शनिवार, 9 जनवरी 2010

दूध, समोसे वाले मजबूत व टिकाउ मास्साब

राहुल कुमार
कान उमठेते, पेट की खाल खींचतेे, बाल पकड़ते और हाथ मरोड़ते मास्साब पहली कक्षा से ही पल्ले पड़ गए थे। यह सिलसिला जवानी तक जारी रहा। बस मास्साब की फितरत बदलती रही। अपने आप में सब के सब महानता लिए हुए। अलग अलग परिपेक्ष्य वाली। जिन्होंने पढ़ाने की अद्भुत शैली अपनी घोर तपस्या से हासिल की थी। सभी मास्साब की पढ़ाने व पिटाई करने की अदा खास थी और वहीं उनकी पहचान। कोई कान पकड़ने के धनी थे तो कोई पेट की खाल खींचने मंे अव्वल। कोई झटके से बाल उखाड़ मंे उस्ताद थे तो कोई मारने से पहले हाथ से घड़ी उतारने के हुनरमंद। छात्र भी एक से बढ़कर एक महारथी थे। उनने भी सबकी मारक शैली का पूरा परीक्षण कर रखा था। जैसे ही मास्साब गुस्से मंे आते कि उसी अंग को बचा लेते जिसपर वह आक्रमण करने के कलाबाज थे। कभी कान पर हाथ रखकर तो कभी बाल पर। मास्साब भी छात्रांे के इस शोध से तंग आ गए थे।

तरह तरह के मास्साब। कोई महान क्रांतिकारी बनने का नाटक करते और तर्क देते कि सब जगहों पर उंची उंची इमारतें बन गई हैं। कहीं भी बैठने की जगह नहीं है। इसकारण देश में क्रांति नहीं हो पा रही है। लोग एक साथ नहीं बैठ पाते और क्रांति की योजना नहीं बन पाती। तो कुछ ऐसे कि धेला भर भी जानते नहीं और बघारते ऐसे की महाज्ञानी हो। और खूब हड़काते।

बाल्यावस्था में पहली बार तीन साल की उमर में खांटी गांव की पाठशाला में पिता जी ने दाखिला दिला दिया था। जहां कांवेंट की तरह बेंच व कुर्सियां नहीं थीं। बस्ते में सिलेट और बत्ती के साथ बोरी का एक पल्ला फाड़कर टाटपट्टी के रूप ले जाना पड़ता था। उसे बिछाते और बैठते। कक्षाएं ऐसी की शांतिनिकेतन की छवि दिखाई पड़ती। सूरज की दिशा के साथ साथ बरगद के पेड़ के नीचे हमारी पंक्तियां घूमती रहतीं। बरगद की आड़ में सूरज की तपन से बचने के लिए जैसे-जैसे सूरज घूमता हम भी घूमते और मास्साब की कुर्सी भी। बरसात से बचने का कोई उपाय नहीं था। टप टप गिरते टपके को झेलना ही पड़ता था। और सुबह स्कूल पहंुचते ही कक्षा से पानी उलीचना पड़ता था। अन्य मौसम मंें स्कूल में झाडू लगाना, कंकंड बीनने का काम छात्रों के जिम्मे था।

कुछ ही समय की मगजमारी के बाद हमें समझते देर न लगी थी कि हम इसी पाठशाला के लिए बने हैं और हमें पढ़ाने वाले मास्साब को भी दुनिया मंे कहीं और ठौर मिलने वाली नहीं। दोनों का संबंध आठवें अजूबे की जोड़ी था। और यह जोड़ी टूटे से भी नहीं टूटनी थी। हम काॅवेंट स्कूल, डीयू, जेएनयू, कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, हार्वर्ट जैसे विश्वविद्यालयों के लिए नहीं बने थे। और हमारे मास्साब भी नहीं। उन्हें हमसे ही सर मारना था। और हमें उनमें ही खपना था। जैसे दोनों एक दूसरे के लिए ही धरती पर अवतरित हुए हो। गजब का मेल था। जैसे छात्र वैसे अध्यापक। रंगा-बिल्ला से।

एक मास्साब थे जाटव जी। विज्ञान के पुरोधा। अपनी कुंजी साथ लाते और प्रश्न बोलकर उत्तर उसी मंे से टिपा देते। कोर्स खत्म। कुछ पूछ बैठो तो हकलाते जवाब देते थे। एक दिन हम पूछ ही बैठे कि एयरबेस क्या होता है। कहने लगे अंतरिक्ष मंे वैज्ञानिकों को लाने ले जाने की एयर बस को एयरबेस कहते हैं। किस्सा खत्म। एक थे शुक्ला जी। संस्कृत के पुरोधा। ऐसे मास्साब कि बच्चों का नाम कभी नहीं लेते। सीधे उनके बाप के नाम से बुलाते। कस्बे की तीन पीढ़ियों को पढ़ा चुके थे। और अरे रमूआ के, वह श्याम का कहां गया, मक्कार साले तेरे बाप के कान उमेठे हैं तू किस खेत की मूली है आदि इत्यादि वाक्य उनके पान वाले लाल मुख से झरते। जिनके बापों को उन्होंने नहीं पढ़ाया था। उन्हें उनके बड़े भाई के नाम से हांकते। हम ऐसे ही छात्र थे जिसे अपने नाम का बोध कभी न हुआ। बड़े भाई के नाम से ही जाने गए।

