गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

पागल पागल रहतें हैं

जब मुझे प्यार नही था तो सोचता था कि जिस दिन प्यार करूँगा तो टूटकर करूँगा। सारी दुनिया भुला बैठूँगा। दोनों हाथ खोलकर खुशी से सारे आकाश को दौड़कर बांहों में भर लूँगा। खिली खिली फिजाये सिर्फ़ मेरी होंगी। फूल मेरे लिए खिलेंगे, बसंत मेरे लिए गाएगी और पतझड़ की उदासी मुझे छो तक नही पाएगी, बूँदें मेरे लिए बरसेंगी, सुबह मेरी होगी, शाम मेरी। सर्दी के गुलाबी दिन और गर्मियों की चांदनी रातें सिर्फ़ मेरे लिए महकेंगी।
मैं ऐसे प्यार करूँगा कि हर पल खुशियों से लबालब हो जाएगा। वो चाहे न चाहे पर मैं तो वेपनाह प्यार करूँगा उसे। ऐसे कि धर्मवीर भारती की उपन्यास गुनाहों का देवता का प्यार भी बहुत पीछे छूट जाएगा। उपन्यास की नायिका सुधा भी मुझ सा प्यार करने को लालायित हो उठेगी। उसकी हसी पर सारा जहा न्योछावर कर दूंगा। उसे इक पल दूर नही होने दूंगा। अपने रिश्ते को ऐसी गहराईयों तक ले जाऊंगा जहा से जुदाई की सारी लकीरें ख़ुद व ख़ुद मिट जाती हैं। प्यार की ऐसी गर्माहट दूंगा कि जीवन में कुछ और पाने की लालसा नही रह जायेगी। मेरे दिन जीवन के सबसे खूबसूरत और अनमोल लम्हे बन जायेंगे। जो भुलाये नही भूलेंगें।
उसका हाथ अपने हाथो में लेकर घंटों यूँ ही देखता रहूँगा। वो होगी तो जिन्दगी होगी। कोई गम मुझे छू तक नही पायेगा। पहले जानबूझकर उसे नाराज कर दूंगा फ़िर सर झुकाकर माना लूँगा। उसे।
ऐसा प्यार जहा एक-दूसरे के बिन जीना मुश्किल होगा। एक दिन बात न होने पर पहाड़ सा टूट पड़ेगा। जहा धडकनों को धडकनों के धड़कने से महसूस किया जाता हो। जहा मिलने की उत्सुकता हो, जहा एक दूसरे के लिए बेचैनी हो, जहा आतुरता हो, बेताबी हो, महज दिल बात करता हो दिमाग जैसी कोई चीज दरमियाँ न हो, जहा पागलपन हो, व्याकुलता हो, एक-दूजे से मिलने के लिए जहा छटपटाहट हो, रातों को अचानक उठ कर बैठ जाते हो जब नीद टूट जाती है,
पर आज जाने क्यो उसके होते हुए भी तनहा हूँ। सोचता हूँ कितनी अजीब होती हैं ये ख्यालों की बातें,,,,,,,, ?

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

तुम्हारी याद

तुम्हारी याद में चहका, तुम्हारी याद में महका
तुम्हारी याद में निखरा, तुम्हारी याद में बिखरा
तुम्हारी याद मुझको रात भर सोने नहीं देती,
कभी हंसने नहीं देती, कभी रोने नहीं देती।

