गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

खबर का खौफ

राहुल कुमार
वह आठ साल की लड़की थी। पर उसने बात ऐसी कह दी कि मैं अचरज में पड़ गया और बहुत देर तक सोचता रहा। उसकी बात सुनकर लगा कि क्या ये बातें नामचीन संपादक, अखबार मालिक नहीं सोच पाते। आखिर उस लड़की के दिमाग में ऐसी बातें कैसे पनपीं, जो संपादकों के दिमाग में नहीं उपज पातीं।
बड़े दिनों बाद अखबारी काम काज से दो दिन की छुट्टी मिली। खुशी-खुशी मैं अपने गांव की ओर रवाना हो गया। रास्ते में ही बुआ का गांव पड़ता है। मध्य प्रदेश के दतिया शहर से करीब सात किलोमीटर दूर। लरायटा गांव। एक अरसा बीत गया था उन सबसे मिले। सो पहुंच गया। सबसे मिला। सब बैठ कर बतिया रहे थे कि अचानक छोटी बहन ने कहा भईया आप पत्रकार हैं! वही पत्रकार जो तीन खबर झूठी लिखते हैं और एक सच। जो पैसा मांगते फिरते हैं। मैं अंदर तक कांप गया। जिस गांव में रास्ता आज भी कच्चा हो, बिजली एक घंटे आती हो, स्कूल पांचवी तक हो और जहां अखबार जैसी चीज बामुश्किल ही पहुंचती हो, उस गांव की छोटी सी बच्ची के दिमाग में यह सच कैसे उपजा ? क्षेत्रीय स्तर पर पत्रकारिता की यह छवि किस तरह बन रही है। और उसकी सोच ऐसी क्यों बनी ? मैंने पूछा, तुमसे किसने कहा। उसने बताया, पड़ोस में पुलिस वाले रहते हंै उन्होंने। आगे बुआ ने कमान संभाल ली, कहने लगीं उनसे पत्रकार पैसे मांगते हैं। हर महीने 15-20 हजार रुपए। पुलिस से पत्रकारों का पैसा बंधा है। नहीं देने पर गलत खबरें छाप देते हैं। छोटे-छोटे अखबार ही नहीं, बड़े अखबारों का भी यही हाल है। मैं हिल गया। पैसा बंधे होने की बात से नहीं बल्कि आम लोगों में पत्रकारिता की गिरती छवि के बारे में सोचकर।
सोचता हूं, दिल्ली-एनसीआर की पत्रकारिता से इतर संपादक क्षेत्रीय स्तर पर कितना ध्यान देते हैं ? पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए कौन जिम्मेदार है ? नामचीन संपादकों और मालिकों को धंधा बनती पत्रकारिता दिखाई क्यों नहीं देती। प्रतिस्पर्धा के दौर में सभी अखबारों ने क्षेत्रीय स्तर पर अपने संस्करण शुरू कर दिए हैं। लगातार बढ़ रहे हैं। व्यापक फैलाव की चाहत सभी को हो चली है। आगे बढ़ने की होड़ का आलम यह है कि अनचाही खबरें भी छापी जा रही हैं। पेज भरने की विवशता ने कई अनचाहे समाजसेवी और नेता पैदा कर दिए हैं। जिनका समाज से कोई सरोकार नहीं है और रोज अखबार में छपते हैं। फोटो के साथ कई काॅलम में। छपास के रोगी पैदा कर दिए हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे पर भी अनाप-शनाप बयान जारी कर देते हैं। कोई मुद्दा नहीं मिला तो क्रिकेट इंडिया जीती, नहीं जीती तो हाॅकी हारी आदि ऐसे कई मौकों को भुनाते हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी के जन्मदिन पर मिठाइयां बंटीं, किसी भी बयान पर पुतला फंूक डाला और बड़े से फोटों के साथ छप गए। कभी-कभार पत्रकारों को छापने का मूल्य भी चुकाते हैं। कभी गिफ्ट के रूप में तो कभी सीधे पैसा देकर। प्रेस कांफ्रेस में रिपोटरों को दिए ट्रीटमेंट से तय होता है कि खबर कितनी बड़ी जाएगी। अच्छा खाना खिलाया तो डीसी बन गई। दारू पिला दी तो तीन से चार काॅलम और कुछ नहीं किया तो संक्षेप में सिमट जाती है।
आखिर पत्रकारिता के इस स्तर की जिम्मेदारी कौन लेगा। अखबार के मालिक, संपादक या रिपोर्टर। सवाल यह भी उठता है कि क्षेत्रीय पत्रकारों और संपादकों के बीच संवाद कितना है। कौन सा संपादक क्षेत्रीय स्तर पर जाकर पत्रकारों से सीधे मिलता है। उन्हें संस्थान से जुड़े होने का अहसास कराता है। पत्रकारिता की गुणवत्ता पर बात करता है। सिखाता है। उनके सुख दुख का साथी बनता है। और क्षेत्रीय संपादकों के इतर कितने अन्य कर्मचारियों के नाम उन्हें मुंह जबानी याद हैं। गुणवत्ता के गिरते स्तर पर कौन संपादक बात करता है। उनसे पूछता है, उनकी पेज भरने की विवशता। साथ ही एक दिन में पांच से आठ खबरें देने की विवशता के बाद उन्हें कितना वेतन देता है। कई संपादकों को तो यह भी नहीं पता होता कि क्षेत्रीय स्तर पर कितना पैसा दिया जा रहा है।हर छोटे शहरों की यही हालत है। बहुत से लोगों ने अधिकारियों, नेताओं को ब्लैकमेल करने के लिए ही अखबार निकालने शुरू कर दिए हैं। जमकर धंधेबाजी हो रही है।
पत्रकारिता के लिए बेहद अफ़सोस का दौर है। जब दूर-दराज के गांवों में पत्रकारिता की पहचान इस रूप में हो रही है तो शहरों के जागरूक पाठकों की नजर में क्या स्थिति होगी। और सबसे बड़ी बात उन रिपोर्टरों की क्या छवि होगी, जिनसे खबरों के दौरान वे मिलते हैं। यह दर्द संपादक और मालिक महसूस करते हांे, इसकी संभावना नहीं लगती। सारी संभावनाएं अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ाने की आपाधापी में गुम होती जा रही है। इस कड़वी सच्चाई से अखबार के मालिक, संपादक, रिपोर्टर भले ही नजरें चुराएं लेकिन एक आठ साल की बच्ची भी इसे बखूबी बयां कर देती है।

2 टिप्‍पणियां:

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

wah sirji kya baat kahi hai...... mai ye pad chuki hu. sach aaj patrakarita ki yahi chhavi ban rahi hai. aksar logo k muh se ye shabd sunane ko mil hi jaate hai.

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

wah sirji kya baat kahi hai...... mai ye pad chuki hu. sach aaj patrakarita ki yahi chhavi ban rahi hai. aksar logo k muh se ye shabd sunane ko mil hi jaate hai.