिंदु हो न आखिरी। ऐसा ही जीवन तलाश रहा हूँ मैं इस जीवन में।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

आंदोलन तेज हैं

राहुल यादव
देश में आंदोलन तेज हो चले हैं। हर क्रिया पर प्रतिक्रिया होती है। राहुल गांधी का रास्ता लखनऊ में रोका जाता है तो विरोधियों के पुतले दिल्ली में फूंक दिए जाते हैं। वाराणसी में सभाएं हो जाती हैं। गजब की तेज नजर हो गई है लोगों की। हर बात पर आंदोलन कर देते हैं। अब कुछ भी चुप रहकर नहीं सहते हंै लोग। हर गली कूचे से आवाज उठने लगी है।

सोनिया गांधी पर किताब ऐसी क्यों लिखी। फलां फिल्म में फलां डायलॉग व सीन क्यों है। मुन्नी बदनाम क्यों है। बंद करो। शीला की जवानी देश को गर्त में ले जा रही है। बंद करो। चीयर लीडर्स नंगा नाच है। बंद करो। राजधानी ही नहीं छोटे शहर में भी आक्रोश है, ऐसे मुद्दों को लेकर। खूब बवाल काटा जा रहा है। अब मनमानी करना मुश्किल है।

आंदोलन तेज है, भगवा आतंकवाद शब्द नहीं सहेंगे। मुस्लिम आतंकवाद चलता रहने दो। देश सिर्फ हिंदुओं का है और पंथ निरपेक्ष भी है। आंदोलन तेज है। बेहद तेज। उनके लिए देश की हर गली कूचे में अगुआ पैदा हो गए हैं। हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हैं। पुतले जलाए जाते हैं, हड़तालें की जा रही हैं। सहयोग व कार्य बहिष्कार किया जाता है। सड़कें जाम कर, ट्रेनें रोककर बंद की घोषणा की जाती है। सामान्य जन जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया जाता है। आंदोलन तेजी से चलते हैं।

महंगाई नहीं सहेंगे। बड़े बड़े फोटो के साथ स्थानीय नेता स्थानीय महंगाई के खिलाफ सड़क पर आता है। मुद्दों को लेकर वह सजग है। अखबार में छपता है। ताकि सभी देख सकें। फोटोग्राफर के आने पर हाथ की दो अंगुलियां भी मुस्कुराते हुए ऊपर उठा देता है। वह गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है। देश में अब चुप रहकर कुछ नहीं सहा जाता है। आंदोलन तेज हैं।

आंदोलन तेज हैं क्योंकि देश में मुद्दे बहुत हैं। यह मुद्दे भी अजर और अमर हैं। क्योंकि हर आंदोलन समझदार है। वह मुद्दे खत्म नहीं करता। उन्हें संभालकर रखता है। ताकि वक्त आने पर फिर से उठाए जा सकें। अगर मुद्दे का हल निकल गया तो फिर किस चूल्हे पर रोटी सेंकी जाएगी। गली का नेता कस्बे का, फिर जिले का और फिर प्रदेश स्तर का होते हुए देश का नेता कैसे बनेगा। इसलिए मुद्दे बनाए रखना ही आंदोलन है। समझदार आंदोलन का निष्कर्ष मुद्दे की समाप्ति नहीं है। वरन उसे चला कर कुछ मुनाफा उठाना है।

महंगाई के खिलाफ आंदोलन होता है स्थानीय नेता को प्याज मुफ्त में मार्केट असोसिएशन पहुंचाती है। वह जमाखोरी के मुद्दे को बचाकर रख लेता है। परिजन पब्लिक स्कूलों की मनमानी फीस के खिलाफ खड़े होते हैं तो पैरंट्स असोसिएशन का अध्यक्ष अपनी मर्जी से कुछ एडमिशन करा लेता है स्कूलों में। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान लाठी भांजते हैं तो स्थानीय नेता को इलाके के कई ठेके मिल जाते हैं। कोठियां बन जाती हैं और पिस्टल लाइसेंस के साथ कई गाडिय़ों का काफिला चलने लगता है उसके साथ।

