मंगलवार, 19 मई 2009

काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती

राहुल कुमार
वाकई बहुत बेशरम हैं। लानत है इन नेताओं पर जो जनता के धिक्कारने के बाद भी अपनी खुदगर्जी से बाज नहीं आ रहे हैं। मुंह की खाने के बाद भी बांगडू बांग दे रहे हैं। समर्थन ले लो समर्थन। अरे भाई काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती। जनता बेवकूफ नहीं है। समझ गई हरामखोरी को। निकाल फेंका न मक्खी के तरह राजनीति से। अलगाव और अफसरवादिता की राजनीति की हांडी जलाकर राख ही कर दी। अब रोये पांच साल तक। बहा लो टेसू साइकिल, लालटेन, हाथी और झोपड़ी के नाम पर। कमल भी मुरझा गया। आखिर कब तक गोधरा और बाबरी मस्जिद की त्रासदी झेलेगी जनता। अब दंगे नहीं, शांति और तरक्की चाहिए भाई। तरक्की। चैन से रहने के लिए।
मुलायम, लालू और पासवान अब फड़फड़ा रहे हैं राजनीति में जीवित रहने के लिए। सबसे ज्यादा लालू। पिछले दो दशक में ऐसा पहले बार होगा कि वह सत्ता से बेदखल गुमनामी में जीने को मजबूर होंगे। मुलायम की लुटिया भी हिचकोले खा रही है कब डूब जाए कयास तेज हैं। वहीं पासवान पिघल गए जनता के अक्रोश की आंच में। खुद की सीट भी नहीं बचा पाए दलितों के मसीहा। देर से जरूर पर ठीक हुआ जनता को भेड़ समझने वाले इन नेताओं के साथ। आखिर बहुत खेल खेल लिया था दोस्ती और दुश्मनी का। अबकी भेड़ की तरह नहीं हंकी जनता। विधानसभा में कट्टर दुश्मन और लोकसभा में भाईगिरी नहीं चली। जनता ने सबक दे ही दिया या तो दोस्त रहो या दुश्मन। मनमर्जी नहीं चलेगी। मतदाता बेवकूफ नहीं है कि हर बार इशारों पर नाचे। अहम तोड़ दिया। और ऐसा तोड़ा कि संभलना मुश्किल है।
वहीं उप्र को खुद की बफौती समझने वाली कुंवारी बहन जी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोय बैठी थीं। खूब ताल ठांेक रही थी। 21 सीट ही ले सकी। सुंदर सपना टूट गया। जातिवाद नहीं चला। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाए के समीकरण भी ध्वस्त हो गए। हालत ये हो गई है इन सपनों के प्रधानमंत्रियों की कि यूपीए को बिन मांगे समर्थ देने को लालायित हैं। समर्थन आलू, बैंगन टमाटर हो गया है। ले ले बिना शर्त के। अंदर से बाहर से बस ले ले। ताकी बचे रहें। गुजर बसर होती रहे।
याद हो यह वहीं नेता हैं जो महीने पर पहले बहुमत में आई पार्टी को बिना कंठ गीला किया कोसते थे। दावा करते थे उनके बगैर देश को प्रधानमंत्री नहीं मिल सकता। और अब तेवर कैसे बदल गए। बांगडूओं को शर्म तक नहीं आ रही। मीडिया पुराने बयान और वीडियो पर सवाल दाग रही है। पर वह बस समर्थन देने की बात पर टिके हैं। यूपीए नहीं ले रही है। न उसे चाहिए। पर जबर्रदस्ती दे रहे हैं। जनादेश को वाकई सलाम करने का मन है आज। दिखा दिया काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती।

2 टिप्‍पणियां:

रिपोर्टर कि डायरी... ने कहा…

बहतरीन बहुत बहतरीन, इस से अच्छा कोई नहीं लिख सकता सर इसीलिए हम आपके कायल हैं .......

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

क्या खूब लिखा आपने। हमारे देश की लाकतांत्रिकता को बचाये रखने के लिए तो ये नेता आते है लेकिन इस लोकतांत्रिक प्रणाली के र्कणधार हमारे नेताओं ने तो राजनीति को सब्जी का बाजार ही बना डाला। चुनाव चाहे लोकसभा को हो या विधानसभा के लेकिन हमारे नेतागढ़ अपना रंग दिखाए बिना नहीं चूकते।