शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

खुदा का शुक्र है मैं मुसलमान नही

ये मेरे साथ पहली बार नही हुआ है। करियर बनाने ही धुन के संघर्षमय दौर में ये चोथी बार हुआ है। और सोचता हूँ कि क्या भारत में मुसलमान होना इतना बड़ा जुर्म है ? जिसे ख़ुद एक मुसलमान भाई भी नही जानता होगा। खुदा की मर्जी से इंसान जन्म लेता है और जिन्दगी की गुजर बसर करता है। इस दुनिया में जन्म लेने से पहले अगर इश्वर पूछता कि अमुख व्यक्ति कंहा जन्म लेना चाहता है तो शायद ही कोई भारत में मुसलमान और पकिस्तान में हिंदू बनकर जन्म लेने की हामी भरता ?
मैंने अपना देश देखा है इसलिए अपनी बात करता हूँ। पिछले कुछ दिनों से एक कमरे कि तलाश में घूम रहा हूँ। ठीक वैसे ही जब पहली बार कुछ कर गुजरने की चाहत लिए दिल्ली की गलियों की ओर गाँव से कसबे, कसबे से ग्वालियर जैसे महानगर और ग्वालियर से राजधानी दिल्ली की ओर कूच कर बैठा। तब पहली बार जाना था कि अगेर मैं मुसलमान होता तो कितनी मुश्किलें ख़ुद व ख़ुद घेर लेती। कमरे को किराए पर देनी की पहली शर्त मुसलमान न होना थी। यही शब्द फ़िर मेरे कानो में हाल ही में गूंजे हैं जो चोथी बार है।
बात उन दिनों की है जब जनसत्ता अखबार में इन्टर्न शिप करने के लिए पहली बार मैं दिल्ली आया था। दो माह की इंटर्नशिप थी। इसकारण रहने और खाने पीने का आस्थाई इंतजाम करना जरूरी था। काफी पूछ ताछ के बाद पता चला की सस्ता और सुलभ कमरा न्यू अशोक नगर में मिल सकेगा। सो तलाश जारी कर दी। जितने मकान मालिको से बात हुयी सबका पहला सवाल था मुस्लमान तो नही हो ? मैं अचरज में पड़ गया था, यह सोच कर की गर मैं मुसलमान होता तो क्या वाकई मुझे कमरा नही मिलता ? शुक्र है खुदा का मैं मुसलमान नही हूँ। फ़िर चाहे हिंदू होकर ही कितना भी कमीना, मदिरा पान करने वाला, मांस खाने वाला व अयियास क्यों न होऊ। कोई फर्क नही पड़ता। यहाँ तो हिंदू और मुसलमान जैसे शब्दों पर ही सारे समीकरण अटक जाते हैं। एक दूसरे से नफरत का कारन हिंदू और मुसलमान होना काफी है। हाल ही में फ़िर से कमरे की तलाश में घूम रहा हूँ। खूब भटका हूँ पर पहले वाला सवाल आज भी पहले पायदान पर ही हैं,, सच मैं मुसलमान नही हूँ, और होऊ भी तो क्या इस तरह के माहौल में कोई अपने धर्म को बताएगा ? न भी बताएगा तब भी कहा छोड़ा जाता है दंगो में। गाँव और मुहल्ले धर्म के नाम पर जला दिए जाते हैं। महिलायों की इज्जत महज इसलिए लूट ली जाती है क्योकि वह दूसरे धर्म की होती हैं। क्या किसी की सामाजिक जिन्दगी सिर्फ़ इसलिए ख़त्म कर देनी चाहिए की वह दूसरे धर्म की हैं ? आहत हूँ ये सोचकर, इसतरह का व्यवहार करने के बावजूद हम उम्मीद करते हैं की अमुख धर्म के लोग इक होकर रहे, देश का सम्मान करे ?
भीष्म साहनी की उपन्यास तमस की गन्दी राजनीति याद आती हैं जिसमे मुस्लिम नेता हिंदू के हाथो सूअर मरवा कर मस्जिद में डलवा देता है। फ़िर दंगे होते हैं, हर धर्म का जिहादी काफिला अपनी मर्दानिगी के किस्से सुनाते हैं की किस गाँव में कितनी महिलायों और लड़कियों के साथ बलात्कार किय है, वह किस्सा आज भी नही भुला पाता हूँ जब रातों को दंगा कर के टोली लौटती है और इक बहादुर किस्सा सुनाता है - अरे उस महिला को देखा था कैसे हम लोगो को देखकर हाथ जोड़कर चिला उठी थी की मेरे साथ कुछ भी कर लो पर मुझे छोड़ दो। फ़िर भी हम माने नही थे, पूरा सबक सिखाया था। तभी एक और बहादुर कह उठता है अरे जब तक मेरी बारी आई साली मर ही गई थी।
सब कुछ जानते हुए भी हम आज भी वैसे ही है जैसे पहले थे। भाजपा मदिर के नाम पर वोट मांग रही है। मोदी मुख्यामंत्री बन जाता है ? धर्म के नाम पर नफरत के नाम पर.... फ़िर भी हम प्यार तलाशते फ़िर रहे है ? अमन से रहने की बात करते फ़िर रहे हैं ? फ़िर कल ही मन्दिर मस्जिद की दीवार हिलेगी और लाशो के ढेर लग जायेंगे। और तस्लीमा नसरीन की उपन्यास लज्जा का नायक दस रुपए देकर भी जबरदस्ती करेगा क्योकि वह मुसलमान की लड़की है ........

