बुधवार, 22 अप्रैल 2009

ये जूता चलना चाहिए

राहुल कुमार
हालांकि गृहमंत्री पर जूता फेंकने के बाद जनरैल ने अपनी गलती मानते हुए कहा कि उनका विरोध करने का तरीका गलत था। वह भावनाओं में बह गए थे। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। वाकई एक पत्रकार का धर्म यह नहीं है। उसे कलम को हथियार बनाकर अनीति के खिलाफ लड़ना चाहिए। लेकिन मानता हूं पत्रकार के इतर जनरैल का कदम एकदम सही है। चुप्पी की दुनिया मिटाने के लिए ये जूता चलना ही चाहिए। खासकर हर उस जगह जहां अन्याय है। जहां तानाशाही चलती हो। जहां निज स्वार्थांे के चलते लोग विरोध करना भूल गए हैं और चुपचाप सब कुछ सह रहे हैं। जनरैल को ही ले लें। जब तक वह कांग्रेस की इस नीति के खिलापफ लिखते रहे क्या हुआ....? जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को टिकट दे दिए गए। अगर जूता नहीं चलता तो वह चुनाव भी जीत जाते और मंत्री भी बना दिए जाते। ऐसी जगह कुछ अनुचित लोगों के साथ उचित न्याय हो गया तो जूता चलना क्या गलत है। बल्कि यह जूता हमारे देश में हर जगह चलाने की जरूरत दीखने लगी है। यह जूता वहां चलना चाहिए जहां सरपंच, कलेक्टर, विधायक, मंत्री ने लेकर सभी जिम्मेदार व्यक्ति आराम फरमा रहे हैं वहीं किसान दो जून की रोटी न कमा पाने और ऋण न चुका पाने की स्थिति में आत्महत्या करने को मजूबर हो रहे हैं। क्या यह जूता उन लोगों पर नहीं चलना चाहिए। क्या अभी शांति से बात कर व्यवस्था को सुधारने की कुछ योजनाएं लाने की जरूरत रह गई है। या फिर जूता चलाकर लापरवाहों को उनकी सही स्थिति दिखाने की नौबत आ गई। यह जूता हर उस बाहुबली पर चलना चाहिए जो दबंगई दिखाकर किसी दलित महिला के साथ......... यह जूता उस पुलिस व्यवस्था पर चलना चाहिए जिसकी गस्ती में चार गुंडे किसी भी लड़की को उठा ले जाते हैं। यह जूता वहां चलना चाहिए जहां एक शिक्षक को अपने ही फंड का पैसा निकालने के लिए रिश्वत देनी पड़ रही है। यह जूता वहां भी चलना चाहिए जहां जाति के नाम पर लोग विरोध कर रही टीम से अलग हो जाते हैं और वहां भी चलना चाहिए जहां छात्रों से मोटी फीस लेकर बैठने तक की जगह नहीं दी जाती। क्लास और जरूरी संसाधनों के लिए छात्रों को पढ़ाई छोड़कर सड़कों पर संघर्ष के लिए उतरना पड़ता है। आखिर यह जूता वहां क्यों नहीं चलना चाहिए जहां प्रतिभा को दबा कर सिफारिश को प्राथमिकता दे दी जाती है। जहां मंदिर, जाति और क्षेत्र के नाम पर गंदी राजनीति कर लोगों का बेघर कर दिया जाता है। जनरैल का जूता महज भावनात्मक प्रतिक्रिया हो, लेकिन संदेश देता है कि जूता चलाने का वक्त आ गया है। शांति से बैठना और गांधी नीति से व्यवस्था को सुधारने का वक्त खत्म हो चुका है। पाप का घड़ा इतना भर गया है कि गंाधी जी के सिद्धांतों को चलाना लाजमी न होगा। चुप्पी तोड़ दो दोस्त और हर अन्याय के सामने जूता लेकर खड़े दिखाई दो। देखना जो कायर व्यवस्था को दूूषित किए हुए हैं कैसे सुधरते हैं।

3 टिप्‍पणियां:

रिपोर्टर कि डायरी... ने कहा…

सर जी बिलकुल ठीक बात की है ये जूता चलना ही चाहिए विशेषकर वहां जहाँ आम आदमी की कोई सुनने बाला न हो, लेकिन फिर भी एक बात जरूर कहना चाहूँगा की इस जूते का महत्व हर किसी के पल्ले पड़ने बाला नहीं, ये केबल उन्ही लोगों की समझ में आएगा जिन्हें कदम-कदम पर इस व्यबस्था से लड़ना पता है,घटो जो खड़े रहते है राशन की लाइन में और सुनना पड़ता की कि कल आना......,आम आदमी जो सड़ रहा है कीडों की तरह लेकिन उसकी परवाह किसी को नहीं,मेरा विश्वास है सर की ये जूता चलेगा और ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आम आदमी का एक करारा जबाव होगा........
लेकिन फिर ऐसा लगता है की कहीं ये जूते भी कम न पद जाएँ.....

मधुकर राजपूत ने कहा…

राहुल संवाद का माध्यम अगर जूता ही है तो कलम की बजाय जेब पर जूता टांग कर चलने में कोई बुराई है क्या तुम्हारी नज़र में? मित्र, संवाद का माध्यम भाषा ही बना रहे तो ठीक है। जूता चलने से क्या पाड़ित सिखों को न्याय मिलेगा। जेसिका लाल से लेकर कई हत्याओं में देखने को मिला कि 'अरबन' समाज ने लामबंद होकर मोमबत्तियां जलाईं। मीडिया ने अपने स्तर पर ट्रायल कर डाला। नतीजा दोषियों को सज़ा। लेकिन क्या किसी दंगे औक जनसंहार के विरोध में कभी ऐसी प्रतिक्रिया समाज ने दिखाई है? अगर दिखाई भई है तो पूरे मनोयोग से प्रयास किया है? यहां जूता चलाने की नहीं वरन लोकतांत्रिक नियमों के साथ ही विरोध दर्ज करने की जरूरत है। न्याय देर सवेर खुद ही मिल जाएगा। रिश्वत दी जाती है ली नहीं जाती। बुरी रुढियों और परंपराओं के विरोध मुखर होने की जरूरत है जूता चलाने की नहीं।

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

सच कहा सरजी हमारे समाज में बढ़ती अनीति के खिलाफ लड़ने का एक ही रास्ता बचा है। इसलिए जूता चलना ही चाहिए। अपने अधिकार के लिए गांधीगीरि करने पर लोग मूर्ख समझते है। मूर्ख बनने से अच्छा जूता चलाना इसलिए जूता चलना ही चाहिए..............