अब आंदोलन सिर्फ चलने के लिए होते हैं। सब समझते हैं बस आम आदमी नहीं समझता। आंदोलन सिर्फ इसलिए चलते हैं कि कोई आंदोलन न हो। अब आंदोलन ही आंदोलन को रोकने के लिए हैं। आंदोलन तेज हैं कि आम आदमी उकता कर वाकई सड़क पर न उतर आए। कोई बड़ा आंदोलन न हो जाए। इसलिए मुन्नी की बदनामी, शीला की जवानी, सोनिया की साड़ी, राहुल के रुके रास्ते पर आंदोलन चलने दो। रोज चलने दो। अखबार में छपने दो। आंदोलन तेज हैं।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

शहर ठंडा पड़ा है

राहुल यादव
परेशान है आज वह, फिर बेहद
करता है मन इस शहर पर थूकने का
बड़ी उबकाई आती है इस शहर पर
कैसा ठंडा पड़ा है, कमबख्त
कहीं कुछ भी तो नहीं होता
क्या मुंह लेकर जाएगा आज ऑफिस
क्या कह देगा कि कोई नहीं मरा
सारे बदमाश कायर हो गए हैं
वह बेहद गंभीर, डरा हुआ है
दुआ पर दुआ किए जा रहा है
मन ही मन सोचता है
अरे बदमाशों कुछ तो करो
कहीं रेप कर दो, लूट लो किसी को
उतार लो गले से किसी के चेन
तोड़ ही डालो, किसी के घर का ताला
खींच लो किसी लड़की का दुपट्टा
उठा ले जाओ किसी मासूम को
मांग डालो मनमाफिक फिरौती
मत रहने दो, ठंडा इस शहर को
अच्छा नहीं लगता, सौहार्द हमको
शराब पीकर ही मचा दो उत्पात
मार दो चाकू किसी के पेट में
जला ही दो किसी गरीब की दुकान
सुबह से शाम होने को है
सड़क पर दौड़ते - भागते
आज कुछ नहीं मिला
क्या मुंह लेकर जाएगा ऑफिस
शहर का ठंडा पन नहीं भाता हमें
हमारी मजबूरी है, हम रिपोर्टर हैं
शांति और सुख, खबर नहीं बनती
सनसनी चाहिए सिर्फ सनसनी
अखबार बिकता है, टीआरपी बढ़ती है
तभी भनभनाता है उसका फोन
दूसरे छोर से आती है बहन की आवाज
बहुत खुश होता है
वह पूछता है परिजनों की खैरियत
मां, बाबू जी, भाई, भाभी
करता है भगवान का शुक्रिया
फिर चल देता है अरे कमबख्त
कुछ तो करो
ठंडा हो शहर अच्छा नहीं लगता
क्या मुंह लेकर जाएगा ऑफिस
लेकिन भूल जाता है वह
अपनी धुन में
उस शहर में भी है
किसी अखबार का ऑफिस
चलता है कोई खबरिया चेनल
जन्हा रहते है उसके घरवाले
वहा भी कोई दुआ करता होगा

रविवार, 5 दिसंबर 2010

शहर की झुग्गियां

राहुल यादव
एक शहर में बेहद घृणित होते हैं
झुग्गी और उसके बाशिंदे
सड़क किनारे, छप्पर डाले
जिंदगी काटते, फटे पुराने लिबास वाले
मजदूरी करते, ढेले लगाते
रिक्शे चलाते, भीख मांगते
बच्चे, बढ़े
कोठियों में बर्तन धोती मांएं
ये सब हैं नफरत के पात्र
एक शहर में
उन लोगों के
जिनके यहां करते हैं यह काम
रखते हैं उनके घर को साफ
फिर भी बिगाड़ती हैं झुग्गियां
शहर की खूबसूरती को
और खटकती हैं सबकी नजर में
इस शहर की झुग्गियां
किसी काम की होती नहीं हैं झुग्गियां
लेकिन जब भी पुलिस को करना हो टारगेट पूरा
तो झुग्गी में जाती है टीम
उठा लाती हैं चार लोगों को
ब्लेड, गांजा, अफीम लगाकर
शांति भंग करने के आरोप में
भेज देती है सीखचों के पीछे
झुग्गी वालों को
जब भी होता है दबाव अतिक्रमण दस्ते पर
दौड़ जाती हैं गाडिय़ां, मचा देती हैं उत्पात
कुचल देती हैं रिक्शे, मिटा देती हैं झुग्गियां
हटा देती हैं ढेले, रेहड़ी और खोखे
क्योंकि अतिक्रमण करते हैं
ये झुग्गी वाले
जब भी बढ़ते क्राइम पर होनी हो चर्चा
तो झुग्गी के नक्शे बिछा कर
बता देते हैं इन्हें कारण
बस
ये झुग्गियां दिखती हैं सबको
नहीं दिखता बड़ी कंपनियों का अतिक्रमण
बंगलों के बाहर सड़क पर बनाया
बड़े लोगों का छोटा गार्डन
पार्किंग के नाम पर सड़क को घेरना
सफेद लिबास में, काला धन बटोरना
पर जाने क्यों
मुझे ये लगता है
सभी को बचाते हैं ये झुग्गी वाले
खुद की बली देकर
जानते हैं सब
लेकिन नहीं जानते तो
ये खुद झुग्गी वाले
कि कितने काम की होती हैं झुग्गियां ?

