शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

एक पत्र पिता जी के नाम

कहते हैं इंसान उसी चीज का अहसास व दर्द महसूस कर सकता है जिससे वह रूबरू होता है या गुजरता है। लेकिन न जाने क्यो पिछले काफी दिनों से मैं इस बात का हामी नही हूँ। हलाँकि मैं अभी इस दौर में नही हूँ फ़िर भी वो सब महसूस करता हूँ जो आपके अंतस में हमारे लिए है, बेपनाह प्यार और भविष्य का चिंतन। चेहरे पर चिंतन की लकीरें और हमारी बेहतरी के लिए ख़ुद अथक परिश्रम व त्याग में मशगूल रहकर भी हमें भनक तक न लगने देने की आपकी कोशिश मैं महसूस करता हूँ। न जाने कब से, लेकिन पिछले लंबे समय से। मैं महसूस करता हूँ। चाँद दिनों बात न हो पाने पर आपका बेचैन हो जाना। फोन बीच में कट जाने पर व्यग्र हो उठाना, हमारे अचानक घर आ जाने पर चिंतायों की उत्ताल लहरों में घिर जाना या हमारे भविष्य को लेकर हमेशा चिंतनशील रहना, मैं सब कुछ महसूस करता हूँ। पता नही क्यो और कब से पर महसूस करता हूँ। बहुत गहरे से। आपका अपने सारे पुण्यों का प्रतिफल हमें समर्पित करने की कामना करना। सच। मैं महसूस करता हूँ। पिता शब्द की गहराई और क्या मायने हैं मैंने किताबो में पढ़कर नही जाना। और न ही किसी शिक्षक ने यह इबारत सिखाई है। पर जानता हूँ। जब भी आपको देखता हूँ, समझ जाता हूँ इस शब्द मैं कितनी गहराई है। और आपके अनकहे प्यार को महसूस करता हूँ। हमेशा। दूर रहकर भी। मेरे लिए सब के लिए। असल में, नही जानता यह सब मैं कब से महसूस करने लगा हूँ। पर करने लगा हूँ। शायद तब से जब आपने भाईसाहब को हतोत्साहित न करके फ़िर से आगे बढ़ने का साहस दिया। शायद तब से जब आपने हर उस बात से हमे दूर रखने की कोशिश की जिसे ख़ुद झेलते रहे। शायद तब से जब ढलती शाम घर के आँगन में आपने आराधना फ़िल्म का गीत - तुजे सूरज कहूं या चंदा, तुजे धुप कहूं या छाया, तेरे रूप में मिल जाएगा मुझ को जीवन दुबारा गुनगुनाया। या शायद तब से जब आपके दिए हुए संस्कारों से हमे समाज को देखने की एक नई द्रष्टी प्राप्त हुई। एक नया नजरिया विकसित हुआ।जितना अभी तक मैंने समाज को देखा है आप जैसे परिजन किसी के नही देखे। ग्वालियर में कई दोस्त हमसे ज्यादा संपन्न थे। लेकिन हमे उनके बीच रहकर किसी चीज की कमी आपने महसूस नही होने दी। कहूं तो हम उनसे बेहतर रहे। ढाई हजार रूपये मागने पर हमने हमेशा तीन हजार पाए। यहाँ दिल्ली में भी जब मैं लोगो को संघर्ष करते और जीवन के लिए लड़ते देखता हूँ तो महसूस करता हूँ की आपकी छाया में हम कितने सुरक्षित रहे हैं। कष्टों व परेशानियो से बहुत दूर। यही नही, आपके दिए हुए संस्कारों से हम भटक नही सके। यह भी मैं महसूस करता हूँ। वरना आजकल कौन देता संस्कार। वरना कई पिता बच्चो को बिस्तर पर ही बड़ा होते देखते हैं। आप सोच रहे होगे की आपने कब बिठलाकर कहा की यह लो संस्कार हैं। लेकिन हमने लिए हैं। हर उस समय जब आपसे देशभक्ति गीत सुने हैं। सुबह सोकर उठते ही रामायण की चौपाई सुनी हैं। बचपन में कहानिया और कवितायें सुनी। कभी कभी बड़ा ताज्जुब होता है की इसे कई गीत हैं जो आज तक हमने न सुने हैं और न देखे हैं फ़िर भी मुह जुबानी याद हैं। जैसे मेरा हरी है हजार हाथ वाला। रफी, मुकेश, लता के चुनिन्दा गाने संस्कार ही तो हैं। जो हमे कब मिल गए पता ही नही चला। इन सब चीजो के बीच रहकर हमारा व्यक्तित्व बना। ये माहौल तो आपने ही दिया। इसके साथ ही माँ के बारे में क्या लिखू ? अपने जज्बातों को शब्दों का रूप देने का साहस नही है मुझ में। नही है मेरी कलम में इतना सामर्थ की कुछ लिख सकूं। उनका त्याग महज महसूस किया जा सकता है। और सब करते हैं मैं, आंसू, निशु और सबसे ज्यादा भाई साहब। असल में यह नजरिया मुझे भाई साहब से ही मिला है। पर मुझे बेहद अफ़सोस भी होता है। इस शिक्षा व्यवस्था ओर ख़ुद के पेरो पर खड़े होने की विवशता ने अजीब सी दूरिया तय कर रखी है। समझ नही आता जीवन के क्या मायने हैं। कभी कभी सोचता हूँ आपकी एक लड़की होती तो कम से कम शादी तक तो वह आपके साथ रहती।बहरहाल, बहुत दिनों से दिल की बात कहना चाहता था सो पत्र लिखा। असल में लंबे समय से जो महसूस कर रहा हूँ। जो देख रहा हूँ। उससे इस नतीजे पर पहुँचा हूँ की आप दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं...आई लव यू पापा, आई लव यू वैरी मच ......

1 टिप्पणी:

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

waha ser kya baat hai
yahi sachhi pati hai ek putra ki apane pita ke naam.