तुम्हारी याद मेरे घर के चौकीदार जैसी है ,
जो पूरी रात जगती है, सुबह करवट बदलती है।
तुम्हारी याद दादी माँ की उस लोरी सरीखी है,
कि जो बच्चों की मीठी नींद में अक्सर टहलती है।
तुम्हारी याद घर आई हुई चिट्ठी की तरह है,
जो अपने दूर के संदेश भी नजदीक लाती है।
तुम्हारी याद पूजाघर में प्रातः वंदना जैसी
जिसे हर रोज़ मेरी माँ बड़ी श्रद्धा से गाती है।
तुम्हारी याद मुझको भीड़ में खोने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।
तुम्हारी याद मेरे सोच की गहराइयों में है
तुम्हारी याद मेरी रूह की परछाइयों में है।
तुम्हारी याद मेरी चेतना के पंख जैसी है
तुम्हारी याद सन्नाटे में गूंजे शंख जैसी है।
तुम्हारी याद मरुथल में भटकती प्यास भी तो है
तुम्हारी याद सीता का कठिन वनवास भी तो है।
तुम्हारी याद जीने का सबक देती तो है, लेकिन
तुम्हारी याद मरने तक कोई संन्यास भी तो है।
तुम्हारी याद क्यों मुझको, मुझे होने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।

तुम्हारी याद फूलों सी, तुम्हारी याद शबनम सी,
हवा के मंद झौकों सी, नए मदमस्त मौसम सी।
तुम्हारी याद झूलों सी, तुम्हारी याद सावन सी,
तुम्हारी याद अंगडाई, तुम्हारी याद धड़कन सी।
तुम्हारी याद राधा-कृष्ण में व्याकुल सी मीरा सी,
तुम्हारी याद तुलसी, सूर, रत्नाकर, कबीरा सी।
तुम्हारी याद जयशंकर, महादेवी, निराला सी,
तुम्हारी याद बच्चन की छलकती मस्त हाला सी।
सुमन जैसी तुम्हारी याद, दिनकर सी, भवानी सी,
तुम्हारी याद कोमल गीत, चौपाई, कहानी सी।
तुम्हारी याद समझौता कोई ढोने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