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

ये जिंदगी है या है जंग

एक रंग तेरा खुदा, मैं तुझको बता दूं
तू आदमी बन जा और मैं तेरा खुदा हूं
भोग तू धरती के सारे अजूबे ढंग
और मैं ऊपर से तुझे, मनचाही सजा दूं

तुझको दौड़ाऊ बाइक से, एक्सप्रेस वे पर
और पीछे से तुझ पर, होंडा सिटी चढ़ा दूं
ले लूं नजारा बिलखते तेरे परिजनों का मैं
भविष्य के सपने सारे, ठहाके में उड़ा दूं

अचानक कर दूं तेरे, दिल में सुराख कोई
मांगता रहे तू भी उम्र भर हिसाब कोई
सोचे तू कि किस गलती की सजा है ये
मैं पटल कर दिखा दूं, नियमों की किताब कोई

देख तू धरती पर, आकर जरा करीब
बनाई हैं तूने, मजबूरियां इतनी अजीब
भूख, प्यास, गरीबी और दर दर ठोकरें
एक झटके में लिख डालूं, इन सब से तेरा नसीब

बतला दूं तुझे, तेरी दुनिया के सारे रंग
कर दूं तुझे, किन्हीं ऐसे लोगों के संग
पास होकर, तेरे होकर तुझको करें वो चोट
और तू सोचे कि ये जिंदगी है, या है जंग

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

ऊपरी कमाई और दहेज का लगेज

राहुल यादव

अब से पहले मैंने इतने खुले रूप में कभी नहीं जाना था कि मेरे आस पास जो चेहरे हंै उनका मन ऐसा भी है। उसकी सोच और चीजों को स्वीकार करने की विवशता बदतर दर्जे तक जा पहुंची है। बड़े भाई का सिलेक्शन मध्य प्रदेश सिविल सर्विस के लिए हो गया है। कड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद वह सूबे में एक जिम्मेदार पद पर तैनाती पा गए हैं। खुशी बहुत है लेकिन समाज, गांव, रिश्तेदार, दोस्त आदि से मिली प्रतिक्रियाओं ने एक तरह से हिला कर रख दिया।

कल तक नौकरशाही को कोसने वाले आज सिर्फ ऊपरी कमाई और दहेज के लगेज की बात कर रहे हैं। गुणा भाग लगाकर यह जोडऩे में लगे हैं कि प्रत्येक महीने ऊपर की कमाई कितनी होगी। पिता जी स्कूल के लिए जाते हैं तो रास्ते में भले लोग रोक लेते हैं। पिता जी को बताते कि लड़का जिस पद को पा गया है उस पर 10 हजार रोज की ऊपरी आमदनी है। अगर थोड़ी जोर जबर्दस्ती करेगा तो 20 से 25 हजार रुपये तक कमा सकता है। मास्टर साहब आप तो करोड़ पति हो गए हो। वाकई आपने अच्छे संस्कार दिए बच्चों को।

पूरे समाज और दोस्तों में यही अटकलें हैं कि कितना कमाएगा। किसी ने वेतन के बारे में पूछा तक नहीं। ऊपरी कमाई उन्हें इस पद का सबसे जायज हक लग रही है। एक पल भी किसी के चेहरे पर यह ऊपरी कमाई समाज को खोखला बनाने वाली रिश्वतखोरी और गिरते ईमान की निशानी नहीं लगी। किसने इनसे बच रहने की नेक सलाह नहीं दी।

