रविवार, 20 दिसंबर 2009

परेशानी में है अखबार

राहुल कुमार

एक अखबार बेहद परेशान हैं। परेशानी ऐसी की उसकी जान निकल रही है। वह चिंतित है। व्याकुल है। और सोच में डूबा हुआ है। परेशानी से निजात पाने के लिए वह कई कथिक विशेषज्ञों, कुछ बांगडूओं और कुछ ऐरे गैरे नत्थूखैरोें से सलाह लेता फिर रहा हैै। बहस करा रहा है। और अपने सोलह पेज में से कभी पूरा पेज, कभी आधा और तो कभी चार, तीन, दो काॅलम में बहस का हिस्सा छाप रहा है। सामाजिक सरोकार ऐसा कि सभी पाठकों से राय भी ले रहा है। अपनी समस्या जगजाहिर कर रहा है। समस्या भी विकराल है। जो मानवजाति के इतिहास में पहली बार आ धमकी है। अखबार के गले की फांस बन बैठी है।

रोजाना की तरह ही 31 दिसंबर की शाम सूरज डूबेगा और 1 जनवरी की सुबह उदय होगा। प्रकृति के बंधे बंधाये नियम के मुताबिक। लेकिन यही पल अखबार को सासंत में डालने वाला बन गया है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर नए साल को क्या कहें। उसे ट्वेंटी टेन से नवाजें, टू थाउजेंट टेन कहें या फिर टू टेन पुकारें। उसके रिपोर्टर कैंपस मंे स्टूडेंट को पकड़ रहे हैं। जो मिल जाता है चढ़ बैठतेे हैं और पूछ लेते हैं। नए साल को क्या कहें। लेकिन कमबक्त परेशानी है कि जाने का नाम नहीं ले रही। और इस तिलिस्म भरी समस्या से जूझने वाला अखबार कोई और नहीं, खुद को देश की राजधानी का सबसे लोकप्रिय कहने वाला पत्र है।

अखबार की इस गंभीरता पर अपुन कायल हो गए। देख रहे हैं कि जैसे वह समस्या के निदान के लिए अखबार का भरपूर स्पेस दे रहा है। जो स्पेस उसने कभी गरीब, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बेरोजगारी व अन्य सामाजिक समस्याओं पर नहीं दिया। कभी इनके लिए युद्ध स्तर पर ऐसा अभियान नहीं छेड़ा। और आज भयानक समस्या दिखी तो वह कैसे चिंतित हो उठा। कैसे उसने अपने सबसे जिम्मेदार पत्र होेने की इत्तला कर दी। और कैसे समस्या का हल ढंूढ़ने के लिए विशेषज्ञों की चैपाल बिठा ली। आखिर राजधानी का सबसे बड़े अखबार होने का गौरव ऐसे ही थोड़े मिल जाता है। त्याग करना होता है। मुद्दों को समझने की पारखी नजर और उन पर सटीक जानकारी देने दी अद्भुत कला का धनी होना होता है। बेहद काबिले तारीफ है कि पत्र ने अन्य छुटपुट समस्याओं से पाठकों का ध्यान हटाकर इतिहास की सबसे बड़ी व विकराल समस्या की ओर कितनी कलात्मकता से ध्यान आकर्षित कर दिया। मुरीद न हो तो क्या हो।