राहुल कुमार

7 टिप्‍पणियां:

नदीम अख़्तर ने कहा…

आपने स‌च बात तो लिखी है, लेकिन मेरा मानना है कि इन परिस्थितियों में भी आम मुसलमान को विचलित होने की ज़रूरत नहीं है। आज ऎसा दौर आया है कि हर मुसलमान को शक के दायरे स‌े लोग देखने लगे हैं। लेकिन ऎसा हमेशा नहीं रहेगा। मुसलमान अपनी पहचान बनायेंगे, तो हो स‌कता है कि वो दिन भी आये कि मुसलमानों को आदर्श रूप में देखा जाये। वैसे देश में ऎसे मुसलमानों की कोई कमी नहीं, जिन्होंने देश का नाम किसी न किसी रूप में रोशन किया है या कर भी रहे हैं। बात स‌िर्फ इतनी स‌ी है कि कुछ लोगों की करतूत आज पूरे म-आशरे को बदनाम कर रही है। इससे मुसलमानों के भीतर देश के प्रति तनिक भी कटुता नहीं है, क्योंकि मुसलमान जानते हैं कि जब तक देश में भय और कटुता फैलाने वाली ताकतों के मनसूबे कामयाब होते रहेंगे, तब तक उन मनसूबों के कर्ज की स‌ूद मुसलमान चुकाते रहेंगे। इंतज़ार है स‌िर्फ स‌ामंतियों और पट्टेदारों के मरने का, जिसके बाद फिज़ा के फूलों में बहार आयेगी, क्योंकि उम्मीद पर दुनिया कायम है।

रांचीहल्ला

दिल दुखता है... ने कहा…

सर बहुत बढ़िया बात उठाई है.. पर आप ने ये क्यों नहीं सोचा कि ये सब क्यों हो रहा है?
मैं भी मानता हूँ कि इस तरह आदमियों में भेद करना गुनाह ही नहीं महा भयंकर गुनाह है....
पर समाज आज भी लोंगो से उतना ही प्यार करता है.. सब दूर हिन्दू मुस्लिम भेद नहीं है...
जो भी है, लोग अपनी सुविधा के लिए कर रहे हैं... कोई भी व्यर्थ में मुसीबत मोल लेना नहीं चाहता... इस दोष को दूर करने के लिए जिस तरह हम तुम जैसे हिन्दू आगे आकर अपनी बात रख रहे है... समाज से लड़ रहे है... उसी तरह उन सच्चे मुसलमानों को भी आगे आना पड़ेगा जो इस देश को अपना देश समझते हैं और आतंक जैसी घिनोनी हरकतों से कोसों दूर हैं..... पर अभी ऐसा देखने को कम ही मिलता है... एक साल पहले ग्वालियर में एक मुस्लिम युवक ने हिन्दू युवक के घर जाकर उसकी पत्नी के साथ छेड़ छाड़ कि तो बाकि का मुस्लिम समाज उस युवक को दुत्कारने कि वजह दुलारने लगा और उसके साथ लड़ने के लिए खडा हो गया ... इसी तरह का एक उदहारण दतिया का है... ऐसा ही एक उदहारण इन्दोर का है.... और भी कई उदहारण हैं.... पर चिंता कि कोई बात नहीं समय के साथ सब ठीक हो जायेगा बस उसके लिए जिस तरह का दर्द आपके दिल में है वही दर्द उनके दिल में भी जागने दो,,,, मेरा भी दिल दुखता है ये सब देख कर पर और ज्यादा तब दुखता है कि वो लोग क्यों आगे नहीं आ रहे.... पूरी कौम को बदनाम कर रहे लोगों को दुत्कारने के लिए.........