सभी ने इस खोरी को बेहद खूबसूरती के साथ स्वीकार कर लिया है। जैसे सिविल सर्विस में सिलेक्ट होने का सबसे पहला हक ऊपरी कमाई करना ही है। जिन शिक्षकों ने पढ़ाया, जिन्होंने समाज को सुधारने की तथाकथित जिम्मेदारी कंधों पर उठा रखी है, जिन्होंने मोह माया छोड़कर भगवा धारण कर लिया है, पिता जी ऐसे ही कई शुभचिंतकों ने ऊपरी कमाई का पूरा खाका खींच दिया है। हिसाब लगा लगाकर बता दिया है कि इतने साल में कितनी कोठी बन जाएंगी। कुछ ने तो कोठी किस शहर में बनाई है, तक की योजना बनाकर दे दी है।

ये सब दिवाली की छुट्टिïयों पर देखने का मिला। पीएससी का रिजल्ट दिवाली से एक सप्ताह पहले ही आया और मैं अपनी अखबारी दुनिया से छुटï्टी लेकर दिल्ली से दिनारा अपने घर पहुंचा था। पूरे वाकये में किसी ने ईमानदारी से काम करने, स्वाभिमान बनाए रखने और समाज व गरीबों के लिए कुछ अच्छा काम करने की बात मुंह से नहीं निकाली। आइडिया देने की समझदारी तो दूर।

यह देखकर हैरत लगी कि समाज में किस हद पर ऊपरी कमाई की स्वीकारोक्ति समा गई है। अब रिश्वत मांगने वाले भ्रष्टï नहीं है और न ही यह क्रिया भ्रष्टïाचार। सब कुछ जायज है। लेना। देना। सोचता रहा इन लोगों की नजर में वह लोग कितने बेवकूफ हैं जो भ्रष्टïाचार के खिलाफ लडऩे की बात कहते हैं। शायद वह खुद बेवकूफ बन रहे हैं और उन्हें खबर तक नहीं।

यहीं नहीं ऊपरी कमाई के बाद सबसे खास मुद्दा है कि शादी में कितना रुपया मिलेगा। लड़की वाले कम से कम 30 लाख तो देंगे ही। विधायक, मंत्री या कोई बड़ा अधिकारी ही अपनी बिटिया ब्याहेगा। ढेरों अटकलें। ढेरों आइडियाज। लड़का बड़ा अधिकारी बन गया। अब तो कमाई ही कमाई है? वह इसका हकदार भी है ? कुर्सी जो पा गया है ?

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

भाई साहब दिल्ली डूब रही है

राहुल यादव

भाई साहब दिल्ली बचेगी नहीं इस बार। पुरानी दिल्ली। नई दिल्ली। हमारे पुरखों की दिल्ली। यमुना किनारे बसी दिल्ली। मीडिया का हब बनी दिल्ली। नहीं बच पाएगी। यमुना में उफान है। खतरे के निशान से ऊपर बह रही है यमुना। पूरी दिल्ली डूब जाएगी। शायद कोई न बचे। सब के घरों में पानी घुस गया है। जानवर की छोड़ो इंसान को भी ठौर नहीं है दिल्ली में। यमुना खुद के किनारे तोड़ सड़कों पर आ गई है। घुटनों घुटनों पानी पानी हो गई है दिल्ली। यमुना सबको डूबो देगी। भयंकर बाड़ के आसार हैं। प्रशासन सोया है। भाई साहब दिल्ली बचेगी नहीं। इस बार।

