गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

अय्यार दुनिया

राहुल कुमार
दरीचे में रखी ये बेढंगी किताबें
आज सुबह से ही मुंह चिढ़ा रही हैं मुझे
इनमें जो लिखा है इनसे जो पढ़ा है
कुछ भी तो नहीं है इस अय्यार दुनिया में
आसूदगी की बातें, नेकियत की दुहाई
इंसानियत के किस्से, उसूलों की कसमें
जैसे बोझ सी जान पड़ती हैं मुझे
अक्लबानों की ये बातें, कमअक्लों के लिए
पांवों में पड़ी जंजीर के सिवा कुछ भी तो नहीं है
कितनी झूठी और मक्कार लगने लगी हैं किताबें
जो खींच ले जाती हैं, ऐसे स्याह जहां में
जो कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं
और हम ढूंढ़ते रहते हैं, ताउम्र
एक बेहतर कल की आस में
जिसे ख्याबों में आना है, हकीकत में नहीं
फिर सोचता हूं, उस शख्स के बारे में
जिसने बना दिया है मुझे ऐसा
जिसने दी है ये दृष्टि
जो जेहन में छुपा बैठा है
और कचोटता है मन को
रह रह कर आता है याद मुझको
लाख कोशिश करता हंू फिर भी बेबस हूं
आंख के कोने में आए आंसू की तरह
उसका ख्याल जाता क्यों नहीं।

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

दुनिया के विविध रूप व रंग हैं। इसमें सब तरह के लोग हैं। लोगों को देखो, उनसे सीखो और इसके अलावा कोई रास्ता नहीं। जो ऐसा हो उससे वैसे मिलो। यही रीत है। अच्छे बुरे अनुभव का नाम ही तो जिन्दगी है। लेकिन यह कोशिश हमेशा रहे कि आपके व्यवहार से कोई हर्ट न हो।
आपकी कविता सुन्दर है। शब्द को अच्छे से बांधा है। बधाई।

मधुकर राजपूत ने कहा…

लो जी बधाई तो पूजा जी ने दे दी, हम सलाह दे देते हैं, किताबें बदलो मन बदल जाएगा। हास्य व्यंग्य में दिल लगाओ, व्यंग्य लेखन मोक्ष है, और उसे पढ़ने वाले ऑलवेज़ खुश।