Unknown ने कहा…

bahut khoob rahul ji ...

रिपोर्टर कि डायरी... ने कहा…

विडंबना यही है और इसके लिए दोषी कहीं न कहीं हम भी हैं, जो ये याद नहीं रखते की परमवीर चक्र जीतने वाला अब्दुल हमीद भी मुस्लिम था,देश को मिसाइल तकनीक से उन्नत बनाने बाले कलम भी, और ज्यादा दूर की बात न करें तो अभी हाल ही के मुंबई हमलों में सीएसटी स्टेशन पर लोगों की जान बचाने बाला वो चाय वाला भी मुस्लमान ही था जिसने हिन्दू-मुस्लिम का भेद किये बिना घायलों को अस्पताल पहुँचाया था,नरीमन हाउस में कमान्डोस को रास्ता बताने वाला भी एक मुस्लिम ही था! जब उनमे हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं है तो हम करना वाले कौन होते हैं, बजरंग दल और श्रीराम सेना जैसे तथाकथित उग्र हिन्दुत्ववादी संघटनों और बुखारी जैसे नीच लोगों के बहकावे में आकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के विरोधी, पता नहीं कब ये बात समझेंगे की इन लोगों के बहकावे में आकर वह सिर्फ देश को तोड़ने का कम कर रहे हैं और कुछ नहीं, इसे सिर्फ विडम्बना ही कहा जा सकता है कि सभी आतंकवादी मुसलमान है लेकिन इससे ये तो साबित नहीं होता कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं......?

Saleem Khan ने कहा…

(1) मिडिया इसलाम की ग़लत तस्वीर पेश करता है-

(क) इसलाम बेशक सबसे अच्छा धर्म है लेकिन असल बात यह है कि आज मिडिया की नकेल पश्चिम वालों के हाथों में है, जो इसलाम से भयभीत है| मिडिया बराबर इसलाम के विरुद्ध बातें प्रकाशित और प्रचारित करता है| वह या तो इसलाम के विरुद्ध ग़लत सूचनाएं उपलब्ध करता/कराता है और इसलाम से सम्बंधित ग़लत सलत उद्वरण देता है या फिर किसी बात को जो मौजूद हो ग़लत दिशा देता है या उछलता है|
(ख) अगर कहीं बम फटने की कोई घटना होती है तो बगैर किसी बगैर किसी प्रमाण के मसलमान को दोषी मान लिया जाता है और उसे इसलाम से जोड़ दिया जाता है | मेरा मानना यह है, जैसा मैं पहले कह चूका हूँ कि आतंकियों का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता, चाहे वो प्रज्ञा हो, कर्नल हो, अफज़ल या मसूद (अ)ज़हर, सईद| समाचार पत्रों में बड़ी बड़ी सुर्खियों में उसे प्रकाशित किया जाता है | फिर आगे चल कर पता चलता है कि इस घटना के पीछे किसी मुसलमान के बजाये किसी गैर मुस्लिम का हाथ था तो इस खबर को पहले वाला महत्व नहीं दिया जाता और छोटी सी खबर दे दी जाती है |

(ग) अगर कोई 50 साल का मुसलमान व्यक्ति 15 साल की मुसलमान लड़की से उसकी इजाज़त और मर्ज़ी से शादी करता है तो यह खबर अख़बार के पहले पन्ने पर प्रमुखता से प्रकाशित की जाती है लेकिन अगर को 50 साल का गैर-मुस्लिम व्यक्ति 6 साल की लड़की के साथ बलात्कार करता है तो इसकी खबर को अखबार के अन्दर के पन्ने में संछिप्त कालम में जगह मिलती है | प्रतिदिन अमेरिका में 2713 बलात्कार की घटनाये होती हैं और अपने भारत में हर आधे घंटे में एक औरत बलात्कार का शिकार होती है लेकिन वे खबरों में नहीं आती है या कम प्रमुखता से प्रकाशित होती हैं| अमेरिका में ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि यह चीज़ें उनकी जीवनचर्या में शामिल हो गयी है |