इक्कीस इंच की टीवी पर बवाल मचा है। किसी किसी की ग्यारह और किसी की इक्कीस से भी अधिक इंच वाली टीवी पर। दिल्ली डूब जाएगी। पूरी दुनिया में खबर है। सबको पता है। दिखाई दे रहा है। महज दिल्ली वालों को छोड़कर। अब तक उन्हें डूबने का अहसास नहीं है। बांगडू। स्याले। पूरी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चीख रही है। लेकिन यह हैं कि रोज की तरह ऑफिस जा रहे हैं। बड़े बड़े मॉल में खरीदारी कर हैं। बाजारों की रौनक बने हंै। मल्टीप्लेक्स में मनोरंजन कर रहे हैं। होटल में पिज्जा, बर्गर और चाउमीन उड़ा रहे हैं। डूबने का अहसास भी नहीं है। पार्कांे में गलबहियां हो रही हैं। बदमाशों की लूटपाट जारी है। दूसरे शहरों में रहने वाले रिश्तेदार मीडिया की मानकर खैरियत पूछने में जुट गए हंै। लेकिन दिल्ली वाले हैं कि सड़कों पर टहलने और सैर सपाटे से फुर्सत ही नहीं। बताते ही नहीं कि दिल्ली कहां डूब रही है। कितने गैर जिम्मेदार हैं। जिम्मेदार मीडिया की भी नहीं सुनते। डूब जाएंगे स्याले। तब समझेंगे। क्यों चीख रही थी मीडिया। समझा रही थी मीडिया।

कितनी बड़ी है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इक्कीस इंची टीवी। जिसमें सैंकड़ों किलोमीटर की दिल्ली डूब गई है। हजारों किलोमीटर की यमुना में भयंकर उफान है। कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर अरबों का घोटाला हो रहा है। संसद में महंगाई और सांसदों की तनख्वाह पर हंगामा मचा है। अधिग्रहण पर लाखों किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया है। संसद का घेराव कर लिया है। चोर चोरी कर रहे हैं। ठगी, जालसाजी और अंडरवल्र्ड के तार दिल्ली में तेजी से फैल रहे हैं। पुलिस सोई है। बदमाश चौकस हैं। फिल्मों की शूटिंग हो रही है। हीरो, हीरोइन प्रमोशन के लिए आ रहे हैं। विदेशी राजदूतों और राज नायकों की आवाजाही जारी है। आईएसआई की नजर दिल्ली पर है। दिल्ली में भिखारी फैल गए हैं। बिहारियों ने कब्जा जमा लिया है। झुग्गी झोपड़ी वालों ने बदसूरत बना दी है दिल्ली। उसी सड़क पर यमुना उफान मार रही है, किसान आंदोलन कर रहे हैं, भिखारी भीख मांग रहे हैं, कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी हो रही है और उसी सड़क पर दिल्ली डूब रही है।

कितनी ठगनी है दिल्ली। पल पल रूप बदल रही है। स्टूडियो में एंकर बदलता है। दिल्ली का रूप बदल जाता है। कभी डूब जाती है। तभी क्राइम सिटी बन जाती है। तो कभी हमेशा की तरह गुलजार होकर पब और मॉल कल्चर में मस्त हो जाती है दिल्ली। नाइट क्लब में थिरकती, वाइन व बीयर के नशे में झूमती। सेक्सी दिल्ली। क्योंकि यह दिल्ली है मेरी जान।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

ये कौन है

राहुल कुमार

ये कौन है जो रातों को सता रहा है
दूर होकर भी बुला रहा है

खामोश पलकों पर चला आता है
दर्द दिल में जगा रहा है

कौन है जो अपना नहीं फिर भी
खोने का खौफ दिखा रहा है

झरने सा बहता हुआ यादों में
राग इश्क का बजा रहा है

आखिर ये कौन है कौन है
जो मेरी रूह में समां रहा है

हर वक़्त है जैसे साथ मेरे
मुझको मुझसे मिला रहा है

संगदिल पत्थर का सनम होगा
मेरी हस्ती मिटा रहा है

सोमवार, 21 जून 2010

दिल्ली बदल रही है

राहुल कुमार
दिल्ली बदल रही है। तेजी से बदल रही है। कुछ महीनों व सालों में बदल रही है। जितनी अब तक नहीं बदली थी उतनी बदल रही है। आजादी के बाद कभी भी इतनी नहीं सजी संवरी जितना अब संवर रही है। दिल्ली चाहती है वह दुलहन सी बन जाए। नवयौवना। अल्हड़ मस्त जवान दिखे। वो आने वाले हैं। दिल्ली को देखने। ऐसा-वैसा देखेंगे तो क्या सोचेंगे? लज्जा नहीं आएगी क्या? इसलिए दिल्ली तैयारी में है। खुद को बदलने की। ताकि विदेशी मेहमानों के लायक हो जाए। उन्हें रिझा सके। अपने सजे संवरे दामन में छुपा सके।