एक थे सक्सेना मास्साब। जिन्होंने कभी कक्षा में नहीं पढ़ाया। आॅफिस में रखे लोहे के बक्से पर बिछे फर्श पर लेटे रहते। और पिछवाडे़ से आ रही ठंडी हवा का झरोखे से आनंद उठाते। छात्रों को आॅफिस में ही बुला लेते थे। गणित के पुरोधा थे। एक सवाल दे देते और खर्राटे मारते सो जाते। पूरे साल में एक भी प्रश्नावली हल नहीं कराते। परीक्षा में खुद नकल की पर्ची दे देते। पूरे कस्बे में उनकी धाक थी। गणित में महाज्ञानी थे वह। रिटायर हो गए और एक दिन सीढ़ियों से लुढ़क गए। पैर टूट गया। भगवान ने लंबा आराम दे दिया। अब घर पर ही बघारते हैं मास्टरी।

ऐसे ही थे कबीर साहब, वर्मा जी, त्रिपाठी जी, शर्मा जी। एक से बढ़कर एक ज्ञानी। जो पढ़ाई ही नहीं दूसरे क्षेत्रों में भी गुरू थे। कोई सुबह दूध बेचते, कोई समोसे की दुकान लगाते तो कोई परचूने की दुकान छोड़कर पढ़ाने आते थे। सुबह-शाम वह दुकानदार होते और हम ग्राहक। दोपहर को गुरू-शिष्य की परंपरा का निर्वाह करते। सबसे बढ़े ज्ञानी थे यादव जी। रसायनशास्त्र के ज्ञाता। जिन्होंने पूरी जिन्दगी में पेरियोडिक टेबिल से आगे रसायनशास्त्र नहीं पढ़ाया। छात्र पूरी टेबिल साल भर में नहीं रट पाते। और वह बगैर रटाये आगे नहीं बढ़ते। कई पीढ़ियों से यही सिलसिला चला आ रहा है। यादव जी बेहद अनुशासनप्रेमी थे। प्रश्न लेकर कक्षा से बाहर चले जाते और फिर कक्षा के पीछे जाकर खिड़की से झांकते थे कि कौन क्या कर रहा है ? एक बार, एक छात्र ने खिड़की के बाहर थूक दिया। तब पता चला कि यादव जी पीछे खड़े जायजा लेते हैं। एकदम उनके मंुह पर पड़ा था थूक।

काॅलेज में बीएससी के दौरान अपुन ने तीन साल में एक भी क्लास नहीं ली। बस ट्यूशन जाते थे। जिन मास्साब के पास जाते उनकी एक खूबसूरत लड़की थी। जब हम ट्यूशन पढ़ते थे। वह तभी बाहर निकलती थी। जिस भी लड़के ने उसकी ओर देख लिया तो समझो शामत आ गई। मास्साब लाल हो जाते और कमरे से बाहर निकाल देते। बाद में वह लड़की ट्यूशन आने वाले उसी गांव के गबरू लड़के से पट गई। जो अकसर उसके कारण कक्षा से बाहर निकाला जाता था। मास्साब कुछ न कर पाए।

आज कंक्रीट के इस बियाबान में बचपन के मास्साब खूब याद आते हैं। जिनके सिखाए गुर हम देश के कई अखबारों में जरिये लोगों तक पहंुचा रहे हैं। आखिर नींव तो उन्होंने ही डाली थी हमारी। आज सभी मास्साब के लिए आदर है। जिन्हांेने हर परिस्थितियों में जीने की कला सिखाई। खांटी थे, पर थे मस्ताने। जो सिखाया और जो न सिखा सके। सब जानते हैं। लेकिन हैं तो हमारे मास्साब ही। अद्भुत शैली वाले। हमारे देश के असली मास्साब। जिन्हांेने बच्चों को पढ़ाया, उनके लिए लड़कियां देखने भी गए। फिर बारात में नाचे, उसके बाप बनने पर खुशी जाहिर की। और पीढ़ियों को पनपने, बनते, बिगड़ते देखते। जेएनयू, आॅक्सफोर्ड, डीयू के प्रोफेसर अपवाद हो सकते हैं। जो सिर्फ सुविधाओं व संसाधनों में पनपते हैं। और कुछ सालों का ही संबंध छात्रों से रखते हैं। पर हमारे मास्साब असली व बेजोड़ हैं। मन पर अमिट हैं। जो भारत देश की नींव व संस्कार हैं। सदियों से टिकाउ और मजबूत हैं। गांवों में भविष्य रचने वाले हैं। हमारे मास्साब। हमारे अपने।

3 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

waah.....

Madhukar ने कहा…

हा हा बहुत बढ़िया भाई, हमारे मास्साब समोसे नही बेचते थे बल्कि दूध बच्चों के घर से मंगा कर पीते थे। कंकड हमने भी बीने। तीन घंटे का इंटाबैल "इंटरवल" मारा। घास छीली। तख्तियों से सिर फोड़े और फुड़वाया भी। मास्टर तान के कम्मच मारता था और कहता था सालों तुम्हारी ... तोड़ दूंगा। सब याद आ गया।

somadri ने कहा…

aapka lekh padh kar mujhe meri markhor mastaniyan yaad aa gayee..

badhiya likha..badhai naye sal ki

http://som-ras.blogspot.com