खैर वो बात और कि अखबार की समस्या का हल हो भी जाए, लेकिन प्रकृति का असंतुलित होना रूकने वाला नहीं। हर छह बच्चों में भूख से मरने वाले उस एक बच्चे को भरपेट भोजन मिलने वाला नहीं। लोगों को कमजोर कर उनकी कमजोरियों को सियासी रंग देकर सत्ता पर काबिज होने की कायरता रूकने वाली नहीं। बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर सड़कों पर चप्पल चटकाते युवाओं को रोजगार मिलने वाला नहीं। बीसों साल से न्याय के लिए कोर्ट के चक्कर काटते गरीब को न्याय नहीं। रोटी, मकान, सड़क, बिजली, पानी समस्याओं मंे कोई विकास नहीं। धर्म के नाम पर लूटने वाले मठाधीशों का बाल भी बांका नहीं। कई वादों में बिखरे देश को और नए वाद पैदा कर बांटने वालों पर कोई आंच नहीं। गुंडों और बाहूबलियों पर कोई अंकुश लगने वाला नहीं है। जब नये साल में कुछ भी नया होने वाला नहीं है तो क्यों न नये साल को नया नाम देकर ही मन भर लिया जाए। और नयेपन का अहसास कर लिया जाए। आखिर अन्य मुद्दांे के लिए क्या लड़ना। और इस शांतिप्रिय देश में लड़ने की बात भी क्या करना। जब अखबार की ये दूरदृष्टि समझ मंे आई तो खुद को कोसे बिना हम नहीं रह सके। कितने बेवजह के मुद्दों पर नजर गड़ाए बैठा रहता हूं। असल मुद्दा तो यहां था। जिस पर ध्यान ही नहीं गया। वो तो इस अखबार को भला हो। वरना दिल्लीवासी कहीं के नहीं रहते। अखबार की इस चिंता पर अगर सारी मीडिया गंभीर हो उठे तो कोई परेशानी ही न रहे।

पर वो बात दूसरी है कि नये साल का सूरज भी अपनी किरणों में किसी तरह की कोई तब्दीली करने वाला नहीं।

3 टिप्‍पणियां:

harekrishna ने कहा…

सही कहां आपने दिल्ली का सबसे बड़ा अखबार होने का दम भरने वाले इस पत्र ने पॉपकार्न जर्नलिज्म की कुछ ऐसी बयार चला रखी है कि आम जन मानस के मुद्दों इसके तले पूरी तरह दब कर रह गए है. इसके रिपोर्टरों को जाकर देखना चाहिए दिल्ली के स्लम्स में नए साल में कितने बच्चे पैदा होते ही मर जाएंगे।

मधुकर राजपूत ने कहा…

ये वही हिंग्लिश का अखबार है जिसके रिपोर्टर, "बदमाशों ने वैन से पिस्टल बाहर निकालकर फायरिंग की और एक लेडी को किडनैप करते हुए अगले कट से लेफ्ट टर्न लेकर डीएम ऑफिस के सामने से गायब हो गए" लिखते हैं। ये असमंजस में हैं कि क्या करें। हिंदी के अखबार को रोमन एसएमएस टाइप अंग्रेजी निकालना शुरू कर देंगे कुछ दिन में ये। इनका पाठक वर्ग भी वही है जो न हिंदी वाला न इंग्लिश वाला। उन्हें हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट पसंद आती है। इसलिए ये सारी हरारत उसी मूढ़ पाठक के लिए की जा रही है। ये ईज़ाद कर रहे हैं, पत्रकारिता के पितामह ने मुद्रास्फीति शब्द दिया था इनके रिपोर्टर साल का नाम ईज़ाद करके युवा वर्ग के लहकटों को नया शब्द देने का प्रयास कर रहे हैं। लगे रहो बेट्टा। यही है दुकानदारी।

Unknown ने कहा…

कुछ भी कह लो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और कुछ भी न कहो तब भी फर्क नहीं पड़ेगा। अब ट्वेंटी टेन हो या टू टेन ? लेकिन अखबार इस मुद्दों को लेकर इतना संजीदा क्यों है ? इस पर जरूर कहा जा सकता है। आपने अच्छी ओर ध्यान आकर्षित कराया। यह वही अखबार है। जिसके लिए 14 फरवरी महापर्व होता है। और सात दिनों तक यह महोत्सव चलाया जाता है। जिसमें तरह तरह के दिवसों पर तरह तरह की स्टोरियां होती हैं। किस डे, हग डे, प्रपोज डे, चाकलेट डे आदि आदि इत्यादि।