अब दिल्ली नहीं मानेगी। उस पर खुमारी चढ़ गई है खेलों की। राष्ट्रमंडल आने वाले हैं। दिल्ली के पास समय नहीं है। पूरा यौवन निखारना है। अपने दामन के दाग छुपाने हैं। गरीबी के। बेबसी के। लाचारी के। भूख के। मजबूरी के। मजदूरी के। अपराध के। भष्टचार के। दिल्ली अरबों लुटा देगी। लेकिन निखार जरूर लाएगी। भले ही अपनों का पेट काटे। उनके हलक से पैसा निकाल ले। भूखों को मार दे और दो जून की कमाने वालों को भूखा कर दे। लेकिन वह इंडिया के लिए भारत को निकाल देगी। अपनों की कमाई दूसरों के लिए लुटा देगी। उसे इंडिया की चमक दमक से मतलब है। भारत के भूखेपन से नहीं। वह सजने संवरे में अरबों लुटा देगी। भारत के अरबों इंडिया पर। अपने तो बाद में भी खा-पी सकते हैं। और कुछ मर भी जाएं तो क्या। दिल्ली की थू थू तो नहीं होगी। खूबसूरती के लिए बदसूरतों को निकाल बाहर कर देना ही नीति है। पर आने वालों को रिझाना लाजिमी है। वो आने वाले बड़े रसिक हैं। नवयौवनाओं को पसंद करते हैं। बेबाओं को नहीं। दिल्ली को यौवन झलकाना ही होगा। भले ही दो पल के लिए। उनके लायक बनना ही होगा।

तभी दिल्ली का यश दूर तक फैलेगा। विदेशों में चर्चे होंगे। लोग उसके यौवन का बखान करेंगे। मुरीद हो जाएंगे। भले ही वह दिल्ली को उजाडऩे वाले क्यों न हो। बरसों दिल्ली को रौंदने वाले क्यों न हों। दिल्ली का अंग अंग निचोड़कर, नोंचकर खाने वाले क्यों न हो। वह दिल्ली की लूटी जागीर पर अय्याशी करने वाले क्यों न हो। भारत का खून चूसकर बने लाल गाल वाले क्यों न हो। दामन छीन कर दिल्ली को नंगा करने वाले क्यों न हो। दिल्ली महान है उसने सब भुला दिया है। उनके साथ (ब्रिटिश) उन सभी (राष्टï्रमंडल गुलाम देश) रौंदे हुए बेबसों का स्वागत भी पलक पंवाड़े बिछाकर करेंगी। फ्लाईओवर, अंडरपास का गजरा लगाकर। स्टेडियमों पर अरबों लुटाकर। अपनों के छप्पर छीनकर। दूसरों के लिए अट्टïालिकाएं बनाकर। दिल्ली खुद के दुख हर लेगी। उनका आना दिल्ली का फिर से जीवित हो उठना है। उनका आगमन उत्सव है। खिले चेहरे आने वाले हैं। अपने तो हमेशा भूख से लाचार और नंगे बदन रहते हैं। इसलिए भले ही दिल्ली आज तक अपनों के लिए नहीं बदली पर गैरों के लिए बदलेगी। उसे बदलना ही होगा। दिल्ली बदल रही है। वो आने वाले हैं।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

बेहतरी की व्यवस्था बेहाली में

राहुल कुमार

किसने जाना था कि देश का वह भू- भाग जो सबसे पहले संवैधानिक रूप से पंचायती राज व्यवस्था में विश्वास दिखाएगा, उसे अपनाएगा, उसके बाशिंदे कुछ सालों में ही उस प्रजातांत्रिक भावना को चंद सिक्को की चमक में खो देंगे। विकास और सहभागिता की प्रथा दबंगई के असर से दबकर और प्रतिष्ठा से जुड़कर दम तोड़ती नजर आने लगेगी। प्रदेश में ग्राम पंचायत व्यवस्था की हालात बदतर हो चुकी है।

राज्य चुनाव आयोग के कई प्रयासों के बावजूद प्रदेश में पंचायतों का बिकना जारी है। नोटों की हरियाली से गांव की खुशहाली खरीदी ली है। हाल ही में संपन्न् हुए पंचायती चुनाव में यह खूब देखने को मिला। कितनी ही पंचायतें बिकीं। चंद कागजों के टुकड़ों की खातिर देश को लोकतंत्र की दहलीज तक लाने वाले हजारों शहीदों की कुर्बानियां सत्तालोलुप और लालचिओं के सामने व्यर्थ साबित हो रही हैं।


