मंगलवार, 5 मई 2009

पत्रकारिता पर रोने के लिए दुखड़ा बदलो

राहुल कुमार
पत्रकारित्रा के छात्र जीवन में जितने भी नाम चीन पत्रकार हमें लेक्चर देने विश्वविद्यालय आते ज्यादातर अपनी संघर्ष की कहानी सुनाते थे। और छात्र अधिकांशतः एक ही सवाल पूछते- पत्रकारिता मिशन है या प्रोफेशन ? असल में मैं भी इस जाल में ऐसा फंस गया था कि हर संभव इसका जवाब ढूंढने की जुगत में लगा रहता। इसके अलावा छात्र जीवन के बाद अब नौकरी में दौरान भी गोष्ठी के नाम पर एकत्रित हुए बड़े पत्रकारों को भी एक दो विषयों से इतर बहस करते नहीं देखता हूं।
छात्र जीवन में ग्वालियर में कई गोष्ठियों में शामिल हुआ लेकिन मुद्दे हमेशा एक से ही पाए। पहला संपादक की सत्ता पर प्रबंधक का दवाब, दूसरा खबरों से ज्यादा विज्ञापन की बढ़ती अहमियत, और तीसरा भाषा का गिरता स्तर। जिसमें बड़े पत्रकारों का भाषा को लेकर रोना और सुधारने के लिए लंबी दुहाईयां और नए पत्रकारों को जमकर कोसना शामिल होता था। सौभाग्य से दिल्ली में भी एक गोष्ठी में शामिल होना का मौका जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार अमित प्रकाश जी के सहयोग से मिला। गोष्ठी का विषय था स्वतंत्रता के बाद पत्रकारिता के जोखिम और चुनौतियां। जिसमें देश के बड़े अखबारी और खबरिया चैनलों के पत्रकारों ने अपने मत रखे। गोष्ठी में हिंदी निदेशालय के निदेशक और दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग की प्रोफेसर भी शामिल थीं। इसके अलावा नवोदित पत्रकारों को भी बोलने का मौका दिया गया।
वक्तवों में भाषा, संपादक की सत्ता और विज्ञापन के प्रभाव जैसे मुद्दों के इर्द गिर्द ही सारी गोष्ठी के मत घूमते रहे। लेकिन पत्रकारिता की चुनौतियां और जोखिम और भी हैं। गोष्ठी में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर ने अपना महिला होने का धर्म निभाते हुए मीडिया पर स्त्री देह को इस्तेमाल करने बात कही। यह मुद्दा मेरे लिए नया तो नहीं पर गोष्ठी में किसी महिला से पहली बार सुना था। सो नया लगा।सोचता हूं कि गोष्ठियांे के पास क्या इन मुद्दांे, विषयों के लिए की गई बहसों के अलावा कुछ और नहीं होता। पत्रकारिता में भाषा गिरी है पर है तो, वह भी जनमानस के हिसाब से तब्दीली के साथ पनपी है। संपादक की सत्ता प्रभावित हुई पर वह भी अस्त्तिव में है। संपादक नाम का प्राणी आज भी खबरों का मुखिया और जवाबदेह है। वहीं खबरों और विज्ञापन में दोनों का महत्तव बराबर है। और जब तक पत्रकारिता रहेगी दोनों की बराबर अहमियत बनी रहने की संभावनाएं हमेशा जीवित रहेंगी।
लेकिन पत्रकारिता जिस बात से सबसे ज्यादा पतित हो रही है उस मुद्दे को कोई छूता ही नहीं है। मैं समझता हूं कि इस विधा के बगैर पत्रकारिता पूरी तरह लुप्त हो जाएगी। जिसपर किसी का ध्यान नहीं है। खासकर इसके बगैर पत्रकारिता बेहद मुश्किल व गुणवत्ता के साथ बना रहना कठिन है। जिस संस्कार से ही देश के बढ़े पत्रकार आज नाम कमा चुके हैं। उन्हीं का ध्यान अब इस संस्कार पर नहीं है। मैं बात कर रहा हंू गुरू शिष्य परंपरा की। जो आज की पत्रकारिता में खो चुकी है। कथित बड़ा पत्रकार न्यूकमर को अपने गुर देेने से इतना डरता है कि कुछ पूछते ही पत्रकारिता में आने की बात को ही दुर्भाग्य कह उठता है। अगर मजे पत्रकार नवोदित पत्रकारों को गुर नहीं देंगे तो कैसे यह पेशा गुणवत्ता के साथ बना रह सकता है। सभी जानते हैं कि प्रभास जोशी बने तो राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसे लोगों के बीच रहकर। साथ ही जनसत्ता जब अपने उफान पर था तो आज कई संस्थाओं के उच्च पदों पर बैठे बड़े पत्रकार यहीं पत्रकारिता के गुर सीखा करते थे। लुप्त हो चुके इस संस्कार से पत्रकारिता जरूर गलत दिशा में जा सकती है। गोष्ठियों में इस मुद्दे पर बहस करने वाले शायद ही मिले। लेकिन खुद को बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखने के लिए वह संपादक की सत्ता और भाषा के गिरते स्तर पर खूब हिचकियां भरते हैं। महोदय पत्रकारिता पर रोने के लिए और भी खूब मुद्दे हैं। पर इसके लिए जरा यथार्थ पर आना होगा। समय पर और जरूरत के हिसाब का वेतन मिलना भी बड़ा मुद्दा है ?

