राहुल यादव
एक शहर में बेहद घृणित होते हैं
झुग्गी और उसके बाशिंदे
सड़क किनारे, छप्पर डाले
जिंदगी काटते, फटे पुराने लिबास वाले
मजदूरी करते, ढेले लगाते
रिक्शे चलाते, भीख मांगते
बच्चे, बढ़े
कोठियों में बर्तन धोती मांएं
ये सब हैं नफरत के पात्र
एक शहर में
उन लोगों के
जिनके यहां करते हैं यह काम
रखते हैं उनके घर को साफ
फिर भी बिगाड़ती हैं झुग्गियां
शहर की खूबसूरती को
और खटकती हैं सबकी नजर में
इस शहर की झुग्गियां
किसी काम की होती नहीं हैं झुग्गियां
लेकिन जब भी पुलिस को करना हो टारगेट पूरा
तो झुग्गी में जाती है टीम
उठा लाती हैं चार लोगों को
ब्लेड, गांजा, अफीम लगाकर
शांति भंग करने के आरोप में
भेज देती है सीखचों के पीछे
झुग्गी वालों को
जब भी होता है दबाव अतिक्रमण दस्ते पर
दौड़ जाती हैं गाडिय़ां, मचा देती हैं उत्पात
कुचल देती हैं रिक्शे, मिटा देती हैं झुग्गियां
हटा देती हैं ढेले, रेहड़ी और खोखे
क्योंकि अतिक्रमण करते हैं
ये झुग्गी वाले
जब भी बढ़ते क्राइम पर होनी हो चर्चा
तो झुग्गी के नक्शे बिछा कर
बता देते हैं इन्हें कारण
बस
ये झुग्गियां दिखती हैं सबको
नहीं दिखता बड़ी कंपनियों का अतिक्रमण
बंगलों के बाहर सड़क पर बनाया
बड़े लोगों का छोटा गार्डन
पार्किंग के नाम पर सड़क को घेरना
सफेद लिबास में, काला धन बटोरना
पर जाने क्यों
मुझे ये लगता है
सभी को बचाते हैं ये झुग्गी वाले
खुद की बली देकर
जानते हैं सब
लेकिन नहीं जानते तो
ये खुद झुग्गी वाले
कि कितने काम की होती हैं झुग्गियां ?
रविवार, 5 दिसंबर 2010
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5 टिप्पणियां:
सार्थक सोच ...अच्छी प्रस्तुति
एक कडवे सच को उजागर करती बेहद प्रशंसनीय रचना।
बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए। लेकिन कृपया कर यह बताएं की चर्चा मंच क्या है? और हमें इसकी प्रति कहां मिलेगी ? हम कैसे अपनी रचना को वहां देख पाएंगे ? आपका ब्लॉग देखा, पर वहां चर्चा मंच पर तो हमारी रचना नहीं है। एक बात और आप बहुत काम करती हैं अपने ब्लॉग पर। खास बात यह कि सारा काम उम्दा है।
saargarbhit prastuti!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/12/28-361.html
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