देश में विकास के नए कीर्तिमान बनाने और एक धारा में विकास करने के लिए बलवंत मेहता कमेटी की सिफारिश पर त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू की गई। मध्य प्रदेश देश का पहला सूबा बना जिसने सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था 1993 में लागू की। ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत और जिला पंचायत जैसे तीन स्तरों पर सदस्यों का चुनाव होने लगा। और उसके बाशिंदे को ऐसे लोगों को चुनने का अवसर प्रदान किया गया जो उनके बीच के हों। उनका हित जानते और चाहते हों। लेकिन यह सुनहरा ख्वाब हकीकत में नहीं बदल पाया।

ढेरों मौके हैं, बेहतर संसाधन हैं और विकास की बाट जोहती पथराई आंखें भी हैं। लेकिन सरकार द्वारा प्रदत्त पैसों को अंटी में दबाने की होड़ में पंचायती राज व्यवस्था सबसे भ्रष्ट और काली कमाई की चौपाल बनकर रह गई है। गांवों का पिछड़ापन जस का तस है। और इस अंधी दौड़ में सत्ता पर काबिज पार्टियां भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं।


मध्यप्रदेश में हाल ही में 22931 ग्राम पंचायत, 313 जनपद पंचायत और 48 जिला पंचायत के लिए चुनाव संपन्न् हुए। जिसमें अब तक की सबसे बदहाल हालात दिखी। चुनाव को बाहुबली और धनाढ्य उम्मीदवारों ने प्रतिष्ठा और शोहरत से जोड़कर कई पंचायतों को खरीद लिया। उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ खड़े सदस्यों को पैसा देकर बिठा दिया और चुनाव निर्विरोध संपन्न् करा लिया। तर्क था कि जितना पांच साल में कमाओगे उतना एक बार में ही ले लो।


प्रदेश के सबसे विकसित संभाग इंदौर, ग्वालियर, भोपाल, जबलपुर आदि में तकरीबन एक दर्जन से अधिक पंचायतों के बिकने की खबरें प्रकाश में आईं। जबकि ऐसी कई पंचायतें हैं जिनकी जानकारी मीडिया तक नहीं पहुंच पाई। मीडिया ने मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। लेकिन सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई। न ही कोई जांच बिठाई गई।


जनपद व जिला पंचायत के अध्यक्ष के चुनाव में भी प्रत्येक सदस्य को 15 से 20 लाख रुपए बतौर वोट खरीदने के लिए दिए गए। साक्ष्यों के साथ मीडिया ने खबरें छापी। लेकिन सरकार तब भी चु'पी साधकर तमाशबीन बनी रही। बल्कि सत्ताधारी पार्टी ने अपने पार्टी सदस्यों को विजयश्री दिलवाने के लिए पार्टी फंड तक से पैसे दिए। शिवपुरी जिले में जिला पंचायत के सदस्य को आठ लाख रुपए व एक स्कार्पियो गाड़ी खुलेआम दी गई।

उम्मीदवारों द्वारा लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए गए। और अब जीतने के बाद उसी तर्ज पर दोगने-चौगुने कमाए जाने की जुगत में हैं। एक तरह से सीधा सौदा हुआ। जितना लगाया, उससे दोगुना कमाया। चुनाव के दौरान पंचायत व्यवस्था लोगों की नजर में सत्ता विकेंद्रीकरण व प्रजातांत्रिक सोच नहीं बल्कि धन कमाने का एक बेहतर व्यवसाय बनती दिखाई दी।


महात्मा गांधी का सपना पंचायती राज बदहाल है। उसी मध्य प्रदेश में जिसने सबसे पहले इसे संवैधानिक रूप से अपनाया। इस बार के चुनाव से साफ दिखा कि इस व्यवस्था के सही उद्देश्य में न तो सरकार की गंभीरता है और न ही बाशिंदों की रूचि। आखिर प्रजातंत्र को दौलत की चमक से कब तक चकाचौंध किया जाएगा ?