5 टिप्‍पणियां:

आशेन्द्र सिंह ने कहा…

राहुल भाई जबतक दिल्ली में रहा मुझे भी लगता था कि ये मुद्दे सिर्फ गोष्ठियों में बहस और विचार झिलाने तक सीमित हैं . ग्वालियर में हालात देख कर लगता है ये एक ऐसी चुनौती या गंभीर मसला है जो कईयों के भविष्य को अंधकारमय बना देगा.

मधुकर राजपूत ने कहा…

मुख्य मुद्दा तो भाईसाहब ने नीचे रख दिया। और रही बात आपके मुद्दे की। तो ज़नाब आज के बरिष्ठ पत्रकार हमें अपना कॉम्पिटेटर मानते हैं तो गुरू कैसे बन सकते हैं। किसी को फोन करिए कि मिलना है सर, तो सूख जाते हैं। नौकरी के नाम पर एक इंटरव्यू अरेंज नहीं करा सकते। शोषण होता रहता है। लड़का हो या लड़की सब शोषित हैं और जो पहले शोषित थे वो शोषक बन बैठे हैं। रही बात सेमिनारों की तो हर सेमिनार इन्हें आयोजित करने वाले बूढ़े पत्रकारों के बुढ़ापे की लाठी होती है साहब। कमाई चलती रहती है। कुछ मुद्दे उछलते हैं, गर्म बहसें होती हैं और फिर उन्हें अगले साल के लिए जस का तस रख छोड़ा जाता है। निवारण करने को अवतार लेगा विष्णु, इन्हें तो बहस करनी है बस। एक और मुख्य मुद्दा है जिसका कोई नहीं है इस लाइन में वो कितने साल सड़क पर भटकेगा कोई नहीं जानता। जुगाड़वाद, ज्ञान आधारित पेशे पर हावी है। कोई ऐसा तंत्र भी तो बने जिससे योग्य पात्रों को नौकरी आसानी से मिल सके। इस पर कोई बहस नहीं करता। गले का थूक सूख जाएगा। सत्तू की लस्सी से भी तर न हो अगर बहस करने बैठ जाएं। इस बार हमें ले चलो किसी सेमिनार में। देखो कैसी बखिया उधेड़ता हूं बहस बहादुरों की।

रिपोर्टर कि डायरी... ने कहा…

बिलकुल सही मुद्दा उठाया है सर, पत्रकारिता पर होने वाली प्रत्येक गोष्ठी का ही आज केवल यही मुद्दा है जो बचा है, आज भी मैं एक ऐसी ही गोष्ठी में गया था था मुख्य अतिथि थे पांचजन्य के संपादक बलदेव शर्मा जी और फिर क्या शुरू हो गयी पत्रकारिता की आदि से अंत तक की वही कहानी जो हर जगह सुनने को मिलती है, बात ये है सर जी कि लम्बा चौडा भाषण तो हर कोई झाड़ देता है लेकिन पता नहीं इन मूर्धन्य महात्माओं के होते हुए भी पत्रकारिता का स्टार क्यों लगातार गिरता जा रहा है..............

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

बल्कुल सही बात कहीं सर आपने मैं भी अक्सर यही सोचती हूँ। कि गोष्टी का विषय अक्सर ऐसी बातों पर ही क्यों रखा जाता है। और फिर नवोदित पत्रकारों को जमकर कोसा जाता है। जो अभी इस विधा में कदम रख ही या कुछ ही कदम चल पाये है। क्या वे सिर्फ इसके लिए जिम्मेदार हो सकते है।

BIJAY MISHRA ने कहा…

aacha tum patrkar ho to ye batawo reporting karne khabar lekhne ke alawa keya kar sakte ho. reporting talent ke alawa tumme aur keya talent hai.