(2) काली भेंडें (ग़लत लोग) हर समुदाय में मौजूद हैं

मैं जानता हूँ कि कुछ मुसलमान बेईमान हैं और भरोसे लायक नहीं है | वे धोखाधडी आदि कर लेते हैं| लेकिन असल बात यह है कि मिडिया इस बात को इस तरह पेश करता है कि सिर्फ मुसलमान ही हैं जो इस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त हैं | हर समुदाय के अन्दर कुछ बुरे लोग होते है और हो सकते है| इन कुछ लोगों की वजह से उस धर्म को या उस पूरी कौम को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जिसके वह अनुनायी है या जिससे वह सम्बद्ध हैं

Saleem Khan ने कहा…

(3) कुल मिलाकर मुसलमान सबसे अच्छे हैं

मुसलमानों में बुरे लोगों की मौजूदगी होने के बावजूद मुसलमान सबसे कुल मिलाकर सबसे अच्छे लोग हैं | मुसलमान ही वह समुदाय है जिसमें शराब पीने वालों की संख्या सबसे कम है और शराब ना पीने वालों की संख्या सबसे ज्यादा | मुसलमान कुल मिला कर दुनिया में सबसे ज्यादा धन-दौलत गरीबों और भलाई के कामों में खर्च करते हैं | सुशीलता, शर्म व हया, सादगी और शिष्टाचार, मानवीय मूल्यों और और नैतिकता के मामले में मुसलमान दूसरो के मुक़ाबले में बहुत बढ़ कर हैं|

(4) कार को ड्राईवर से मत तौलिये
अगर आपको किसी नवीनतम मॉडल की कार के बारे में यह अंदाजा लगाना हो कि वह कितनी अच्छी है और फिर एक ऐसा शख्स जो कार चलने की विधि से परिचित ना हो लेकिन वह कार चलाना चाहे तो आप किसको दोष देंगे कार को या ड्राईवर को | स्पष्ट है इसके लिए ड्राईवर को ही दोषी ठहराया जायेगा | इस बात का पता लगाने के लिए कि कार कितनी अच्छी है, कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उस के ड्राईवर को नहीं देखता है बल्कि उस कार की खूबियों को देखता है| उसकी रफ्तार क्या है? ईंधन की खपत कैसी है? सुरक्षात्मक उपायों से सम्बंधित क्या कुछ मौजूद है? वगैरह| अगर हम इस बात को स्वीकार भी कर लें कि मुस्लमान बुरे होते हैं, तब भी हमें इस्लाम को उसके मानने वालों के आधार पर नहीं तुलना चाहिए या परखना चाहिए | अगर आप सहीं मायनों में इस्लाम की क्षमता को जानने और परखने की ख़ूबी रखते हैं तो आप उसके उचित और प्रामादिक स्रोतों (कुरान और हदीसों) को सामने रखना होगा |

(5) इस्लाम को उसके सही अनुनायी पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के द्वारा जाँचिये और परखिये
अगर आप व्यावहारिक रूप से जानना चाहते है कि कार कितनी अच्छी है तो उसको चलने पर एक माहिर ड्राईवर को नियुक्त कीजिये| इसी तरह सबसे बेहतर और इस्लाम पर अमल करने के लिहाज़ से सबसे अच्छा नमूना जिसके द्वारा आप इस्लाम की असल ख़ूबी को महसूस कर सकते हैं-- पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) हैं |

बहुत से ईमानदार और निष्पक्ष गैर मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इस बात का साफ़ साफ़ उल्लेख किया है पैगम्बर सल्ल० सबसे अच्छे इन्सान थे| माइकल एच हार्ट जिसने 'इतिहास के सौ महत्वपूर्ण प्रभावशाली लोग' पुस्तक लिखी है, उसने इन महँ व्यक्तियों में सबसे पहला स्थान पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को दिया है| गैर-मुस्लिमों द्वारा पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को श्रद्धांजलि प्रस्तुत करने के इस प्रकार के अनेक नमूने है - जैसे थॉमस कार्लाईल, ला मार्टिन आदि|

"मेरा मानना है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता चाहे वो प्रज्ञा हो, कर्नल हो, अफज़ल या मसूद (अ)ज़हर, सईद आदि|" -
सलीम खान स्वच्छ सन्देश, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

Saleem Khan ने कहा…

vibhore sabhi aatanwadi musalmaan nahin, i can prove it ...read my relevant article at swachchhsandesh.blogspot.com