खुदा का शुक्र है मैं मुसलमान नही

ये मेरे साथ पहली बार नही हुआ है। करियर बनाने ही धुन के संघर्षमय दौर में ये चोथी बार हुआ है। और सोचता हूँ कि क्या भारत में मुसलमान होना इतना बड़ा जुर्म है ? जिसे ख़ुद एक मुसलमान भाई भी नही जानता होगा। खुदा की मर्जी से इंसान जन्म लेता है और जिन्दगी की गुजर बसर करता है। इस दुनिया में जन्म लेने से पहले अगर इश्वर पूछता कि अमुख व्यक्ति कंहा जन्म लेना चाहता है तो शायद ही कोई भारत में मुसलमान और पकिस्तान में हिंदू बनकर जन्म लेने की हामी भरता ?
मैंने अपना देश देखा है इसलिए अपनी बात करता हूँ। पिछले कुछ दिनों से एक कमरे कि तलाश में घूम रहा हूँ। ठीक वैसे ही जब पहली बार कुछ कर गुजरने की चाहत लिए दिल्ली की गलियों की ओर गाँव से कसबे, कसबे से ग्वालियर जैसे महानगर और ग्वालियर से राजधानी दिल्ली की ओर कूच कर बैठा। तब पहली बार जाना था कि अगेर मैं मुसलमान होता तो कितनी मुश्किलें ख़ुद व ख़ुद घेर लेती। कमरे को किराए पर देनी की पहली शर्त मुसलमान न होना थी। यही शब्द फ़िर मेरे कानो में हाल ही में गूंजे हैं जो चोथी बार है।
बात उन दिनों की है जब जनसत्ता अखबार में इन्टर्न शिप करने के लिए पहली बार मैं दिल्ली आया था। दो माह की इंटर्नशिप थी। इसकारण रहने और खाने पीने का आस्थाई इंतजाम करना जरूरी था। काफी पूछ ताछ के बाद पता चला की सस्ता और सुलभ कमरा न्यू अशोक नगर में मिल सकेगा। सो तलाश जारी कर दी। जितने मकान मालिको से बात हुयी सबका पहला सवाल था मुस्लमान तो नही हो ? मैं अचरज में पड़ गया था, यह सोच कर की गर मैं मुसलमान होता तो क्या वाकई मुझे कमरा नही मिलता ? शुक्र है खुदा का मैं मुसलमान नही हूँ। फ़िर चाहे हिंदू होकर ही कितना भी कमीना, मदिरा पान करने वाला, मांस खाने वाला व अयियास क्यों न होऊ। कोई फर्क नही पड़ता। यहाँ तो हिंदू और मुसलमान जैसे शब्दों पर ही सारे समीकरण अटक जाते हैं। एक दूसरे से नफरत का कारन हिंदू और मुसलमान होना काफी है। हाल ही में फ़िर से कमरे की तलाश में घूम रहा हूँ। खूब भटका हूँ पर पहले वाला सवाल आज भी पहले पायदान पर ही हैं,, सच मैं मुसलमान नही हूँ, और होऊ भी तो क्या इस तरह के माहौल में कोई अपने धर्म को बताएगा ? न भी बताएगा तब भी कहा छोड़ा जाता है दंगो में। गाँव और मुहल्ले धर्म के नाम पर जला दिए जाते हैं। महिलायों की इज्जत महज इसलिए लूट ली जाती है क्योकि वह दूसरे धर्म की होती हैं। क्या किसी की सामाजिक जिन्दगी सिर्फ़ इसलिए ख़त्म कर देनी चाहिए की वह दूसरे धर्म की हैं ? आहत हूँ ये सोचकर, इसतरह का व्यवहार करने के बावजूद हम उम्मीद करते हैं की अमुख धर्म के लोग इक होकर रहे, देश का सम्मान करे ?
भीष्म साहनी की उपन्यास तमस की गन्दी राजनीति याद आती हैं जिसमे मुस्लिम नेता हिंदू के हाथो सूअर मरवा कर मस्जिद में डलवा देता है। फ़िर दंगे होते हैं, हर धर्म का जिहादी काफिला अपनी मर्दानिगी के किस्से सुनाते हैं की किस गाँव में कितनी महिलायों और लड़कियों के साथ बलात्कार किय है, वह किस्सा आज भी नही भुला पाता हूँ जब रातों को दंगा कर के टोली लौटती है और इक बहादुर किस्सा सुनाता है - अरे उस महिला को देखा था कैसे हम लोगो को देखकर हाथ जोड़कर चिला उठी थी की मेरे साथ कुछ भी कर लो पर मुझे छोड़ दो। फ़िर भी हम माने नही थे, पूरा सबक सिखाया था। तभी एक और बहादुर कह उठता है अरे जब तक मेरी बारी आई साली मर ही गई थी।
सब कुछ जानते हुए भी हम आज भी वैसे ही है जैसे पहले थे। भाजपा मदिर के नाम पर वोट मांग रही है। मोदी मुख्यामंत्री बन जाता है ? धर्म के नाम पर नफरत के नाम पर.... फ़िर भी हम प्यार तलाशते फ़िर रहे है ? अमन से रहने की बात करते फ़िर रहे हैं ? फ़िर कल ही मन्दिर मस्जिद की दीवार हिलेगी और लाशो के ढेर लग जायेंगे। और तस्लीमा नसरीन की उपन्यास लज्जा का नायक दस रुपए देकर भी जबरदस्ती करेगा क्योकि वह मुसलमान की लड़की है ........

राहुल कुमार

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

ग़ज़ल

अक्सर तेरे ख्याल से बाहर नहीं हुआ
शायद यही सबब था मैं पत्थर नहीं हुआ।

महका चमन था, पेड़ थे, कलियाँ थे, फूल थे,
तुम थे नहीं तो पूरा भी मंज़र नहीं हुआ।

माना मेरा वजूद नदी के समान है,
लेकिन नदी बगैर समंदर नहीं हुआ।

जिस दिन से उसे दिल से भुलाने की ठान ली,
उस दिन से कोई काम भी बेहतर नहीं हुआ।

साए मैं किसी और के इतना भी न रहो,
अंकुर कोई बरगद के बराबर नहीं हुआ।